Allahabad High Court ने Supreme Court of India से कहा: “जुड़ाव कम करें — राज्य न्यायपालिका की नियुक्तियों-पदोन्नति पर हस्तक्षेप न करें”
प्रस्तावना
भारत की न्यायिक व्यवस्था का ढांचा गहराई से संवैधानिक जुड़ा हुआ है — न केवल नियमों और प्रक्रियाओं के कारण, बल्कि विभिन्न स्तरों पर न्यायिक स्वायत्तता (judicial autonomy) के कारण भी। हाल ही में, आलाहाबाद हाई कोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक ऐसा आग्रह रखा है, जिसने न्यायपालिका के स्वशासन (self-governance) और उपरी हस्तक्षेप (upper-level interference) के बीच संवेदनशील संतुलन को पुनरुद्धारित किया है।
विशेष रूप से, यह मामला नीचे के न्यायिक अधिकारीयों की पदोन्नति (promotions) तथा उनकी सेवा-शर्तों (service conditions) से जुड़ा है, जिसे लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने सर्व-भारतीय स्तर पर एकरूपता (uniformity) लाने की पहल शुरू की है, जबकि उच्च न्यायालय इस पहल को अपनी अधिकार-क्षेत्र में हस्तक्षेप के रूप में देख रहा है।
इस लेख में हम इस विषय को विस्तृत रूप से समझने का प्रयास करेंगे:
- विवाद की पृष्ठभूमि
- आलाहाबाद हाई कोर्ट के तर्क
- सर्वोच्च न्यायालय का रुख
- संवैधानिक एवं न्यायशास्त्रीय आयाम
- संभावित प्रभाव एवं चिंताएँ
- निष्कर्ष
1. विवाद की पृष्ठभूमि
- पिछले कुछ वर्षों में, अनेक उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों ने यह दलील उठाई है कि जूनियर-स्तर के न्यायिक अधिकारियों (judicial officers) को पदोन्नति-मार्ग (promotion path) मिलना कठिन हो गया है। उदाहरण के तौर पर, सीधे भर्ती (direct recruitment) के मुकाबले प्रोमोटेड (promotee) अधिकारी पीछे रह जाते हैं।
- इस संदर्भ में All India Judges Association ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है, जिसमें सेवा-शर्तों, पदोन्नति की रफ्तार तथा वरिष्ठता (seniority) के मापदंडों पर सुनियोजित सुधारों की मांग की गई है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर सुनवाई करते हुए फैसला किया है कि एक पाँच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ (Constitution Bench) इस मसले को सुनेगी, जिसमें यह देखा जाएगा कि क्या प्रत्येक राज्य-उच्च न्यायालय (High Court) के लिए पदोन्नति तथा भर्ती का सामान्य मापदंड (general guideline) स्थापित किया जा सकता है या नहीं।
- इसी अवसर पर, आलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि न्यायिक सेवा (judicial service) एवं न्यायिक प्रशासन (judicial administration) का विषय उसके अधीन-क्षेत्र (domain) का है, और इसमें सर्वोच्च न्यायालय को निरंतर हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
2. आलाहाबाद हाई कोर्ट के तर्क
आलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा अपने तर्क में निम्न मुख्य बिंदुओं पर जोर दिया गया है:
(i) संवैधानिक प्रावधान
- हाई कोर्ट ने आर्टिकल 227(1) भारत-संविधान का हवाला दिया, जिसके अनुसार प्रदेश उच्च न्यायालय को अपने अधीन जिले-न्यायालयों (district judiciary) पर अवंशी निरीक्षण (superintendence) का अधिकार है।
