“डिफॉल्ट जमानत का संवैधानिक अधिकार बनाम अभियोजन की जांच अवधि: पंजाब एवं हरियापणा हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय — Gursharandeep Singh बनाम State of Punjab (CRR No. 2047/2025) के प्रकाश में धारा 167(2) दण्ड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) का विश्लेषण”
भूमिका
भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में धारा 167(2) दण्ड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) का प्रावधान आरोपी के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए एक अत्यंत महत्वपूर्ण सुरक्षा उपाय है। यह प्रावधान अभियोजन पक्ष को यह सीमा निर्धारित करता है कि यदि वह एक निश्चित अवधि के भीतर जांच पूरी कर चार्जशीट दाखिल नहीं करता है, तो आरोपी को “डिफॉल्ट जमानत (Default Bail)” का अधिकार मिल जाता है।
इसी कानूनी सिद्धांत की व्याख्या करते हुए, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने हाल ही में Gursharandeep Singh v. State of Punjab, 2025 (CRR No. 2047/2025) में एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें न्यायालय ने कहा कि —
“यदि किसी अपराध की प्रारंभिक FIR में 90 दिनों की जांच अवधि निर्धारित है, तो मात्र इस कारण कि बाद में NDPS अधिनियम की धारा जोड़ दी गई है, जांच अवधि स्वतः 180 दिन नहीं हो जाती। अभियुक्त की डिफॉल्ट जमानत की अर्ज़ी इस आधार पर खारिज नहीं की जा सकती कि अब जांच 180 दिनों तक चल सकती है।”
यह निर्णय NDPS (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act, 1985) जैसे कठोर अधिनियमों के अंतर्गत गिरफ्तारी और जांच की प्रक्रिया से संबंधित कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को पुनः जीवित करता है — विशेषकर तब जब अपराध की गंभीरता बढ़ाने के लिए “बाद में” NDPS की धाराएँ FIR में जोड़ी जाती हैं।
प्रकरण का संक्षिप्त विवरण (Case Summary)
इस मामले में, Gursharandeep Singh के विरुद्ध एक FIR दर्ज की गई थी, जिसमें प्रारंभ में NDPS अधिनियम के प्रावधान नहीं थे। बाद में, सह-अभियुक्त की disclosure statement (स्वीकृति बयान) के आधार पर, पुलिस ने बड़ी मात्रा में (commercial quantity) हीरोइन की बरामदगी की।
इस बरामदगी के बाद, पुलिस ने FIR में NDPS अधिनियम की धाराएँ जोड़ दीं। अभियोजन ने यह तर्क दिया कि चूंकि अब अपराध NDPS अधिनियम की गंभीर श्रेणी में आ गया है, इसलिए जांच की अधिकतम अवधि 180 दिन मानी जानी चाहिए।
वहीं दूसरी ओर, अभियुक्त ने यह तर्क दिया कि —
- मूल FIR में NDPS की धाराएँ नहीं थीं।
- जब गिरफ्तारी हुई थी, तब लागू धाराओं के अंतर्गत अधिकतम 90 दिन की जांच अवधि निर्धारित थी।
- इसलिए, 90 दिन पूरे होने पर उसे धारा 167(2) Cr.P.C. के अंतर्गत डिफॉल्ट जमानत का वैधानिक अधिकार प्राप्त हो गया।
पुलिस ने अभी तक चार्जशीट दाखिल नहीं की थी, इसलिए अभियुक्त ने अदालत में डिफॉल्ट जमानत की अर्ज़ी दी। निचली अदालत ने यह कहते हुए अर्ज़ी खारिज कर दी कि अब जांच 180 दिनों तक चल सकती है, क्योंकि NDPS अधिनियम की धाराएँ जुड़ चुकी हैं।
इस आदेश को अभियुक्त ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
मुख्य कानूनी प्रश्न (Legal Issue before the Court)
क्या अभियुक्त को “डिफॉल्ट जमानत” का अधिकार प्राप्त होगा, जब मूल FIR में केवल ऐसे अपराध थे जिनकी जांच अवधि 90 दिन थी, परंतु बाद में NDPS अधिनियम की गंभीर धाराएँ (commercial quantity) जोड़ी गईं?
