‘ठग लाइफ’ फिल्म की स्क्रीनिंग में बाधा पर सुप्रीम कोर्ट सख्त: भीड़तंत्र सेंसरशिप को बताया असंवैधानिक, कर्नाटक सरकार को कार्रवाई का निर्देश
🔷 भूमिका:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है, जिसमें फिल्मों का निर्माण और प्रदर्शन भी शामिल है। हालाँकि, हाल के वर्षों में विभिन्न समूहों द्वारा फिल्मों के प्रदर्शन को रोकने या बाधित करने की घटनाएं बढ़ी हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में **सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक बेहद अहम आदेश देते हुए कर्नाटक सरकार को निर्देश दिया है कि वह फिल्म ‘ठग लाइफ’ की स्क्रीनिंग में बाधा डालने वालों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई करे। साथ ही कोर्ट ने भीड़तंत्र (mob censorship) को सेंसरशिप का असंवैधानिक और खतरनाक रूप बताया।
🔷 मामले की पृष्ठभूमि:
- ‘ठग लाइफ’ एक हालिया हिंदी फिल्म है जिसे केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) द्वारा प्रमाणित किया गया था।
- फिल्म के कुछ विषय-वस्तु पर कुछ सामाजिक और धार्मिक संगठनों ने आपत्ति जताई और उसकी स्क्रीनिंग को कर्नाटक के कुछ सिनेमाघरों में बाधित किया।
- भीड़ ने प्रदर्शन किया, सिनेमाघरों को धमकी दी और कुछ स्थानों पर हिंसा की धमकी भी दी।
- फिल्म के निर्माता सुप्रीम कोर्ट पहुँचे और संवैधानिक सुरक्षा और स्क्रीनिंग की गारंटी की मांग की।
🔷 सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट रुख:
🏛️ मुख्य टिप्पणियाँ और निर्देश:
- CBFC से पास फिल्म को रोका नहीं जा सकता:
कोर्ट ने कहा कि एक बार जब फिल्म को केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड द्वारा प्रमाणन मिल चुका है, तो उसे दिखाना न्यायसंगत और वैधानिक अधिकार है। - भीड़ द्वारा सेंसरशिप असंवैधानिक:
सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी दी कि “भीड़तंत्र या दबाव समूह” किसी फिल्म को रोक नहीं सकते, यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। - राज्य सरकारों की जिम्मेदारी:
कर्नाटक सरकार को निर्देश दिया गया कि वह:- सभी सिनेमाघरों को सुरक्षा दे,
- स्क्रीनिंग में बाधा डालने वालों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई करे,
- और यह सुनिश्चित करे कि कोई भी नागरिक या समूह कानून को हाथ में न ले।
🔷 भीड़ सेंसरशिप (Mob Censorship) क्या है?
- जब कोई सामाजिक या राजनीतिक समूह, बिना वैधानिक प्रक्रिया का पालन किए, किसी फिल्म या रचना को अपनी भावनाओं के आधार पर रोकने की कोशिश करता है, तो वह भीड़तंत्र सेंसरशिप होती है।
- यह एक तरह से “सड़क का कानून” लागू करने जैसा है – जो कि संवैधानिक शासन के विपरीत है।
📌 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “सेंसरशिप का अधिकार केवल विधिक संस्थाओं को है, न कि भीड़ को।”
🔷 अन्य संबंधित उदाहरण:
- पद्मावत (2018): करणी सेना द्वारा विरोध और सिनेमाघरों में तोड़फोड़।
- द केरल स्टोरी (2023): कई राज्यों में प्रदर्शन और प्रतिबंध की मांग।
- लाल सिंह चड्ढा (2022): राजनीतिक विरोध के कारण स्क्रीनिंग प्रभावित।
👉 सुप्रीम कोर्ट ने इन मामलों में भी कहा था कि राज्य सरकारें कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए बाध्य हैं, न कि विरोध करने वालों को तुष्ट करने के लिए।
🔷 कानूनी और संवैधानिक दृष्टिकोण:
✅ अनुच्छेद 19(1)(a):
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – जिसमें फिल्म प्रदर्शन शामिल है।
✅ अनुच्छेद 19(2):
इस स्वतंत्रता पर केवल “विधि द्वारा स्थापित प्रतिबंध” ही लगाए जा सकते हैं – न कि भावनात्मक या राजनीतिक दबावों के आधार पर।
✅ Cinema Regulation Laws:
एक बार CBFC से मंजूरी मिल जाने के बाद, फिल्म को रोके जाने का कोई आधार नहीं होता, जब तक कि कोर्ट विशेष रूप से न कहे।
🔷 न्यायिक चेतावनी:
- सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा – “हम ऐसी संस्कृति को बढ़ावा नहीं दे सकते जहां एक वर्ग तय करे कि कौन सी कला या विचार जनता देखे या न देखे। यह लोकतंत्र की हत्या के समान है।”
- कोर्ट ने राज्य सरकारों को चेतावनी दी कि यदि वे इस तरह की भीड़ के आगे झुकती हैं, तो यह न्यायिक अवमानना और संवैधानिक कर्तव्यों की उपेक्षा मानी जाएगी।
🔷 निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की दिशा में एक मजबूत संदेश है। यह केवल ‘ठग लाइफ’ फिल्म की नहीं, बल्कि भारत में कला, संस्कृति और विचारों की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
यह निर्णय बताता है कि भीड़ के डर से नीतियाँ नहीं बनतीं, और न ही लोकतांत्रिक देश में भावनाओं के नाम पर कानून को झुकाया जा सकता है। अब राज्यों की जिम्मेदारी है कि वे कानून-व्यवस्था बनाए रखें और नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करें — चाहे वह फिल्म निर्माता हो, लेखक हो या दर्शक।