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ट्रैफिक दुर्घटना में लापरवाही का प्रमाण: केवल पीड़ित का बयान भी पर्याप्त — Sikkim HC

“राश एवं उत्साही/लापरवाह (rash and negligent) ड्राइविंग द्वारा दुर्घटना: बेदाग साक्ष्य के आधार पर Sikkim High Court (नगर गंगटोक) द्वारा न्यायमूर्ति Bhaskar Raj Pradhan जी के समक्ष Motor Vehicles Act, 1988 की धारा 166 के अंतर्गत दावा याचिका में निर्णय”


प्रस्तावना

भारतीय पथ-परिवहन व्यवस्था में मोटर दुर्घटनाएँ नियमित घटित होती रही हैं। ऐसी दुर्घटनाएँ केवल व्यक्तिगत जीवन को नहीं प्रभावित करतीं बल्कि सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से भी गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। जब मोटर वाहन से जुड़ी दुर्घटना में कोई व्यक्ति घायल होता है या मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसके आश्रित-परिजन को सामाजिक न्याय एवं कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत “न्यायसंगत मुआवजे” (just compensation) की प्राप्ति का अधिकार मौजूद होता है। इस दिशा में, Sikkim High Court ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है जिसमें यह माना गया कि दुर्घटना में चालक के राश (rash) या लापरवाह (negligent) व्यवहार का प्रमाण याचिकाकर्ता-दावा करनेवाले के एकमात्र और अखंड साक्ष्य द्वारा भी संतोषप्रद रूप से स्थापित हो सकता है, भले ही एफआईआर या चार्जशीट को प्रमाण के रूप में स्वीकार न किया गया हो। नीचे इस निर्णय के तथ्य, तर्क, कानूनी आधार एवं निहित प्रभाव विस्तृत रूप से प्रस्तुत किये जा रहे हैं।


तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

  1. प्रस्तावित निर्णय में याचिकाकर्ता ने एक दुर्घटना के परिणामस्वरूप मुआवजे की याचिका धरती थी, जिसे मोटर वाहन अधिनियम, 1988 की धारा 166 के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया था।
  2. दुर्घटना उस वाहन के संचालन के समय हुई थी, जिसमें दावा-कर्ता (या मृतक/पड़ोसी) सवार था। वाहन मालिक एवं बीमा कंपनी ने दावे को चुनौती दी थी, मुख्यत: यह कहना था कि चालक ने लापरवाही (negligence) या अतिश्रुत (rash) ड्राइविंग नहीं की है, या यदि की भी हो तो वह प्रमाणित नहीं हुई है।
  3. याचिकाकर्ता ने स्वयं दुर्घटना के समय वाहन में मौजूद होने तथा चालक के व्यवहार के सम्बन्ध में साक्ष्य प्रस्तुत किया, जो अस्वीकृत नहीं हुआ था।
  4. विपक्षी ने एफआईआर (First Information Report) व चार्जशीट प्रस्तुत करने का आधार बताकर दावे को खारिज करने का प्रयास किया, या अदालत के समक्ष उन्हें प्रधान प्रमाण के रूप में स्वीकार करने की माँग की।
  5. परंतु न्यायमूर्ति भाष्कर राज प्रधान जी की अधिकरण ने विचार किया कि यदि दावे-कर्ता का साक्ष्य -सुसंगत, एकरूप तथा अविवादित हो, और दुर्घटना का संबंध चालक के वाहन संचालन के «राश/लापरवाह» अभिनय से स्पष्ट हो, तो प्रमाण-के-रूप एफआईआर/चार्जशीट का स्वीकार होना अनिवार्य नहीं है

विशेष रूप से, हालिया मामला में (उदाहरणतः “Prem Bahadur Rai & Anr. vs. United India Insurance Co. Ltd.” में) अदालत ने पाया कि मृतक वाहन में मददगार के रूप में सवार था, वाहन मालिक ने स्वीकार किया था कि मृतक ने वाहन में बैठ कर सैंड (रेत) अनलोड करने के लिए कार्य किया था, और दुर्घटना वाहन मालिक-चालक की लापरवाही/राश ड्राइविंग के कारण हुई थी।
अदालत ने कहा कि प्राथमिक प्रश्न था: क्या चालक का ‘राश एवं लापरवाह’ रवैया प्रमाणित हुआ है? तथा क्या वाहन मालिक/बीमाकर्ता की जिम्मेदारी लागू होती है? यहाँ पर दावे-कर्ता ने पर्याप्त साक्ष्य दिए, और एफआईआर/चार्जशीट को अनिवार्य रूप से प्रमाण-के-रूप नहीं देखा गया।


