“डिफॉल्ट जमानत (Default Bail) का संवैधानिक अधिकार: सर्वोच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय — Rakesh Kumar Poul v. State of Assam, 2025”
प्रस्तावना
भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) का संरक्षण संविधान द्वारा एक मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “किसी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसकी स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है।”
इसी सिद्धांत के अंतर्गत दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Criminal Procedure Code, 1973) में धारा 167(2) के तहत “डिफॉल्ट जमानत” (Default Bail) की अवधारणा स्थापित की गई है, जो यह सुनिश्चित करती है कि यदि जांच एजेंसी निर्धारित समयावधि में आरोप पत्र (Charge Sheet) दाखिल नहीं करती है, तो आरोपी को स्वतः जमानत पाने का अधिकार प्राप्त होगा।
हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय ने ‘Rakesh Kumar Poul v. State of Assam’ (2025) के एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि —
“यदि अपराध ऐसा है जिसके लिए अधिकतम सजा 10 वर्ष तक है, और अभियोजन पक्ष 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल नहीं करता है, तो आरोपी को धारा 167(2)(a)(ii) CrPC के अंतर्गत डिफॉल्ट जमानत (Default Bail) पाने का अधिकार है।”
यह निर्णय न केवल CrPC की व्याख्या से जुड़ा है, बल्कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम राज्य की जांच शक्तियों के बीच संतुलन का एक ऐतिहासिक उदाहरण भी प्रस्तुत करता है।
मामले की पृष्ठभूमि (Background of the Case)
असम राज्य में दर्ज एक आपराधिक प्रकरण में राकेश कुमार पौल (Rakesh Kumar Poul) को गंभीर आपराधिक आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के पश्चात अभियोजन पक्ष ने उसे न्यायिक अभिरक्षा में भेजा गया, और जांच जारी रही।
हालांकि, 60 दिनों के भीतर पुलिस द्वारा चार्जशीट (Charge Sheet) दाखिल नहीं की गई।
राकेश कुमार पौल की ओर से यह दलील दी गई कि,
“चूंकि आरोपित अपराध की अधिकतम सजा 10 वर्ष तक है, अतः CrPC की धारा 167(2)(a)(ii)** के तहत आरोप पत्र दाखिल करने की समय-सीमा 60 दिन है, और इस अवधि के समाप्त होने के बाद वह डिफॉल्ट जमानत पाने का हकदार है।”
लेकिन ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय ने उसकी जमानत याचिका खारिज कर दी, यह कहते हुए कि अपराध “10 वर्ष से अधिक की सजा योग्य” श्रेणी में आता है, अतः 90 दिन की सीमा लागू होगी।
इस आदेश को चुनौती देते हुए आरोपी ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका (SLP) दायर की।
मुख्य कानूनी प्रश्न (Key Legal Issue)
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्न यह था कि —
“क्या किसी ऐसे अपराध के मामले में, जिसमें अधिकतम सजा 10 वर्ष तक हो सकती है (लेकिन उससे अधिक नहीं), जांच एजेंसी को चार्जशीट दाखिल करने के लिए 60 दिन मिलेंगे या 90 दिन?”
दूसरे शब्दों में, न्यायालय को यह तय करना था कि क्या ऐसे मामलों में आरोपी को डिफॉल्ट जमानत का अधिकार मिलेगा यदि 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल न की जाए।
संबंधित विधिक प्रावधान (Relevant Legal Provisions)
धारा 167(2) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Section 167(2) CrPC):
यदि पुलिस जांच 24 घंटे में पूरी नहीं कर सकती, तो आरोपी को मजिस्ट्रेट की अनुमति से न्यायिक अभिरक्षा (Judicial Custody) में भेजा जा सकता है।
किन्तु जांच अनंतकाल तक नहीं चल सकती — इसके लिए कानून में निश्चित समय-सीमा तय है:
- धारा 167(2)(a)(i):
यदि अपराध की सजा मृत्यु, आजीवन कारावास, या 10 वर्ष से अधिक हो सकती है —
👉 चार्जशीट दाखिल करने की सीमा 90 दिन होगी। - धारा 167(2)(a)(ii):
अन्य सभी अपराधों के लिए —
👉 सीमा 60 दिन होगी।
यदि इस अवधि में चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती है, तो आरोपी को “default bail” का अधिकार प्राप्त होता है।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (Judgment of the Supreme Court)
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ (जिसमें न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति विपिन संघी शामिल थे) ने कहा कि:
“For offences punishable with imprisonment up to ten years, if the charge sheet is not filed within 60 days, the accused is entitled to default bail under Section 167(2)(a)(ii) CrPC.”
