Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989 (संक्षिप्त : SC/ST Atrocities Act) की धारा 18 से जुड़े दृष्टांत, विशेष रूप से Punjab & Haryana High Court (P&H HC) तथा सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों की समीक्षा के साथ यह स्पष्ट करने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि “जातिगत अपमान सार्वजनिक-दृश्य में हुआ एवं जात-आधारित ताड़ना या उपहास स्पष्ट है, तभी धारा 18 का प्रतिबंध (anticipatory bail का निषेध) लाघू माना जाना चाहिए” — साथ ही इसके कानूनी, व्यवहारिक तथा नीति-प्रसंग में महत्व पर विचार किया गया है।
प्रस्तावना
SC/ST Atrocities Act भारत के सामाजिक न्याय-विधान का मुख्य आधार है, जिसे विशेष रूप से उन अपराधों से निपटने के लिए बनाया गया है जो अनुसूचित जाति (SC) या अनुसूचित जनजाति (ST) समूहों के विरुद्ध जात-आधारित अत्याचार (atrocities) स्वरूप के हों। धारा 3 (1)(र)/(स) इत्यादि में उन कृत्यों का उल्लेख है जिसमें किसी SC/ST सदस्य को उसकी जाति नाम से अपमानित करना, ताड़ना या उपहास करना, सार्वजनिक स्थल में या सार्वजनिक दृश्य में ऐसा करना, शामिल है।
धारा 18 में प्रावधान है कि इस अधिनियम तहत अपराध होने पर Code of Criminal Procedure, 1973 (CrPC) की धारा 438 (anticipatory bail) लागू नहीं होगी। इस प्रकार, अगर अधिनियम के अन्तर्गत अपराध माना जाता हो, तो अभियुक्त को गिरफ्तारी से पूर्व (anticipatory) जमानत मिलना स्वाभाविक रूप से प्रतिबंधित है।
यह विशेष रूप से इसलिए क्योंकि कानून-निर्माता ने यह मान लिया है कि SC/ST समुदाय-विरोधी अत्याचार के मामलों में अभियुक्तों को गिरफ्तारी से पहले जमानत मिलने पर उनके द्वारा गवाही प्रभावित करने, साक्ष्य मिटाने या पीड़ित-साक्षियों को दबाने का खतरा अधिक होगा।
परंतु, जैसा कि अनेक न्यायालयों ने स्पष्ट किया है, यह प्रतिबंध स्वतः पूरी तरह निष्प्रभावी नहीं है—यानी हर मामले में अनुसूचित जाति/जनजाति विरुद्ध अपराध माना नहीं जाता; और जहाँ prima facie (प्रारंभिक दिखने वाला) मामला नहीं बनता, वहां न्यायालयों ने जमानत देने की गुंजाइश बनाई है।
इस लेख का उद्देश्य यही है — जब “जात-आधारित अपमान” या “उपहास” सार्वजनिक रूप से और स्पष्ट संदर्भ में हुआ हो, तो धारा 18 का प्रतिबंध कैसे लागू होता है, विशेष रूप से P&H HC के हालिया निर्णयों के संदर्भ में; किन तत्वों को देखा जाता है; तथा अभियुक्त पक्ष और अभियोजन पक्ष के लिए कौन-से तर्क-बहस प्रासंगिक हैं।
धारा 18: कानूनी रूप-रेखा
(१) प्रावधान
धारा 18 (SC/ST Act) कहती है:
“कुछ भी … CrPC की धारा 438 को उस मामले में लागू नहीं होगा जिसमें इस अधिनियम के अंतर्गत अपराध हुआ हो।”
इसका अर्थ है कि किसी अभियुक्त को गिरफ्तारी से पूर्व (anticipatory) जमानत मिलने का अधिकार स्वतः नहीं रहेगा, यदि FIR/मुकदमा SC/ST Act के तहत दर्ज हुआ है और अधिनियम के अंतर्गत अपराध साफ़ दिखता हो।
