“जैसे-जैसे बढ़े आयु, वैसे ही ज्ञान: सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि सेक्स एजुकेशन होनी चाहिए स्कूलों में कक्षा IX से पहले ही”
प्रस्तावना
भारत में बचपन और किशोरावस्था के दिनों में शारीरिक, जैविक और मानसिक बदलावों की जानकारी का अभाव अक्सर युवाओं को असमंजस, भय और मिथकों की स्थिति में छोड़ देता है। ये बदलाव — जैसे प्यूबर्टी (हार्मोनल परिवर्तन), शरीर का विकास, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, आत्म-गौरव, सहमति (consent), सुरक्षित व्यवहार आदि — यदि ठीक समय पर और सही तरह से न समझाए जाएँ, तो ये कई सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं: किशोर अशिक्षा, यौन अपराधों में वृद्धि, सेक्सुअल हेल्थ की दुर्दशा, गलत सूचनाएँ आदि।
इसलिए, शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अकादमिक ज्ञान देना नहीं होना चाहिए, बल्कि जीवन के लिए तैयार करना भी होना चाहिए — जिसमें बच्चे यह जानें कि उनका शरीर कैसे बदलता है, उन्हें क्या अधिकार हैं, सुरक्षित व्यवहार क्या है, और वे किन-किन स्रोतों से भरोसेमंद जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
अगर हम सुर्खियों में देखे तो सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यह कहा है कि सेक्स एजुकेशन (यौन शिक्षा) को स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा कक्षा IX से लेकर XII तक सीमित न रखा जाए, बल्कि उससे भी कम उम्र से बच्चों को इसकी जानकारी दी जानी चाहिए। यह टिप्पणी Juvenile मामलों की सुनवाई के दौरान हुई। इस लेख में हम इस निर्णय की पृष्ठभूमि, कानूनी व सामाजिक तर्क, संभावित लाभ-हानि, चुनौतियाँ और आगे की राह पर विचार करेंगे।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: तथ्य और न्यायिक निर्देश
- ८ अक्टूबर २०२५ को सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ — जयस्टिस संजय कुमार और जयस्टिस आलोक अरढ़े — ने यह निरीक्षण किया कि स्कूल शिक्षा में सेक्स एजुकेशन कक्षा IX से ऊपर लागू की जा रही है, जैसे कि उत्तर प्रदेश की पाठ्यचर्या में।
- अदालत ने यह कहा कि “हम इस राय में हैं कि सेक्स एजुकेशन बच्चों को कम उम्र से दी जानी चाहिए, न कि कक्षा IX से शुरू होकर।”
- न्यायालय ने राज्य सरकार से यह भी पूछा कि अब तक की पाठ्यचर्या में इस विषय को कैसे शामिल किया गया है, ताकि किशोरों को प्यूबर्टी के बाद होने वाले हार्मोनल बदलाव, और उन बदलावों के नतीजे व सावधानियाँ पता हों।
- अदालत ने यह मामला एक जुवेनाइल (बालक) की बेल याचिका के संदर्भ में उठाया था — अभियोजन जो पोस्को अधिनियम और आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार), 506 (आपराधिक धमकी) आदि के तहत थी। न्यायालय ने इस उम्र के व्यक्ति की स्थिति देखते हुए यह निर्देश दिए कि छोटे बच्चों को समय रहते जागरूक किया जाना चाहिए।
- हालांकि अदालत ने अभी यह नहीं कहा कि कौन-सी कक्षा से शुरुआत हो, पाठ्यक्रम में क्या-क्या विषय हों और किस तरह से पढ़ाया जाए, लेकिन यह सुझाव और अनुग्रह स्पष्ट है कि कक्षा IX से पहले भी सेक्स एजुकेशन देना चाहिए।
तर्क: क्यों जरूरी है सेक्स एजुकेशन कम उम्र से
न्यायालय की टिप्पणियाँ उसी सामाजिक, शैक्षिक तथा स्वास्थ्य संबंधी तर्कों से जुड़ी हैं जो निम्नलिखित हैं:
- प्यूबर्टी के समय जागरूकता
