ट्रांसजेंडर का सम्मान संविधान की आत्मा का हिस्सा है: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा – शैक्षिक दस्तावेजों में नाम व लिंग परिवर्तन कराना ट्रांसजेंडर का मौलिक अधिकार
भारत का संविधान हर नागरिक को समानता, गरिमा और आत्म-पहचान का अधिकार प्रदान करता है। यही संवैधानिक भावना हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय में झलकती है, जिसमें अदालत ने स्पष्ट किया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अपने शैक्षिक दस्तावेजों में नाम और लिंग परिवर्तन कराने का पूर्ण संवैधानिक अधिकार है। इस अधिकार को नकारना उनके मौलिक अधिकारों का व्यवस्थित बहिष्कार है।
यह ऐतिहासिक निर्णय न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की एकल पीठ ने सुनाया। अदालत ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति अपनी लैंगिक पहचान को बदलता है, तो उसे अपने शैक्षणिक अभिलेखों और प्रमाणपत्रों में भी उसी के अनुसार संशोधन कराने का अधिकार है। किसी भी संस्था द्वारा इस अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), अनुच्छेद 19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
मामला क्या था?
शाहजहांपुर जिले के एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति, जो पहले महिला के रूप में पंजीकृत थे और बाद में पुरुष बने, ने माध्यमिक शिक्षा परिषद बरेली क्षेत्र में अपने शैक्षिक दस्तावेजों में नाम और लिंग परिवर्तन के लिए आवेदन किया। याची ने यह परिवर्तन ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत किया था और इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप आवश्यक दस्तावेज भी प्रस्तुत किए थे।
लेकिन परिषद के क्षेत्रीय सचिव ने 8 अप्रैल 2025 को यह कहते हुए आवेदन अस्वीकार कर दिया कि विलंब से नाम परिवर्तन करने का कोई प्रावधान नहीं है। इस निर्णय से असंतुष्ट होकर याची ने इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
अदालत की सुनवाई और दलीलें
याची की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एच.आर. मिश्रा, अधिवक्ता राजेश कुमार यादव और अश्विनी कुमार शर्मा ने दलील दी कि परिषद का आदेश न केवल ट्रांसजेंडर व्यक्ति के अधिकारों के विपरीत है, बल्कि यह संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का भी हनन करता है।
उन्होंने अदालत के समक्ष यह तर्क दिया कि “ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019” के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि कोई भी ट्रांसजेंडर व्यक्ति शिक्षा, रोजगार या सार्वजनिक जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव का शिकार न हो।
अधिवक्ताओं ने यह भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत सरकार (NALSA बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2014) के ऐतिहासिक निर्णय में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को “तीसरा लिंग” के रूप में मान्यता दी थी और यह कहा था कि हर व्यक्ति को अपनी लैंगिक पहचान स्वयं तय करने का अधिकार है।
अदालत का निर्णय
हाईकोर्ट ने परिषद के निर्णय को “असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण” करार देते हुए रद्द कर दिया।
अदालत ने कहा —
“ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपनी लैंगिक पहचान चुनने और उसके अनुसार अपने शैक्षिक एवं अन्य अभिलेखों को संशोधित करवाने का मौलिक अधिकार है। इस अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है। यह ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों का व्यवस्थित बहिष्कार है, जिसे कोई भी संवैधानिक व्यवस्था स्वीकार नहीं कर सकती।”
न्यायमूर्ति शमशेरी ने माध्यमिक शिक्षा परिषद को निर्देश दिया कि आठ सप्ताह के भीतर याची के शैक्षिक दस्तावेजों में नाम और लिंग परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण की जाए।
संवैधानिक और विधिक विश्लेषण
भारत का संविधान समानता और गरिमा के अधिकार को प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार मानता है।
- अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है।
- अनुच्छेद 19(1)(a) – व्यक्ति को अपनी पहचान और विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता देता है।
- अनुच्छेद 21 – जीवन के अधिकार को केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं रखता, बल्कि उसमें गरिमामय जीवन जीने का अधिकार भी शामिल है।
इन संवैधानिक प्रावधानों को NALSA के निर्णय और 2019 के अधिनियम के माध्यम से सशक्त किया गया, जिससे ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कानूनी रूप से अपनी पहचान स्थापित करने और उसे आधिकारिक दस्तावेजों में अंकित करवाने का अधिकार मिला।
सामाजिक संदर्भ
भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय दशकों से भेदभाव और उपेक्षा का शिकार रहा है। उन्हें शिक्षा, रोजगार और सामाजिक प्रतिष्ठा में बराबरी का अवसर नहीं मिलता रहा।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय समाज को एक नई दिशा देता है — यह बताता है कि पहचान और सम्मान किसी व्यक्ति के शरीर से नहीं, बल्कि उसकी आत्मा और स्वतंत्रता से तय होते हैं।
भविष्य की दिशा
यह फैसला शिक्षा परिषदों, विश्वविद्यालयों और सरकारी निकायों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होगा। अब यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि सभी संस्थाएं ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के नाम और लिंग परिवर्तन संबंधी अनुरोधों को संवैधानिक संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ स्वीकार करें।
इसके साथ ही, केंद्र और राज्य सरकारों को भी अधिनियम 2019 के तहत जारी नियमों को और प्रभावी बनाने की दिशा में कदम उठाने होंगे, ताकि ट्रांसजेंडर समुदाय को समान अवसर और सम्मान मिल सके।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय न केवल एक व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि यह पूरे ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए न्याय और समानता की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा। यह फैसला इस बात का संदेश देता है कि भारतीय संविधान किसी को भी उसकी पहचान के आधार पर भेदभाव की अनुमति नहीं देता।
ट्रांसजेंडर के शैक्षिक दस्तावेजों में नाम और लिंग परिवर्तन कराने का अधिकार केवल प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि यह उनके अस्तित्व, सम्मान और गरिमामय जीवन का संवैधानिक प्रतीक है।