(२) उद्देश्य और संसैधानिक-प्रसंग
उच्चतम न्यायालय ने इस प्रावधान को सामाजिक-विधानिक संवेदनशीलता के परिप्रेक्ष्य में देखा है। विशेष रूप से, यह ध्यान दिया गया है कि
- यह अधिनियम पुराने सामाजिक भेदभाव-विरुद्ध बनाया गया है।
- अगर अभियुक्त को गिरफ्तारी से पहले जमानत मिल जाए, तो पीड़ित, साक्ष्य-प्रबंधन व गवाही प्रभावित करने का खतरा बढ़ जाता है; और अधिनियम का उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा।
(३) ‘स्वतः’ नहीं बल्कि ‘पद प्रकट’ प्रतिबंध
हालाँकि धारा 18 में स्पष्ट रूप से प्रतिबंध है, लेकिन न्यायालयों ने यह माना है कि यह प्रतिबंध तभी पूरी तरह से लागू होता है जब “प्रारंभिक तौर पर” यह दिखता हो कि अधिनियम का अपराध दर्ज है — यानी FIR-आवश्यक तत्वों से लैस है। यदि ऐसा नहीं है, तो न्यायालय को अभियुक्त को जमानत देने का अवसर देना पड़ सकता है।
उदाहरणतः, उच्चतम न्यायालय ने कहा है:
“in a given case where on the face of it the offence under Section 3 … is found to have not been made out and … the accusations … are devoid of prima facie merits, the Court has a room to exercise the discretion to grant anticipatory bail.”
इसलिए, इस प्रतिबंध को ‘सशर्त’ कहा जा सकता है: पहले यह देखा जाता है कि क्या अपराध के प्रारंभिक चिन्ह मौजूद हैं और फिर धारा 18 का निषेध लागू होगा या नहीं।
“सार्वजनिक दृश्य” एवं “जात-आधारित अपमान” — महत्वपूर्ण तत्व
यहां दो प्रावधानों पर विशेष ध्यान देना होगा:
(१) सार्वजनिक दृश्य (public view)
अधिनियम की धारा 3 (1)(स) में कार्यवाही हेतु यह आवश्यक है कि अपमान या ताड़ना “किसी ऐसी जगह हो जो सार्वजनिक दृश्य में हो” (i.e., “in any place within public view”)।
न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि यह आवश्यक नहीं है कि बहुत बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हों; यदि कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित रहा हो या घटना ऐसी जगह हुई हो जहाँ सामान्य दृष्टि-विवेक से व्यक्ति देखा जा सकता हो, तो ‘पब्लिक दृश्य’ माना जा सकता है।
(२) जात-आधारित अपमान / ताड़ना (caste-based insult/intimidation)
यह पर्याप्त नहीं कि कोई SC/ST सदस्य को सामान्य रूप से अपमानित करे; बल्कि आवश्यक है कि यह अपमान उसकी जाति-पहचान के कारण हुआ हो — यानी अभियुक्त को यह पता हो कि पीड़ित SC/ST में आता है, और अपमान-थाड़ना/उपहास उस जाति-स्थिति के कारण हो।
उच्चतम न्यायालय ने कहा है:
“The words ‘with intent to humiliate’ … are inextricably linked to the caste-identity of the person … Not every intentional insult or intimidation of a member of a SC/ST community will result in a feeling of caste-based humiliation.”