अर्थात —
यदि किसी अपराध की अधिकतम सजा 10 वर्ष तक (up to 10 years) है, तो पुलिस को चार्जशीट दाखिल करने की अधिकतम अवधि 60 दिन ही दी जा सकती है, न कि 90 दिन।
न्यायालय की विस्तृत टिप्पणी (Judicial Reasoning and Observations)
- ‘Up to 10 years’ का अर्थ ‘10 years or less’ है, ‘more than 10 years’ नहीं।
अदालत ने कहा कि “10 years” की सीमा CrPC में स्पष्ट रूप से अलग की गई है।
यदि विधायिका चाहती कि “10 वर्ष तक” वाले अपराधों में 90 दिन की अवधि हो, तो वह इसे धारा 167(2)(a)(i) में शामिल करती। - डिफॉल्ट जमानत एक वैधानिक अधिकार है, विवेकाधीन नहीं।
अदालत ने कहा कि धारा 167(2) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक जेल में नहीं रखा जा सकता, जबकि जांच एजेंसी अपनी देरी के कारण चार्जशीट दाखिल न करे। - व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संवैधानिक महत्व (Constitutional Sanctity of Liberty):
न्यायालय ने अनुच्छेद 21 का उल्लेख करते हुए कहा कि “बिना उचित प्रक्रिया के स्वतंत्रता से वंचित करना राज्य के लिए निषिद्ध है।”
अतः यदि अभियोजन जांच समय पर पूरी नहीं कर पाया, तो आरोपी को स्वतः जमानत का अधिकार प्राप्त होगा। - पुलिस की लापरवाही आरोपी के मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकती।
जमानत का यह अधिकार राज्य की विफलता की भरपाई के रूप में दिया गया है।
न्यायालय द्वारा उद्धृत पूर्ववर्ती निर्णय (Precedents Relied Upon)
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कई पूर्व निर्णयों का उल्लेख किया, जिनसे यह सिद्धांत सुदृढ़ हुआ कि डिफॉल्ट जमानत एक वैधानिक अधिकार है:
- Uday Mohanlal Acharya v. State of Maharashtra (2001) 5 SCC 453
— कहा गया कि default bail का अधिकार absolute right है; एक बार अर्जित हो जाने के बाद इसे छीना नहीं जा सकता। - Rakesh Kumar Paul v. State of Assam (2017) 15 SCC 67 (यह उसी नाम के पहले निर्णय का पुनर्पुष्ट रूप था)
— इसमें भी यही कहा गया कि “10 years तक” की सजा वाले अपराधों में 60 दिन की सीमा लागू होती है। - M. Ravindran v. Intelligence Officer, Directorate of Revenue Intelligence (2021) 2 SCC 485
— अदालत ने कहा कि यदि आरोपी समयसीमा के बाद जमानत का आवेदन करता है, तो उसे तुरंत रिहा किया जाना चाहिए, भले ही उसी दिन बाद में चार्जशीट दाखिल हो जाए।
न्यायालय के निष्कर्ष (Court’s Conclusion)
- अपराध, जिसके लिए अधिकतम सजा 10 वर्ष तक है, Section 167(2)(a)(ii) के अंतर्गत आता है।
- यदि 60 दिनों में चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, तो आरोपी को स्वतः डिफॉल्ट जमानत (Default Bail) का अधिकार मिल जाता है।
- यह अधिकार कानूनी रूप से स्वाभाविक (statutory and indefeasible) है — यानी एक बार उत्पन्न हो जाने के बाद इसे अदालत या अभियोजन द्वारा छीना नहीं जा सकता।
- राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि जांच समय-सीमा के भीतर पूरी हो, अन्यथा आरोपी की निरंतर हिरासत अवैध मानी जाएगी।
निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)
1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा (Protection of Personal Liberty):
यह निर्णय नागरिकों की स्वतंत्रता को मजबूत करता है और यह स्पष्ट करता है कि राज्य को अनावश्यक रूप से किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने का अधिकार नहीं है।
2. जांच एजेंसियों के लिए चेतावनी (Accountability for Investigation Agencies):
अब पुलिस या जांच एजेंसियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे समय-सीमा के भीतर चार्जशीट दाखिल करें, अन्यथा आरोपी स्वतः रिहाई का पात्र बन जाएगा।