- हार्मोनल, शारीरिक और मानसिक बदलाव अक्सर किशोर अवस्था से पहले शुरू हो जाते हैं। यदि बच्चे इन बदलावों को समझें, तो भय, शर्म, गलतफहमियाँ और असमंजस कम होंगे।
- उदाहरणार्थ लड़कियों में मासिक धर्म की शुरुआत, लड़कों में जननांग विकास आदि। यदि ये प्राकृतिक प्रक्रियाएँ समझी जाएँ, तो आत्मसम्मान बढ़ेगा, स्वच्छता की आदतें बनेंगी और स्वास्थ्य समस्याएँ कम होंगी।
- यौन अपराधों व उत्पीड़न की रोकथाम
- बच्चों को यह पता होना चाहिए कि consent क्या है, boundary violations क्या हैं, “good touch, bad touch” जैसी अवधारणाएँ क्या हैं। इससे यौन उत्पीड़न, बलात्कार आदि मामलों में उनके संरक्षण की गुंजाइश बढ़ेगी।
- गलत जानकारी या मिथकों के कारण युवा गलत फैसले ले लेते हैं, जो दुष्प्रभावपूर्ण हो सकते हैं — जैसे असुरक्षित यौन संबंध, एड्स, यौन संचारित रोग आदि।
- स्वास्थ्य व प्रजनन शौचालयता (Reproductive Health) की समझ
- स्वास्थ्य शिक्षा का हिस्सा होना चाहिए कि सुरक्षित यौन व्यवहार क्या है, गर्भधारण से कैसे बचा जाए, सेक्सुअल हेल्थ से जुड़ी बीमारियाँ, और मानसिक स्वास्थ्य कैसे प्रभावित हो सकता है।
- किशोरावस्था में गर्भावधि या अनचाही गर्भावस्था का जोखिम यदि है, तो समय रहते जानकारी और संसाधन उपलब्ध हों, तो उसका निवारण संभव है।
- समाज की जागरूकता व खुले संवाद का समर्थन
- जब परिवार, स्कूल और समाज इस तरह की शिक्षा को स्वीकार करते हैं, तो बच्चे खुले और भरोसेमंद वातावरण में सवाल पूछ सकते हैं।
- यह शर्मिंदगी और गोपनीयता के भय को कम करता है, जिससे नकली धारणाएँ, अफवाहें या इंटरनेट पर गलत सामग्री का सहारा लेने की प्रवृत्ति घटती है।
- कानूनी और संवैधानिक संरक्षण
- कानून, जैसे पोस्को अधिनियम, बच्चों की सुरक्षा की आवश्यकता बताते हैं। न्यायालयों ने बार-बार कहा है कि बच्चों को सुरक्षित वातावरण मिलना चाहिए।
- शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21A), समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14), और गरिमा से जीवन जीने का अधिकार (अनुच्छेद 21) यह सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों को न सिर्फ शिक्षा हो, बल्कि सुरक्षित और पूर्ण शिक्षा हो जिसमें उनका यौन स्वास्थ्य भी शामिल हो।
चुनौतियाँ एवं संभावित आपत्तियाँ
सेक्स एजुकेशन को स्कूलों में शुरू करने के प्रस्ताव को लेकर कुछ आम चुनौतियाँ और आपत्तियाँ भी सामने आती हैं। उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इन्हें विचार कर हल निकाला जाना ज़रूरी है।
- सांस्कृतिक एवं धार्मिक भावनाएँ
- भारत में, यौन विषयों पर खुली चर्चा को लेकर पारंपरिक और धार्मिक प्रतिबंधों की गहरी जड़े हैं। कई माता-पिता और समुदाय यह मानते हैं कि सेक्स एजुकेशन “अनैतिकता बढ़ाएगा” या बच्चों को पहले से यौन गतिविधियों की ओर प्रेरित करेगा।
- ऐसे मिथक और डर न्यायालय ने भी पहचाने हैं।
- आयु-उपयुक्त सामग्री का चयन
- क्या विषय बहुत जल्दी देना है कि बच्चे समझ ही नहीं पाएँ? उदाहरण के लिए, प्यूबर्टी से पहले के बच्चे को बहुत जटिल यौन संबंधी अवधारणाएँ देना उपयुक्त नहीं।
- इसलिए सामग्री को आयु-उपयुक्त, संवेदनशील और स्थानीय सांस्कृतिक संदर्भों के अनुरूप तैयार किया जाना चाहिए।
- शिक्षकों की तैयारी और प्रशिक्षण