न्यायालय की दलीलें और विचार (Observations and Reasoning of the Court)
1. धारा 167(2) Cr.P.C. का उद्देश्य और विधायी मंशा
न्यायालय ने कहा कि धारा 167(2) Cr.P.C. का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी अभियुक्त को अनिश्चितकालीन अवधि के लिए हिरासत में न रखा जाए।
“इस प्रावधान का उपयोग अभियोजन के विरुद्ध नहीं, बल्कि न्यायिक संतुलन के लिए किया गया है — ताकि जांच समय पर पूरी हो और व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन न हो।”
2. FIR में बाद में जोड़े गए अपराध का प्रभाव
न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि मूल FIR में उल्लिखित अपराधों की प्रकृति और उनकी जांच अवधि ही यह निर्धारित करती है कि पुलिस को कितने समय में जांच पूरी करनी है।
यदि किसी अपराध में 90 दिन की अवधि तय है, तो जब तक कोई नया आरोप “समान व्यक्ति” के विरुद्ध स्वतंत्र जांच के आधार पर सिद्ध नहीं होता, तब तक अवधि स्वतः नहीं बढ़ सकती।
न्यायालय ने यह भी कहा —
“केवल इस कारण कि किसी सह-अभियुक्त के खुलासे पर NDPS अधिनियम की धारा जोड़ी गई, यह नहीं माना जा सकता कि अभियुक्त उसी अपराध का हिस्सा था या जांच अवधि स्वचालित रूप से 180 दिन हो गई।”
3. अभियोजन का विस्तारवादी दृष्टिकोण अस्वीकार्य
राज्य पक्ष ने कहा कि NDPS अधिनियम की गंभीरता को देखते हुए 180 दिन की अवधि का विस्तार स्वीकार होना चाहिए।
परंतु न्यायालय ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा —
“यदि इस प्रकार अभियोजन को स्वचालित रूप से 180 दिन की अवधि मिल जाए, तो यह अभियुक्त के संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा। यह पुलिस को मनमाना अधिकार दे देगा कि वे बाद में किसी भी FIR में गंभीर धाराएँ जोड़कर अनंतकाल तक व्यक्ति को जेल में रख सकें।”
4. NDPS अधिनियम की धारा 36A(4) की व्याख्या
न्यायालय ने यह कहा कि NDPS अधिनियम की धारा 36A(4) के तहत 180 दिन की अवधि तभी लागू होती है जब मामला प्रारंभ से ही NDPS अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत हो।
यदि किसी मामले में प्रारंभ में NDPS अधिनियम लागू नहीं था और केवल बाद में जोड़ा गया है, तो धारा 36A(4) का लाभ नहीं लिया जा सकता।
5. Default Bail का अधिकार एक ‘Statutory Right’ है
न्यायालय ने दोहराया कि डिफॉल्ट जमानत कोई साधारण विवेकाधीन राहत (discretionary relief) नहीं है, बल्कि यह आरोपी का “वैधानिक अधिकार (Statutory Right)” है, जो धारा 167(2) Cr.P.C. के तहत उसे स्वतः प्राप्त होता है।
“एक बार जब निर्धारित अवधि पूरी हो जाती है और चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, अभियुक्त को तत्काल जमानत का अधिकार मिल जाता है। इसे अभियोजन की लापरवाही से छीनना संविधान के अनुच्छेद 21 के विपरीत होगा।”
न्यायालय का निष्कर्ष (Conclusion of the Court)
उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि —
- चूंकि मूल FIR में ऐसे अपराध शामिल थे जिनकी जांच अवधि 90 दिन थी, अतः अभियोजन को केवल 90 दिन में जांच पूरी करनी थी।
- NDPS अधिनियम की धाराएँ बाद में जोड़ी गईं, और उस समय तक 90 दिन की अवधि पहले ही समाप्त हो चुकी थी।
- इसलिए, अभियुक्त Gursharandeep Singh को धारा 167(2) Cr.P.C. के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार प्राप्त है।
- निचली अदालत का आदेश, जिसने यह कहकर अर्ज़ी खारिज की थी कि जांच 180 दिन तक चल सकती है, कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण है।
महत्वपूर्ण सिद्धांत (Key Legal Principles Emanating from the Judgment)