- इस दृष्टि से कहा गया कि पदोन्नति, भर्ती तथा सेवा नियमों (service rules) तैयार करना तथा उन्हें लागू करना प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालय का संवैधानिक अधिकार है।
(ii) अनुभव एवं स्थानीय विविधता
- वरिष्ठ अधिवक्ता ने प्रस्तुत किया कि “हाई कोर्ट अपनी स्थानीय परिस्थितियों, न्यायिक भार, संसाधनों तथा राज्य-विशिष्ट संरचनाओं को सबसे अच्छी तरह जानता है”। इसलिए राज्य-स्तर पर नियमों का निर्धारण उसी द्वारा होना चाहिए।
- उन्होंने यह तर्क दिया कि पूरे देश के लिए एकरूप नियम (uniform rule) लागू करना न्यायिक आवश्यकता नहीं है, क्योंकि विभिन्न राज्यों में न्यायाधीशों की संख्या, कैरियर-मार्ग, भर्ती-नियम तथा संसाधन-स्थिति भिन्न-भिन्न है।
(iii) हस्तक्षेप का खतरा
- हाई कोर्ट का यह भी तर्क था कि यदि सर्वोच्च न्यायालय संवाद हीन, व्यापक निर्देश जारी करेगा, तो इससे उच्च न्यायालयों की स्वायत्तता (autonomy) कमजोर होगी। “हमें हाई कोर्ट को कमजोर नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे सशक्त बनाना चाहिए” – इस भावना के साथ उन्होंने आग्रह किया।
- उन्होंने सुझाव दिया कि सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप केवल “सामान्य दिशानिर्देशों (general directions)” तक सीमित होना चाहिए, न कि प्रत्येक राज्य-उच्च न्यायालय की चयन-प्रक्रियाओं पर micromanagement करने वाला।
3. सर्वोच्च न्यायालय का रुख
उधर, सर्वोच्च न्यायालय ने निम्न बिंदुओं को सामने रखा है:
- बेंच के समक्ष कहा गया कि “हम उच्च न्यायालयों की सुझाव-सिफारिश करने की शक्तियों को नहीं छीनना चाहते”। CJI भूषण आर. गवैय ने स्पष्ट किया कि “न हम इरादा रखते हैं कि हाई कोर्ट की स्वायत्तता को हम छीनें”।
- तथापि, उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि “क्यों हर हाई कोर्ट के लिए अलग-अलग नीति होनी चाहिए?” अर्थात् देशभर में न्यायिक सेवा-प्रवेश, पदोन्नति एवं करियर-मार्गों में एक सामान्य बनावट की दिशा में क्यों प्रयास न हो?
- इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने यह संकेत दिया कि वह “सामान्य दिशा-निर्देश (general guideline)” जारी कर सकती है, लेकिन चयन एवं सिफारिश-निर्णय (recommendation) की शक्ति राज्य उच्च न्यायालयों के पास बनी रहेगी।
4. संवैधानिक एवं न्यायशास्त्रीय आयाम
इस पूरे विवाद में निम्न समुचित सिद्धांत एवं प्रश्न उत्पन्न होते हैं:
(a) न्यायिक स्वायत्तता (Judicial Autonomy)
उच्च न्यायालयों की यह दलील कि जिला-न्यायपालिका (district judiciary) के संबंध में उन्हें अपनी निर्णय-क्षमता (decision-making power) का अधिकार है, न्यायिक स्वायत्तता की अवधारणा को बल देती है। प्रमुख रूप से, यह विचार कि न्यायालय केवल न्याय वितरक नहीं, बल्कि प्रशासनिक इकाई भी है, गहरी-महत्वपूर्ण है।
(b) एकरूपता बनाम विविधता (Uniformity vs Diversity)
दूसरी ओर, यह विचार कि पूरे देश में न्यायिक सेवा की सुरक्षा के लिए एकरूप नीति होनी चाहिए, न्याय-वितरण में समानता (equality) और प्रणालीगत विश्वास (systemic confidence) की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस प्रकार, विविधता एवं एकरूपता के बीच संतुलन बनाना संवेदनशील कार्य है।
(c) संवैधानिक जिम्मेदारी-विभाजन
- आर्टिकल 233, 234, 237 इत्यादि राज्य और उच्च न्यायालयों की भर्ती-पदोन्नति अधिकारों से सम्बंधित हैं।