इसलिए, यदि अपमान जात-नाम या जात-सूचक शब्दों से हुआ हो, या जात-स्थिति को लक्ष्य बनाकर किया गया हो, तो अधिनियम की धारा 3 लागू हो सकती है।
P&H HC का दृष्टिकोण – हालिया निर्णय
मामला: Dr. Ashwani Kalia v. State of Punjab (P&H HC, 26 सितंबर 2025)
इस मामले में P&H HC ने निम्नलिखित निर्णय दिया है:
- अभियुक्त (डॉ. ऐश्वर्य कड़िया) जिन पर आरोप था कि उन्होंने शिकायतकर्ता (एक महिला अधिकारी) को कार्यालय में उपस्थित अन्य कर्मचारियों की उपस्थिति में जाति नाम “मज़हबी” कह कर ताड़ना, उपहास करना व नौकरी से डराना कहा।
- न्यायालय ने पाया कि उक्त अभद्र टिप्पणी पब्लिक दृश्य में हुई — क्योंकि अन्य स्टाफ मौजूद थे; और अपमान स्पष्ट रूप से उसकी जाति-पहचान (मजहबी सिख, जो पंजाब में अनुसूचित जाति समूह में आता है) के कारण हुआ।
- इस प्रकार, प्रारंभिक तौर पर धारा 3(1)(स) का अपराध बनता दिखा, अत: धारा 18-A (anticipatory bail निषेध) लागू हुई और न्यायालय ने अग्रिम जमानत (anticipatory bail) को निरस्त किया।
यह निर्णय महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने स्पष्ट किया कि किसी कार्यालय-प्रांगण में मौजूद सहकर्मियों की उपस्थिति पर्याप्त है ‘पब्लिक दृश्य’ का घटक पूरा करने हेतु, और जात-नाम का उपयोग ताड़ना-उपहास का स्पष्ट संकेत हो सकता है।
अन्य P&H HC निर्णय
- P&H HC ने यह भी कहा है कि anticipatory bail की याचिका को पेशगी सिर्फ इसलिए निरस्त नहीं करना चाहिए कि धारा 18 लागू है; बल्कि विशेष न्यायालय को मेरिट्स-आधारित परीक्षण करना चाहिए कि क्या prima facie अपराध अधिनियम के तहत बना है।
- उदाहरण में, यदि अभियुक्त को यह पता नहीं था कि शिकायतकर्ता SC/ ST वर्ग में आती है, या FIR में जात-नाम का उल्लेख नहीं है, तो धारा 18 निषेध लागू नहीं माना गया और अग्रिम जमानत मिल सकती है।
विश्लेषण – “जात-आधारित अपमान सार्वजनिक और संदर्भात्मक” के अर्थ
उपरोक्त विवेचन और निर्णयों के आलोक में निम्न बिंदुओं पर ध्यान देना उपयोगी होगा:
- संदर्भात्मक (contextual) कारक
- अपमान/उपहास जनरल रूप से नहीं, बल्कि उस वक्त हुआ जब स्पष्ट रूप से SC/ ST व्यक्ति की जात-पहचान जान-बूझ कर निशाना बनाई गई हो।
- अभियुक्त को (या कम-से-कम FIR से यह आभास हो) कि शिकायतकर्ता SC/ ST वर्ग में है। (ज्ञान या अनुमान पर्याप्त माना गया है)
- घटना का स्थल, उपस्थित लोग, getuvidence-प्रस्तुति प्रारंभिक तौर पर इस बात को दर्शाती हो कि अपमान सार्वजनिक रूप से हुआ।
- “सार्वजनिक दृश्य” की सार्थकता
- कार्यालय, दुकान, सार्वजनिक मार्ग, परिसर आदि जहाँ अन्य लोग मौजूद हों या उपस्थित हो सकते हों — यह पर्याप्त है। घर-भीतर मात्र चार-दीवारी में, यदि अन्य लोग नहीं थे, तो ‘पब्लिक दृश्य’ मानने में आपत्ति हुई है।
- न्यायालय ने उल्लेख किया है कि “in any place within public view” का अर्थ यह है कि उस स्थान को अन्य लोगों की दृष्टि-क्षेत्र में माना जा सके।