न्यायिक तर्क – प्रमाण एवं जिम्मेदारी

न्यायमूर्ति भिक्षर राज प्रधान जी की न्याय-लिखित धारणा में निम्न बिंदु विशेष रूप से महत्त्व रखते हैं:

  1. राश एवं लापरवाह ड्राइविंग का प्रमाण
    • अदालत ने माना कि धारा 166 के तहत दावे को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक नहीं कि चालक के विरुद्ध अपराध पंजीकृत हो या चार्जशीट जारी हो। यदि दुर्घटना का कारण चालक का असाधारण तेज गति में वाहन चलाना, नियंत्रण खो देना, ब्रेक न लगाना या अन्य वाहन नियमों का उल्लंघन करना साबित हो जाए — और दावे-कर्ता का साक्ष्य ऐसा हो जो व्यवहार में बताता हो कि चालक ने वाहन संचालन में लापरवाही की — तो ‘राश एवं लापरवाह’ व्यवहार स्थापित माना जा सकता है। उदाहरण के लिये, इस मामले में तथ्य थे कि दुर्घटना रिपोर्ट में चालक ने वाहन को अवरोधक के ऊपर दुर्घटना-प्रवण स्थिति में चलाया व नियंत्रण खो दिया।
    • न्यायमूर्ति ने यह स्पष्ट किया कि साक्ष्य-परीक्षा में मुख्य बातें हैं: (i) क्या वाहन चालक पूरी तरह वैध था (लाइसेंस, पंजीकरण, बीमा) ?, (ii) क्या दुर्घटना समय-स्थिति स्पष्ट है ?, (iii) क्या ड्राइविंग-कर्म में लापरवाही या अशिष्ट व्यवहार (उच्च गति, ओवरटेकिंग, नियंत्रण खोना आदि) मौजूद है ?, (iv) क्या साक्ष्य-दावा-कर्ता का बयान निराधार / विरोधाभासी / अपुष्ट नहीं है ? यदि यह अंतिम बिंदु संतोषजनक है, तो प्रमाण-का आधार पर्याप्त माना जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, इस मामले में दावे-कर्ता के साक्ष्य को विपक्षी ने प्रभावी रूप से चुनौती नहीं दी थी।
  2. अखंड, सुसंगत और अविवादित साक्ष्य का महत्व
    अदालत ने विशेष रूप से यह कहा कि यदि याचिकाकर्ता का बयान ना केवल मौजूद बल्कि अखंड (consistent) एवं अविवादित (unrebutted) हो, तो उसे पर्याप्त माना जा सकता है। इस दृष्टि से, स्वयं एफआईआर व चार्जशीट का अभाव, या उनका अदालत द्वारा प्रमाण-के-रूप स्वीकार न होना, दावे-कर्ता की विफलता नहीं होती। यानी, अदालत ने यह दृष्टिकोण स्वीकार किया कि “यदि संचलित चालक के विरुद्ध दोषारोपण या दर्ज अपराध का तथ्य नहीं हो, तब भी लापरवाही का प्रमाण स्थापित किया जा सकता है।” उदाहरणस्वरूप, ऊपर-उल्लेखित मामला में इंशूरेंस कंपनी की जासूसी रिपोर्ट (investigator report) को अस्पष्ट एवं hearsay आधार पर खारिज किया गया था।
  3. वाहन मालिक एवं बीमाकर्ता की जिम्मेदारी (विकारियस/प्राथमिक)
    • न्यायमूर्ति ने आगे कहा कि जब चालक वाहन मालिक के अनुज्ञप्त authorised driver/कर्मचारी या परिचालन-कर्त्ता हो, तो वाहन मालिक विकारियस रूप से उत्तरदायी होता है, और बीमाकर्ता द्वारा बीमा कवरेज दी गई हो तो वह भी जवाबदेह बन जाता है। उदाहरण के रूप में, मामले में वाहन मालिक ने इंश्योरेंस पॉलिसी में अतिरिक्त प्रीमियम चुकाया हुआ पाया गया था कि “वर्कमैन (workmen) LIABILITY” के अंतर्गत मददगार (helper) वाहन में शामिल हो सकते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकला कि मृतक उस वाहन के संचालन में सहायक था एवं बीमा पॉलिसी से आच्छादित था।
    • इसके अतिरिक्त, अदालत ने माना कि जब चालक के दोषसिद्धि-संबंधी प्रमाण स्थापित हो जाए (उदाहरण: नियंत्रण खोना, तेज गति, वाहन पलटना आदि) तो वाहन मालिक एवं बीमाकर्ता के प्रति दावे-कर्ता का अधिकार उत्पन्न हो जाता है और “न्यायसंगत मुआवजा” दिलाया जाना चाहिए।
  4. न्यायसंगत मुआवजे (Just Compensation) का सिद्धांत
    • इस मामले में अदालत ने मात्र नियम-अनुसार लघु मुआवजा नहीं दिया बल्कि “न्यायसंगत” को आधार बनाया। अर्थात्, धारा 168 और 166 के अन्तर्गत न्यायालय को यह विवेक है कि यदि सामान्य मापदंडों द्वारा मिल रहा मुआवजा अपर्याप्त लगे, तो उसे बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, इस मामले में कुल ₹21,89,100 (≈ 21.89 लाख) मुआवजा देने का निर्देश दिया गया।
    • साथ ही, अदालत ने ब्याज दर का निर्धारण भी किया कि दावे-याचिका दाखिल करने की तिथि से 9 % प्रति वर्ष ब्याज दिया जाए; यदि भुगतान विलम्बित हुआ तो 12 % प्रति वर्ष तक बढ़ाया जायेगा।

