डिक्री में संशोधन का अधिकार सीमित और पुनः विचार वर्जित – राजस्थान उच्च न्यायालय का निर्णय

शीर्षक: डिक्री में संशोधन का अधिकार सीमित और पुनः विचार वर्जित – राजस्थान उच्च न्यायालय का निर्णय

परिचय:

न्यायिक निर्णयों की अंतिमता और उनकी निष्पक्षता को बनाए रखना विधिक प्रक्रिया की आधारशिला है। सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 152 के तहत यद्यपि डिक्री में मामूली त्रुटियों को सुधारा जा सकता है, लेकिन यह अधिकार सीमित है और इसका प्रयोग केवल स्पष्ट त्रुटियों के सुधार तक सीमित है। राजस्थान उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में यह स्पष्ट किया कि जब डिक्री पहले ही निष्पादित और जांची जा चुकी हो, तब उसमें कोई संशोधन पुनः नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से यदि पहले ऐसा प्रयास असफल हो चुका हो। इस संदर्भ में न्यायालय ने res judicata (पूर्व न्याय का सिद्धांत) को लागू किया।

निर्णय का सार:

इस निर्णय में न्यायालय ने दो मुख्य प्रश्नों पर विचार किया:

  1. क्या डिक्री में त्रुटि या विसंगति के आधार पर उसे बाद में संशोधित किया जा सकता है?
  2. यदि पूर्व में इसी उद्देश्य से एक आवेदन धारा 47 और 151 CPC के तहत अस्वीकार किया जा चुका है, तो क्या पुनः संशोधन हेतु आवेदन स्वीकार्य है?

मुख्य बिंदु:

  1. धारा 152 CPC की सीमाएं:
    धारा 152 केवल ‘टाइपो’ या ‘गणनात्मक त्रुटियों’ जैसी स्पष्ट भूलों के सुधार हेतु प्रयोज्य है। यह न्यायालय को ऐसा कोई अधिकार नहीं देती कि वह निर्णय के निष्कर्षों से भिन्न कोई नई व्याख्या या तत्व जोड़ सके।
  2. डिक्री और निर्णय में सामंजस्य आवश्यक:
    डिक्री न्यायालय के अंतिम निर्णय की सटीक अभिव्यक्ति होनी चाहिए। यदि डिक्री निर्णय से भिन्न है तो उसका समाधान तुरंत होना चाहिए, न कि लंबे समय बाद संशोधन के माध्यम से। निर्णय के निष्कर्षों से परे जाकर डिक्री में परिवर्तन करना न्यायिक निष्पक्षता और अंतिमता को खतरे में डाल सकता है।
  3. Res Judicata का सिद्धांत लागू:
    यदि एक बार सक्षम न्यायालय ने किसी पक्ष द्वारा प्रस्तुत मुद्दे पर अंतिम निर्णय दे दिया है, तो वही पक्ष फिर से वही मुद्दा अन्य आधारों पर भी नहीं उठा सकता। धारा 47 और 151 के तहत पहले से अस्वीकृत संशोधन के लिए पुनः आवेदन देना res judicata के अंतर्गत वर्जित है।
  4. धारा 151 की सीमाएं:
    भले ही धारा 151 न्यायालय को “न्याय के हित में अंतर्निहित शक्तियां” देती है, किंतु इनका उपयोग वहां नहीं किया जा सकता जहां स्पष्ट कानून पहले से मौजूद है या जहां न्यायालय ने पहले ही किसी मुद्दे पर निर्णय दे दिया हो।

न्यायालय का निष्कर्ष:

राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट किया कि डिक्री में संशोधन हेतु किया गया आवेदन अस्वीकार्य है क्योंकि –

  • यह निर्णय से मेल नहीं खा रहा था,
  • पहले इसी उद्देश्य से किया गया एक अन्य आवेदन पहले ही अस्वीकृत हो चुका था,
  • और इस प्रकार यह res judicata के दायरे में आता है।

निष्कर्ष:

यह निर्णय इस सिद्धांत को बल देता है कि डिक्री की अंतिमता और न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को बनाए रखना आवश्यक है। संशोधन की प्रक्रिया का दुरुपयोग करके न्यायालय के निर्णय को बार-बार चुनौती देना विधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है। न्यायालय ने उचित रूप से कहा कि एक बार जब विवाद को न्यायिक रूप से सुलझा लिया गया है, तो वही पक्ष पुनः उसी विवाद को अलग-अलग तरीकों से उठाकर न्याय की प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकता।

प्रासंगिक कानूनी प्रावधान:

  • सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC), 1908
    • धारा 151: न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियाँ
    • धारा 152: टंकणीय या गणनात्मक त्रुटियों का सुधार
    • धारा 47: निष्पादन संबंधी विवादों का निस्तारण
  • Res Judicata का सिद्धांत:
    • CPC की धारा 11 में निहित

इस निर्णय से स्पष्ट होता है कि न्यायालयों को निर्णयों की अंतिमता की रक्षा करते हुए न्यायिक व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखने की विशेष जिम्मेदारी है।