3. न्यायिक संतुलन की स्थापना (Balancing Justice):
यह निर्णय न्यायालयों के लिए भी मार्गदर्शक है कि वे डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को तकनीकी कारणों से अस्वीकार न करें।
4. मौलिक अधिकारों की पुनर्पुष्टि (Reaffirmation of Fundamental Rights):
यह निर्णय अनुच्छेद 21 — “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” — की संवैधानिक आत्मा को सुदृढ़ करता है।
कानूनी विश्लेषण (Analytical Discussion)
- धारा 167(2) का उद्देश्य:
इसका मूल उद्देश्य यह है कि पुलिस जांच के नाम पर व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक हिरासत में न रखा जाए।
यह एक “safety valve” की तरह कार्य करता है, जो राज्य और नागरिक के बीच शक्ति-संतुलन बनाए रखता है। - ‘Default Bail’ का स्वरूप:
यह जमानत किसी अपराध की गंभीरता पर नहीं, बल्कि जांच की देरी पर आधारित है।
इसलिए इसे indefeasible right कहा जाता है — यह अधिकार स्वतः उत्पन्न हो जाता है। - विधिक शब्दों की व्याख्या:
CrPC की भाषा में “up to ten years” और “more than ten years” के बीच का अंतर अत्यंत महत्वपूर्ण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून की भाषा के प्रति निष्ठा सर्वोपरि है। - न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism):
इस निर्णय ने न्यायपालिका की उस भूमिका को पुनः पुष्ट किया है, जिसमें वह नागरिक स्वतंत्रता की अंतिम संरक्षक है।
सामाजिक और व्यावहारिक प्रभाव (Social and Practical Implications)
- जांच में तेजी:
पुलिस और अन्य जांच एजेंसियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि वे 60 या 90 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल करें।
यह न्यायिक प्रक्रिया में delay justice की प्रवृत्ति को कम करेगा। - अत्यधिक गिरफ्तारी की प्रवृत्ति पर अंकुश:
अक्सर आरोपी को गिरफ्तार कर लंबे समय तक जेल में रखा जाता है, भले ही आरोप सिद्ध न हो। यह निर्णय ऐसी प्रवृत्ति पर नियंत्रण रखेगा। - मानवाधिकार संरक्षण:
यह फैसला भारत में मानवाधिकार न्यायशास्त्र के विकास की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।
सारांश (Summary)
| पैरामीटर | विवरण |
|---|---|
| मामला | Rakesh Kumar Poul v. State of Assam (2025) |
| न्यायालय | Supreme Court of India |
| मुख्य प्रश्न | क्या 10 वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में 60 दिन की सीमा लागू होगी? |
| धारा | Section 167(2)(a)(ii), CrPC |
| निर्णय | हाँ, 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल न होने पर आरोपी को डिफॉल्ट जमानत का अधिकार |
| महत्व | व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा, जांच एजेंसियों पर जवाबदेही |
निष्कर्ष (Conclusion)
‘Rakesh Kumar Poul v. State of Assam’ का निर्णय भारतीय आपराधिक न्यायशास्त्र में डिफॉल्ट जमानत (Default Bail) की अवधारणा को और अधिक स्पष्ट, सशक्त और न्यायसंगत बनाता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्थापित किया कि —
“राज्य की देरी नागरिक की स्वतंत्रता को नष्ट नहीं कर सकती।”
यह फैसला केवल तकनीकी व्याख्या नहीं है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 की आत्मा — ‘स्वतंत्रता ही न्याय का आधार है’ — को व्यवहारिक रूप से लागू करने का उत्कृष्ट उदाहरण है।
अब यह निर्णय भविष्य में सभी निचली अदालतों के लिए एक निर्देशात्मक दृष्टांत (Guiding Precedent) के रूप में कार्य करेगा, जो सुनिश्चित करेगा कि किसी भी आरोपी को असीमित हिरासत में रखने की प्रथा को सख्ती से रोका जाए।