विश्लेषण एवं महत्वपूर्ण बिंदु

  1. साक्ष्य-दृष्टि से कानूनी प्रगति
    इस निर्णय का एक मुख्य योगदान यह है कि दावे-कर्ता को एफआईआर/चार्जशीट प्रस्तुत करना अनिवार्य नहीं रहा। कोर्ट-ने यह स्पष्ट किया कि मुख्यतः चालक के खिलाफ क्रिमिनल मामला दर्ज होना या चालक का दोष सिद्ध होना आवश्यक नहीं है, बशर्ते साक्ष्य निराधार व निरस्त्र हों। यह दृष्टिकोण मोर्टर वाहन दुर्घटना दावों में दावे-कर्ता-अनुकूल है क्योंकि अक्सर दुर्घटनाओं में अपराध दर्ज नहीं होते या चार्जशीट देर से बनती है या प्रमाण अधूरा होता है।
  2. वाहन मालिक- एवं बीमाकर्ता-जिम्मेदारी पर प्रभाव
    वाहन मालिकों व बीमाकर्ताओं के लिए चेतावनी है कि यदि वाहन संचालन स्वीकृत ढंग से न हो, चालक को पर्याप्त प्रशिक्षण न मिला हो, वाहन में रख-रखाव न हो, नियमानुसार बीमा न हो, या वाहन मालिक ने सहायक/हेल्पर के उपयोग के लिए अतिरिक्त प्रीमियम नहीं लिया हो — तो दुर्घटना-दावे की स्थिति में उत्तरदायित्व बढ़ सकता है। इस निर्णय में वाहन मालिक ने स्वयं स्वीकार किया था कि मृतक वाहन में सैंड अनलोड करने गया था और बीमा पॉलिसी में “वर्कमैन लाईबिलिटी” की प्रीमियम दी थी — इस स्वीकारोक्ति ने दावे में कारक भूमिका निभाई।
  3. राश व लापरवाह ड्राइविंग की व्यापक व्याख्या
    अदालत ने यह संकेत दिया कि “राश एवं लापरवाह” का अर्थ केवल तेज गति नहीं है; इसमें वाहन संचालन के क्रम में नियंत्रण खोना, ओवरटेकिंग/साइडिंग नियमों का उल्लंघन, वाहन पलटना या ब्रेक न लगाना आदि भी शामिल हैं। उदाहरण के प्रस्तुत निर्णय में चालक ने वाहन को पुल के पास नियंत्रण खोते हुए चलाया था, जिसका बोझा कि “राश एवं लापरवाह ड्राइविंग” माना गया।
  4. दावे-याचिका प्रक्रिया एवं समय-सीमा
    यद्यपि इस निर्णय में प्रमुख मुद्दा प्रमाण था, तथापि याचिका के समय-बाधा (limitation) एवं विलंब छूट (condonation of delay) की प्रक्रिया भी महत्वपूर्ण होती है। उदाहरणस्वरूप, एक अन्य मामले में याचिकाकर्ता ने धारा 5 सीमित अधिनियम के अंतर्गत विलंब छूट की याचिका की थी।
  5. उच्च न्यायालय द्वारा दिशानिर्देश
    अदालत ने स्पष्ट किया कि मोटर वाहन दुर्घटना के मामलों में उच्च न्यायालयों व दावाकरण न्यायाधिकरणों को निम्नलिखित बिंदुओं का ध्यान रखना होगा:

