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डीएनए टेस्ट और कानून – क्या पुरुष किसी महिला या बच्चे को इसके लिए बाध्य कर सकता है?

डीएनए टेस्ट और कानून – क्या पुरुष किसी महिला या बच्चे को इसके लिए बाध्य कर सकता है?


आज के आधुनिक समाज में डीएनए टेस्ट (DNA Test) का नाम सुनना अब कोई असामान्य बात नहीं रह गई है। पारिवारिक विवादों, संपत्ति उत्तराधिकार, भरण-पोषण और अभिभावकता के मामलों में अक्सर “पितृत्व की पुष्टि” का प्रश्न उठता है। तकनीक ने हमें यह सुविधा दी है कि कुछ कोशिकाओं से किसी बच्चे के जैविक पिता का पता लगाया जा सके। परंतु एक बड़ा सवाल यह है कि क्या कानून किसी महिला या बच्चे को सिर्फ इसलिए डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य कर सकता है क्योंकि कोई पुरुष ऐसा चाहता है?

यह प्रश्न केवल वैज्ञानिक नहीं, बल्कि कानूनी और नैतिक दोनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण है। आइए इसे विस्तार से समझें।


1. डीएनए टेस्ट क्या है और इसका कानूनी महत्व

डीएनए (Deoxyribonucleic Acid) वह आनुवंशिक पदार्थ है जो प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्ट पहचान को दर्शाता है। किसी भी दो व्यक्तियों का डीएनए एक समान नहीं होता, सिवाय एक जैसे जुड़वां बच्चों के। इसीलिए, डीएनए टेस्ट को पितृत्व (paternity) और मातृत्व (maternity) निर्धारण के लिए सबसे विश्वसनीय वैज्ञानिक तरीका माना गया है।

न्यायालयों में यह साक्ष्य (evidence) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन हर परिस्थिति में इसका आदेश देना उचित नहीं माना जाता।


2. नाइजीरियाई कानून के अनुसार डीएनए टेस्ट की बाध्यता

नाइजीरिया में, कोई भी व्यक्ति दूसरे को जबरदस्ती डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं कर सकता। कानून के अनुसार, यह केवल न्यायालय के वैध आदेश (valid court order) के द्वारा ही किया जा सकता है। किसी पुरुष की शंका या भावना मात्र से यह आदेश नहीं दिया जा सकता।

नाइजीरिया के पारिवारिक कानूनों में यह सिद्धांत स्थापित है कि किसी भी न्यायिक हस्तक्षेप का उद्देश्य हमेशा बच्चे के सर्वोत्तम हित (Best Interest of the Child) को प्राथमिकता देना होना चाहिए।

इस सिद्धांत को Child’s Rights Act, 2003 की धारा 1 में स्पष्ट किया गया है —

“In every action concerning a child, whether undertaken by an individual, public or private body, the best interest of the child shall be the primary consideration.”

इसका अर्थ है कि चाहे मामला अभिभावकता (custody), भरण-पोषण (maintenance), या उत्तराधिकार (inheritance) से संबंधित हो, न्यायालय तभी डीएनए टेस्ट का आदेश देगा जब यह बच्चे के हित में हो।


3. डीएनए टेस्ट कब आवश्यक माना जाता है

न्यायालय केवल उन्हीं परिस्थितियों में डीएनए टेस्ट का आदेश देता है जब:

  • पितृत्व को लेकर गंभीर विवाद हो।
  • किसी बच्चे के वैध उत्तराधिकार या संपत्ति के अधिकार का निर्धारण आवश्यक हो।
  • अभिभावकता या भरण-पोषण के विवाद में बच्चे की जैविक पहचान स्पष्ट करनी हो।
  • न्यायालय यह महसूस करे कि डीएनए टेस्ट के बिना न्यायसंगत निर्णय संभव नहीं है।

अर्थात, डीएनए टेस्ट कोई स्वचालित अधिकार नहीं है — यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है।


4. न्यायालय की विवेकाधीन शक्ति और गोपनीयता का प्रश्न

डीएनए टेस्ट से जुड़े मामलों में गोपनीयता (privacy) और नैतिकता (ethics) का प्रश्न भी उतना ही गंभीर है। हर व्यक्ति को अपने शरीर और निजी जीवन पर अधिकार है। इसलिए, अदालत यह देखती है कि डीएनए टेस्ट का आदेश व्यक्ति की निजता का उल्लंघन तो नहीं करेगा।

कई मामलों में न्यायालय ने कहा है कि किसी व्यक्ति की स्वीकृति के बिना उसके शरीर से नमूना लेना मूल अधिकारों का हनन माना जा सकता है। अतः जब तक कोई स्पष्ट कानूनी आवश्यकता न हो, ऐसे आदेश नहीं दिए जाते।


5. यदि कोई व्यक्ति डीएनए टेस्ट से इंकार करे तो क्या होगा?

