“झूठे और सामान्य आरोपों पर ससुराल पक्ष के विरुद्ध मुकदमा नहीं चलेगा: कर्नाटक उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय”
भूमिका:
भारतीय दंड प्रक्रिया में यह एक स्थापित सिद्धांत है कि अभियोजन (Prosecution) का उद्देश्य न्याय करना है, न कि किसी निर्दोष को अनावश्यक रूप से परेशान करना। इसी सिद्धांत को दोहराते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जिसमें यह कहा गया कि यदि पति के खिलाफ क्रूरता या अन्य आपराधिक आरोप स्पष्ट और ठोस हों तो उसकी जांच और मुकदमा जारी रह सकता है, लेकिन ससुराल पक्ष के अन्य सदस्यों के विरुद्ध लगाए गए सामान्य, अस्पष्ट या समष्टिगत (omnibus) आरोप, यदि अपराध के तत्व पूरे नहीं करते, तो उन्हें कानून के दुरुपयोग की श्रेणी में रखा जाएगा और ऐसे मामलों को खारिज किया जा सकता है।
प्रकरण की पृष्ठभूमि:
कई मामलों में देखा गया है कि पत्नी द्वारा पति के साथ-साथ पूरे ससुराल पक्ष के विरुद्ध एक ही तरह के आरोप लगाए जाते हैं, जैसे मानसिक और शारीरिक क्रूरता, दहेज उत्पीड़न आदि, लेकिन इनमें कोई विशेष घटना, समय, स्थान या साक्ष्य का उल्लेख नहीं होता। ऐसे आरोप आमतौर पर धारा 498A, 406, 323, 506 आदि के अंतर्गत दर्ज किए जाते हैं।
कर्नाटक उच्च न्यायालय का दृष्टिकोण:
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा:
“While specific and substantial allegations of cruelty and other offenses against a husband warrant continued investigation and trial, general and omnibus allegations against the husband’s relatives such as mother-in-law and father-in-law without specific instances that meet the ingredients of the alleged offenses, are liable to be quashed to prevent abuse of the process of law.”
अर्थात् यदि पति के विरुद्ध लगाए गए आरोपों में पर्याप्त साक्ष्य और स्पष्ट घटनाएं हैं, तो मुकदमा जारी रहेगा, लेकिन अन्य रिश्तेदारों के विरुद्ध केवल सामान्य और अस्पष्ट आरोपों को लेकर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
महत्वपूर्ण न्यायिक सिद्धांत:
- कानून का दुरुपयोग रोकना: भारतीय न्याय व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि कोई निर्दोष व्यक्ति झूठे मुकदमों का शिकार न हो।
- धारा 482 CrPC के तहत हस्तक्षेप: उच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है जहाँ आपराधिक कार्यवाही न्याय के विरुद्ध हो।
- निर्दिष्ट विवरणों का अभाव: यदि आरोपों में कोई विशिष्ट घटना, तारीख, समय, स्थान, साक्षी आदि का उल्लेख नहीं है, तो वे संदेह के घेरे में आते हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में स्थापित निर्णय:
इस दृष्टिकोण को पहले भी उच्चतम न्यायालय ने समर्थन दिया है। उदाहरणार्थ:
- कहकशां परवीन बनाम राज्य (बिहार), 2022 SCC OnLine SC 162:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ससुराल पक्ष के सदस्यों के खिलाफ केवल सामान्य और अज्ञात आरोप आधार नहीं बन सकते कि उन्हें मुकदमे में घसीटा जाए।
निष्कर्ष:
कर्नाटक उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक विवेक, साक्ष्य के महत्व और अभियोजन प्रक्रिया की पवित्रता को रेखांकित करता है। इससे झूठे आरोपों की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा और केवल उन्हीं मामलों में अभियोजन संभव होगा जहाँ वास्तविक और ठोस आरोप तथा साक्ष्य मौजूद हों। यह फैसला न्याय के सिद्धांत “दस दोषी छूट जाएं, लेकिन एक निर्दोष को सज़ा न मिले” की पुष्टि करता है।
प्रस्तावित सुझाव:
- कानून का उपयोग न्याय के लिए हो, न कि बदले की भावना से।
- पुलिस और न्यायालयों को चाहिए कि आरोपों का मूल्यांकन साक्ष्यों के आधार पर करें, न कि भावनात्मक आरोपों पर।
- विवेकपूर्ण न्यायिक समीक्षा के अधिकार का प्रयोग करना आवश्यक है ताकि न्याय का उद्देश्य पूरा हो सके।