    • याचिकाकर्ता व व्यक्ति-हिरासतकर्ता (claimant)-दावा-कर्ता का बयान सुसंगत व अविवादित हो।
    • चालक की वैधता (लाइसेंस, पंजीकरण, बीमा कवरेज) तथा वाहन-स्थिति (पंजीकरण, बीमा पॉलिसी) स्पष्ट हो।
    • दुर्घटना-समय व स्थान-स्थिति स्पष्ट हो, एवं यदि संभव हो तो वाहन चालक या अन्य गवाहों का साक्ष्य लिया हो।
    • वाहन मालिक-चालक-बीमाकर्ता के बीच संबंध स्पष्ट हो (उदाहरण-स्वरूप: authorised driver, vehicle maintenance, insurance premium)।
    • यदि प्रमाण पूर्ण न हो, तो दोष को खारिज नहीं किया जाना चाहिए — बल्कि 전체 तथ्यों, परिस्थितियों व दावे-कर्ता के साक्ष्य को मिलाकर सम्यक निष्कर्ष निकाले जाने चाहिए।
  6. प्रभाव एवं नीति-दृष्टि
    यह निर्णय दिशा-निर्देशक है कि दुर्घटना-दावों में न्यायालयों को दावे-कर्त्ताओं को पर्याप्त अवसर देना चाहिए तथा तकनीकी प्रमाण-अभाव के चलते दावे को स्वचालित रूप से अस्वीकृत नहीं करना चाहिए। साथ ही, वाहन संचालन व बीमा-प्राप्ति व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता मुखर हुई है — वाहन मालिकों को चाहिए कि वे चालक-प्रशिक्षण, वाहन निरीक्षण, बीमा कवरेज की समय-समय पर समीक्षा करें।

निष्कर्ष

उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट होता है कि राश एवं लापरवाह ड्राइविंग के आधार पर दुर्घटना-दावे को सफलतः साबित करने के लिए केवल एफआईआर/चार्जशीट का होना आवश्यक नहीं है। यदि दावे-कर्ता का बयान अखंड, स्पष्ट और विरोधहीन हो तथा चालक-व् वाहन-स्थिति से जुड़े तर्क-तथ्य सही हों, तो न्यायालय उक्त दावे को स्वीकार कर सकता है। न्यायमूर्ति भाष्कर राज प्रधान जी के निर्णय ने यह पुष्ट किया कि दुर्घटना-दावे में प्रमाण-के-रूप साक्ष्य-पार्श्व (evidence-backing) का स्वरूप आज भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि तकनीकी प्रमाण-टिकाओं (जैसे एफआईआर/चार्जशीट) का अभाव दावे को निष्कर्षतः विफल कर देता हो।

दावे-याचिका धारा 166 के अंतर्गत इस ओर यह संदेश जाता है कि वाहन मालिक, चालक व बीमाकर्ता अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से लें और दुर्घटना-प्रबंधन व मानव-जीवन-सुरक्षा को सर्वोपरि रखें। वहीं दावे-कर्त्ताओं को यह सुझाव है कि वे प्रारंभिक चरण से अपने साक्ष्य को सुव्यवस्थित रखें (यानि दुर्घटना-समय व स्थान, वाहन-नंबर, चालक-विवरण, गवाह-सूची, चिकित्सा/मृत्यु प्रमाणपत्र आदि) ताकि यदि न्यायालय में विवाद उत्पन्न हो, तो वे सक्षम रूप से अपने दावे का समर्थन कर सकें।

इस प्रकार, यह निर्णय दुर्घटना-दावों की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मील-पत्थर साबित होता है, जो न्याय और सुरक्षा-संबंधी दृष्टिकोण से सम्यक एवं सामाजिक न्याय-अनुकूल है।