- यदि शिक्षकों को इस विषय पर पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं है — न सिर्फ जैविक तथ्यों में बल्कि संवेदनशीलता, मनोविज्ञान, अभिव्यक्ति की स्वीकृति आदि में — तो शिक्षा अधूरी या गलत हो सकती है।
- इसके साथ साथ, शिक्षक स्वयं यदि अशांति या विवादों से बचने के कारण विषय को टालते हों, तो वास्तविक लाभ नहीं होगा।
- पाठ्यचर्या, टाइमटेबल, संसाधनों की कमी
- स्कूलों के पाठ्यक्रमों में नए विषय जोड़ना, पुस्तकें तैयार करना, शिक्षक प्रशिक्षण, अनुमानित विषय की जगह देना — ये सभी व्यवस्था और संसाधन मांगते हैं।
- विशेष रूप से सरकारी स्कूलों, दूरदराज इलाकों में, जहां संसाधन सीमित हैं, यह और बड़ी चुनौति हो सकती है।
- परिवार और समुदायों के बीच संवाद
- बच्चों को जानकारी देने का काम सिर्फ स्कूलों का नहीं, परिवार और समुदायों का भी है।
- यदि परिवार इस विषय को स्वीकार नहीं करेगा, तो स्कूलों की कोशिशों का असर कम होगा। माता-पिता, अभिभावक, धार्मिक गुरू आदि को संवेदनशीलता से संबोधित करना होगा।
संभावित प्रभाव
यदि ये सुझाव बड़े पैमाने पर लागू किए जाएँ, तो समाज, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था पर कई सकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं:
- युवाओं में बेहतर आत्म-समझ
- किशोरों को अपने शरीर, भावनाएँ, बदलाव की प्रक्रिया, आत्मगौरव और स्वच्छता आदि की बेहतर समझ होगी।
- ये समझ उनके आत्म-सम्मान को बढ़ाएगी, सामाजिक दबाव को कम करेगी तथा आत्म-हत्या, मानसिक संकट आदि की घटनाएँ कम हो सकती हैं।
- यौन अपराध और उत्पीड़न में कमी
- जब बच्चों को “consent”, “boundary”, “good touch / bad touch” आदि की जानकारी होगी, तो वे खुद अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होंगे।
- समाज में जागरूकता बढ़ेगी, अपराध करने वालों के लिए चेतावनी — क्योंकि जानकारी और कानून दोनों की समझ होगी।
- स्वास्थ्य लाभ
- यौन संचारित रोगों (STDs), अनचाही गर्भधारण, किशोर गर्भावस्था आदि मामलों में कमी आ सकती है।
- मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसका अच्छा प्रभाव होगा, जैसे कि आत्म-छवि, यौन पहचान, तनाव आदि से जुड़े मुद्दों की बेहतर देखभाल हो सकेगी।
- समावेशी और समुचित शिक्षा नीति बनेगी
- शिक्षा नीति में सेक्स एजुकेशन को गंभीरता से शामिल करने से पाठ्यक्रम अधिक समावेशी बनेगा।
- नेशनल एजुकेश्न पॉलिसी (NEP) तथा NCERT की भूमिका महत्वपूर्ण होगी — पाठ्य सामग्री तैयार करना, शिक्षकों को प्रशिक्षित करना, राज्यों के बीच समन्वय आदि।
- कानूनी व सामाजिक न्याय की दिशा में कदम
- बच्चों के अधिकारों की रक्षा सशक्त होगी। पोस्को अधिनियम जैसे कानूनों का प्रभाव और जागरूकता बढ़ेगी।
- सामाजिक समानता, लैंगिक समानता, महिलाओं-लड़कियों की सुरक्षा जैसे मुद्दों में सुधार होगा।
सुझाव: कैसे हो सकें व्यवस्थित परिवर्तन
इन प्रस्तावों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए कुछ रणनीतियाँ व सुझाव निम्नलिखित हैं:
- राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्देश तैयार करना
- सरकार (संघ/राज्य) को एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए कि सेक्स एजुकेशन किस आयु से शुरू होगी, विषयों की रूपरेखा कैसी होगी, किन-किन विषयों को शामिल किया जाएगा (जैसे शरीर विज्ञान, स्वच्छता, सुरक्षा व सीमा-सम्मान, सहमति, यौन उत्पीड़न, LGBTQ+ जागरूकता आदि)।