- Default Bail एक मौलिक एवं वैधानिक अधिकार है।
यह किसी न्यायिक विवेक पर निर्भर नहीं है। एक बार वैधानिक अवधि समाप्त हो जाए, आरोपी को स्वतः यह अधिकार प्राप्त हो जाता है। - FIR की प्रकृति के आधार पर ही जांच अवधि तय होगी।
यदि FIR में प्रारंभ में 90 दिन की अवधि लागू थी, तो मात्र बाद में NDPS धाराएँ जोड़ने से यह अवधि नहीं बढ़ाई जा सकती। - NDPS Act की धारा 36A(4) का लाभ केवल तब मिलेगा जब अपराध शुरू से NDPS अधिनियम के अंतर्गत दर्ज हो।
- अभियोजन को लापरवाही से बचना चाहिए।
यह उनका कर्तव्य है कि वे समय-सीमा में जांच पूरी करें, न कि बाद में गंभीर धाराएँ जोड़कर समय बढ़ाने का प्रयास करें। - व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि है।
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को केवल विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही सीमित किया जा सकता है।
न्यायिक दृष्टांतों का समर्थन
न्यायालय ने अपने निर्णय में कुछ पूर्ववर्ती निर्णयों का भी उल्लेख किया, जिनमें इसी प्रकार की स्थिति में अभियुक्तों को राहत दी गई थी। जैसे —
- Rakesh Kumar Paul v. State of Assam (2017) 15 SCC 67
→ “Default bail एक वैधानिक अधिकार है, जो आरोपी को स्वतः प्राप्त हो जाता है जब जांच अवधि समाप्त हो जाती है।” - M. Ravindran v. Intelligence Officer, Directorate of Revenue Intelligence (2021) 2 SCC 485
→ “Default bail का अधिकार एक बार उत्पन्न हो जाए, तो वह अभियोजन की बाद की कार्रवाई से समाप्त नहीं हो सकता।” - Chitta Biswas v. State of West Bengal, (2020) 3 SCC 429
→ “यदि जांच अवधि समाप्त हो जाती है और चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, तो अभियुक्त को जमानत देना अनिवार्य है।”
इन निर्णयों से यह सिद्ध होता है कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय के सिद्धांतों का अनुसरण किया है।
विस्तृत विश्लेषण (Critical Analysis)
यह निर्णय केवल एक अभियुक्त की रिहाई का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रक्रियात्मक न्याय (Procedural Justice) और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) के संतुलन का उत्कृष्ट उदाहरण है।
यह आदेश उन मामलों में विशेष रूप से प्रासंगिक है जहाँ —
- अभियोजन पहले मामूली अपराध की FIR दर्ज करता है,
- और बाद में किसी सह-अभियुक्त के बयान या अन्य परिस्थितियों में गंभीर अधिनियम (जैसे NDPS) जोड़ देता है।
यदि न्यायालय ऐसे मामलों में 180 दिन की स्वचालित अवधि को स्वीकार कर लेता, तो यह अभियोजन को “अनिश्चितकालीन हिरासत” का अप्रत्यक्ष अधिकार प्रदान कर देता, जो अनुच्छेद 21 की आत्मा के विपरीत होता।
निष्कर्ष (Conclusion)
Gursharandeep Singh बनाम State of Punjab (CRR No. 2047/2025) का निर्णय इस सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है कि —
“Default Bail केवल अभियुक्त का अधिकार नहीं, बल्कि न्याय की निष्पक्षता का प्रतीक है।”
इस निर्णय ने स्पष्ट किया कि —
- NDPS जैसे कठोर कानूनों के बावजूद,
- अभियोजन पक्ष को कानून की समयसीमा का पालन करना होगा,
- और किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से खिलवाड़ केवल “गंभीरता” के नाम पर नहीं किया जा सकता।
न्यायालय का यह निर्णय भविष्य में उन सभी मामलों में मार्गदर्शक सिद्धांत बनेगा जहाँ FIR में बाद में गंभीर अपराध जोड़कर अभियोजन जांच अवधि बढ़ाने का प्रयास करेगा।
न्याय का सारांश
“विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता — और यही विधि की सर्वोच्चता का प्रमाण है।”