कानून किसी को जबरन डीएनए टेस्ट कराने के लिए बाध्य नहीं करता। परंतु यदि कोई पक्ष (जैसे माँ या बच्चा) कोर्ट के आदेश के बावजूद इंकार करता है, तो न्यायालय अनुमानात्मक निष्कर्ष (adverse inference) निकाल सकता है।

इसका अर्थ है कि न्यायालय उस व्यक्ति के व्यवहार से यह मान सकता है कि उसका इंकार किसी तथ्य को छिपाने के उद्देश्य से किया गया है। उदाहरण के लिए, यदि माँ डीएनए टेस्ट से मना करती है, तो कोर्ट यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि पितृत्व के प्रश्न पर पुरुष का दावा संभवतः सही हो सकता है।

हालांकि यह निष्कर्ष भी न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है और प्रत्येक मामले के तथ्यों के अनुसार तय किया जाता है।


6. पितृत्व विवादों में न्यायालय की संवेदनशीलता

पितृत्व विवाद केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और भावनात्मक मुद्दा भी है। ऐसे मामलों में न्यायालयों से अपेक्षा की जाती है कि वे संवेदनशीलता से काम लें।

बच्चे का मनोवैज्ञानिक कल्याण (psychological welfare) सर्वोपरि होता है। किसी बच्चे को यह बताना कि उसके पिता पर संदेह है, उसके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। इसलिए न्यायालय अक्सर यह विचार करता है कि डीएनए टेस्ट का आदेश देने से बच्चे के हित को नुकसान तो नहीं होगा।


7. न्यायालयों के कुछ प्रमुख दृष्टांत (Judicial Precedents)

नाइजीरियाई न्यायालयों ने विभिन्न निर्णयों में यह स्पष्ट किया है कि डीएनए टेस्ट को “मूल अधिकार” नहीं माना जा सकता। उदाहरणस्वरूप:

  • Anayo v. Dozie (2011) के मामले में अदालत ने कहा कि डीएनए टेस्ट तभी आदेशित किया जा सकता है जब पितृत्व पर गंभीर विवाद हो और बिना परीक्षण के न्यायसंगत निर्णय संभव न हो।
  • इसी तरह, E.N. v. E.N. (2019) में अदालत ने यह भी कहा कि बच्चे का मानसिक और भावनात्मक हित सर्वोपरि है।

इन निर्णयों से यह सिद्ध होता है कि डीएनए टेस्ट का आदेश कोई सामान्य प्रक्रिया नहीं है, बल्कि विशेष परिस्थितियों में ही न्यायालय इसे उचित समझता है।


8. सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण

कानून केवल तकनीकी साधन नहीं है; यह सामाजिक मूल्यों का भी दर्पण है। डीएनए टेस्ट का अंधाधुंध प्रयोग पारिवारिक रिश्तों में अविश्वास और तनाव बढ़ा सकता है। यदि हर पुरुष केवल शक के आधार पर डीएनए टेस्ट की मांग करने लगे, तो इससे महिलाओं और बच्चों की गरिमा पर आघात होगा।

इसलिए समाज में यह समझ बननी चाहिए कि डीएनए टेस्ट कोई “हथियार” नहीं बल्कि “सत्य की खोज का साधन” है, और इसे तभी प्रयोग किया जाना चाहिए जब अन्य कोई विकल्प न बचे।


9. भारतीय और नाइजीरियाई दृष्टिकोण की समानता

दिलचस्प बात यह है कि भारत में भी लगभग यही सिद्धांत लागू होता है। भारतीय न्यायालयों ने भी यह माना है कि डीएनए टेस्ट का आदेश केवल तभी दिया जा सकता है जब यह “न्याय के लिए आवश्यक” हो और “बच्चे के हित” के विपरीत न हो।

भारत के Supreme Court ने Banarsi Dass v. Teeku Dutta (2005) और Gautam Kundu v. State of West Bengal (1993) जैसे मामलों में यही सिद्धांत दोहराया है कि किसी व्यक्ति को जबरदस्ती डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार, यह विषय केवल नाइजीरिया ही नहीं, बल्कि विश्वभर के परिवारिक कानून में एक समान संवेदनशील मुद्दा है।


10. निष्कर्ष

डीएनए टेस्ट एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और कानूनी उपकरण है, लेकिन इसका उपयोग विवेकपूर्ण होना चाहिए।

कानून का उद्देश्य किसी व्यक्ति को अपमानित करना या उसकी निजता का उल्लंघन करना नहीं है, बल्कि सत्य की खोज करते हुए न्याय सुनिश्चित करना है। इसलिए:

  • कोई पुरुष केवल शंका के आधार पर महिला या बच्चे को डीएनए टेस्ट के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
  • डीएनए टेस्ट का आदेश केवल न्यायालय की अनुमति से ही हो सकता है।
  • अदालत आदेश देते समय बच्चे के सर्वोत्तम हित को प्राथमिकता देती है।
  • टेस्ट से इंकार करने पर न्यायालय परिस्थितियों के अनुसार अनुमानात्मक निष्कर्ष निकाल सकता है।

अंततः, डीएनए टेस्ट कानून की दृष्टि में एक सहायक साधन है, न कि जबरदस्ती थोपे जाने वाला आदेश।

यह याद रखना आवश्यक है कि पारिवारिक न्याय केवल “रक्त संबंध” पर आधारित नहीं होता, बल्कि स्नेह, जिम्मेदारी और नैतिक मूल्यों पर भी आधारित होता है।