- आर्टिकल 227 हाई कोर्ट को अपने अधीन जिला-न्यायपालिका पर सुपरिंडेंस देने का अधिकार देता है।
- इसलिए, यह प्रश्न उठता है कि किस सीमा तक सर्वोच्च न्यायालय नियामक (regulatory) रूप में हस्तक्षेप कर सकता है, एवं किस सीमा तक राज्य-उच्च न्यायालय को स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
(d) न्यायिक सेवा के हित में समय-सापेक्षता (Timeliness)
यदि पदोन्नति या भर्ती में लम्बे समय तक अटकाव हो जाता है (career stagnation), तो यह व्यक्तिगत अधिकारी, न्यायिक प्रणाली तथा न्यायाधिकारियों-हिताधिकारियों (stakeholders) की अपेक्षाओं के विरुद्ध है। इस दृष्टि से यह देखा जाना चाहिए कि प्रक्रिया में सुधार होगा या केवल अधिकार-विवाद खिल उठेगा।
5. संभावित प्रभाव एवं चिंताएँ
इस विवाद के निम्न प्रकार के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव हो सकते हैं:
(i) उच्च न्यायालयों की निर्णायक क्षमता में वृद्धि
यदि सर्वोच्च न्यायालय ने वास्तव में “हाथ-हटाओ” दृष्टिकोण अपनाया, तो राज्य-हाई कोर्ट अपने अधीन जिला-न्यायपालिका के लिए भर्ती-पदोन्नति, सेवा नियमों तथा करियर मार्गों को अपनी स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप बेहतर बना सकते हैं। इससे प्रक्रिया में स्वायत्तता एवं जिम्मेदारी बनी रहेगी।
(ii) एकरूपता के अभाव से विविधता का लाभ-हानि
वहीं, यदि प्रत्येक हाई कोर्ट अपनी अलग नीति बनाएगी, तो देशभर में भर्ती-पदोन्नति के मापदंडों, वरिष्ठता के निर्धारण एवं करियर-मार्गों की तुलना करना कठिन होगा। इससे न्यायाधीश-बैंचमार्क (benchmarks) और पारदर्शिता (transparency) पर प्रश्न उठ सकते हैं।
(iii) कैरियर-स्टैग्नेशन (Career stagnation) का जोखिम
यह दावा भी है कि सीधे भर्ती और प्रमोटेड अधिकारियों के बीच पदोन्नति-परिस्थिति में असंतुलन है। यदि नियम राज्यों में भिन्न-भिन्न होंगे तो यह असंतुलन गहर सकता है। उदाहरण के लिए, कुछ राज्यउच्च न्यायालय ने प्रतिवेदन दिया है कि “यह समस्या सभी राज्यों में नहीं है”।
(iv) न्यायिक मनोबल (Judicial morale) एवं लोक-विश्वास (Public confidence)
पदोन्नति की प्रक्रिया यदि अस्पष्ट हो या न्यायाधीशों को लगे कि करियर-मार्ग अनिश्चित है, तो न्यायपालिका के भीतर मनोबल प्रभावित हो सकता है। साथ ही, सार्वजनिक विश्वास के नजरिए से भी यह परिस्थिति चिंताजनक है।
6. निष्कर्ष
आलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा सर्वोच्च न्यायालय से किया गया यह आग्रह स्वायत्त न्यायपालिका के पक्ष में एक महत्वपूर्ण संकेत है – कि न्यायालयों को उनके स्थानीय अधिकारों और अनुभवों के आधार पर निर्णय लेने का अवसर मिलना चाहिए। इसके साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि एकरूपता, समय-सापेक्षता और न्यायप्रणाली में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है।
संक्षिप्त में कहा जा सकता है:
“हाथ-हटाओ लेकिन दिशानिर्देश बनाएँ” — एक तरह से यह मंत्र इस विवाद का सार है।
यह विवाद भविष्य में यह तय करेगा कि भारत में राज्य-स्तरीय न्यायपालिका कितनी स्वायत्त रहेगी, और सर्वोच्च न्यायालय का क्या स्थान रहेगा जब राज्य-उच्च न्यायालयों की सेवा-शर्तों, पदोन्नति एवं न्यायिक प्रशासन की बात हो।