- NCERT जैसे निकाय इस कार्य में नेतृत्व करें।
- आयु-उपयुक्त पाठ्यक्रम और सामग्री विकास
- पाठ्यक्रम को विभिन्न आयु समूहों के अनुरूप विभाजित किया जाए। उदाहरण: कक्षा 4-5 (छोटे बच्चे): निजी अंग की पहचान, अच्छा छूना-बुरा छूना आदि; कक्षा 6-8: प्यूबर्टी, स्वच्छता, भावनाएँ; कक्षा 9-12: और अधिक विस्तार, सहमति, यौन स्वास्थ्य, कानूनी अधिकार आदि।
- पाठ्य सामग्री (पुस्तकें, वीडियो, कार्यपत्र आदि) ऐसे हों कि भाषा सरल और सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील हो।
- शिक्षक प्रशिक्षण और समर्थन तंत्र
- शिक्षकों एवं शाला प्रबंधकों को प्रशिक्षण दिया जाए कि वे इस विषय को संवेदनशील और सकारात्मक तरीके से पढ़ा सकें।
- स्कूलों में counsellors या विशेषज्ञों की भूमिका हो ताकि छात्र प्रश्न पूछ सकें और सही जानकारी मिल सके।
- अभिभावकों एवं समुदायों को शामिल करना
- अभिभावकों के लिए जागरूक कार्यक्रम हो, संवादका अवसर मिले — ताकि वे समझ सकें कि सेक्स एजुकेशन क्या है और क्यों जरूरी है।
- समुदायों और धार्मिक संस्थाओं के साथ सहयोग हो ताकि मिथक और गलतफहमियाँ कम हों।
- वित्तीय एवं संसाधन सहयोग
- सरकारी बजट में सेक्स एजुकेशन कार्यक्रमों के लिए विशेष धनराशि आवंटित हो।
- गैर-सरकारी संगठन, स्वास्थ्य विभाग, सामाजिक कार्य व एजुकेश्न विभाग मिलकर संसाधन साझा करें।
- निगरानी, मूल्यांकन और सतत सुधार
- कार्यक्रमों की नियमित समीक्षा होनी चाहिए कि शिक्षा कितनी प्रभावी हुई है। छात्र, शिक्षक, अभिभावक की प्रतिक्रिया ली जाए।
- यदि कुछ विषय विवादास्पद हों, उन्हें पुनर्मूल्यांकन के लिए तैयार रखा जाए और स्थानीय संवेदनाओं का सम्मान हो।
संभावित चिंताएँ और कैसे उनका समाधान हो
- “सेक्स एजुकेशन बच्चों को यौन सक्रिय बना देगा” जैसी आम आशंका — अनेक अध्ययनों ने यह दिखाया है कि सही-सेट किया गया शिक्षा कार्यक्रम युवाओं में सुरक्षित व्यवहार को बढ़ावा देता है और यौन अपराधों से बचाव में मदद करता है।
- “संस्कृति एवं परंपराएँ बाधा होंगी” — सही संवाद और अभिभावकों की भागीदारी से इन बाधाओं को पार किया जा सकता है।
- “शिक्षक अक्षम हों या विषय से डरें” — प्रशिक्षण और संज्ञानात्मक संवेदनशीलता कार्यक्रम इस समस्या का समाधान कर सकते हैं।
निष्कर्ष
सेक्स एजुकेशन और किशोरावस्था की तैयारी सिर्फ एक विषय नहीं, बल्कि बच्चों को समाज में स्वस्थ, सुरक्षित, आत्मविश्वासी और जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए जरूरी आधार है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश कि सेक्स एजुकेशन कक्षा IX से पहले शुरू होनी चाहिए, न केवल न्यायपालिका की संवेदनशीलता को दर्शाता है, बल्कि यह एक संकेत है कि शिक्षा नीति, स्कूल प्रशासन और समाज को मिलकर काम करना चाहिए ताकि हर बच्चा समय से ज्ञान प्राप्त कर सके — मिथकों, डर और गलत सूचना से मुक्त होकर।
यह सुनिश्चित करने का समय है कि शिक्षा व्यवस्था सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं दे, बल्कि जीवन-ज्ञान, आत्म-सम्मान, सुरक्षा और स्वास्थ्य की समझ भी दे। अगर हम इस निर्णय को सही मायने में लागू करें, तो आने वाली पीढ़ियाँ न सिर्फ बेहतर स्वास्थ्य व सुरक्षा प्राप्त करेंगी, बल्कि समाज में अधिक सहिष्णुता, समानता और समझ का माहौल बनेगा।