- प्रारंभिक प्रमाण (prima facie) का महत्व
- धारा 18 निषेध तभी पूर्ण रूप से लागू होगा जब FIR/मुकदमे के प्रारंभिक विवरणों से यह दिखता हो कि अपराध के अवयव हैं।
- यदि FIR में जात-उपहास का उल्लेख बहुत अस्पष्ट है, ज्ञान-स्थिति नहीं बताई गई, या सार्वजनिक दृश्य-तत्व नहीं पाया जाता, तो न्यायालय anticipatory bail देने की सम्भावना देखता है।
- अभियुक्त पक्ष के लिए सावधानियाँ
- FIR या प्रथम सूचना रिपोर्ट में जात-उपहास/अपमान का वर्णन सहीं तरह से होना चाहिए कि सार्वजनिक दृश्य और जात-लक्षित अपमान का संकेत हो।
- यदि अभियुक्त को यह पता नहीं था कि शिकायतकर्ता SC/ ST वर्ग में आती है, तो यह तर्क-बहस बचाव में उपयोगी हो सकती है।
- कार्यालय/सहकर्मी-माहौल, अन्य गवाहों की उपस्थिति आदि पर विशेष ध्यान देना होगा।
- अग्रिम जमानत का आवेदन करते समय यह तर्क देना होगा कि अपराध अधिनियम के तहत prima facie नहीं बनता — अर्थात् जात-उपहास का तात्पर्य अस्पष्ट है, सार्वजनिक दृश्य नहीं है, आदि।
- अभियोजन पक्ष के दृष्टिकोण
- जात-उपहास के स्पष्ट शब्द (जात-नाम) का उपयोग होना, अपमान के समय अन्य व्यक्तियों का उपस्थित होना, आरोपी द्वारा शिकायतकर्ता को उसकी जाति-स्थिति से अधीन समझना या धमकाना — ये सब मामलों को अधिनियम के अंतर्गत लाने में सहायता करते हैं।
- FIR में इन तथ्यों का प्रारंभिक उल्लेख होना समर्थक साबित होता है।
- न्यायालय के समक्ष यह प्रस्तुत करना होगा कि अग्रिम जमानत मिलने से अभियुक्त द्वारा गवाहों को प्रभावित करने, साक्ष्यों को मिटाने या पीड़ित को डराने का खतरा है — इसी आधार पर धारा 18 का उद्देश्य स्पष्ट होता है।
नीति-प्रसंग एवं सामाजिक प्रभाव
- SC/ST Atrocities Act का मूल उद्देश्य सामाजिक व न्यायसामग्री असमानता को दूर करना तथा अनुसूचित जाति-जनजाति समुदायों को संरक्षण देना है। धारा 18 का निषेध यह सुनिश्चित करने का एक तरीका है कि अभियुक्त गिरफ्तारी से पूर्व जमानत न लेकर प्रक्रिया को प्रभावित न कर सके।
- हालाँकि, जैसे न्यायालयों ने स्पष्ट किया है, कानून का दुरुपयोग होने का जोखिम भी है — अर्थात् बिना पर्याप्त तथ्य-आधार के FIR दर्ज करना, आरोप का राजनीतिक/स्वार्थगत इस्तेमाल करना। इसलिए, prima facie परीक्षण तथा न्यायालय की विवेक-शक्ति महत्वपूर्ण हो जाती है।
- इस संदर्भ में P&H HC जैसे न्यायालयों द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है कि صرف “धारा 18 निषेध है” कह देना पर्याप्त नहीं — न्यायालय को विवेचना करनी होगी कि वास्तविकता में अपराध की शुरुआत हुई है या नहीं। इससे न्यायिक संतुलन बैठने में मदद मिलती है।
- व्यापक दृष्टि से, यह एक सुसंगत संदेश देता है कि सामाजिक न्याय-विधान और अभियुक्त के संरक्षण के सिद्धांतों के बीच संतुलन आवश्यक है।
निष्कर्ष
इस प्रकार, यदि निम्नलिखित तीन प्रमुख तत्व स्पष्ट रूप से मिल जाएँ, तो धारा 18 का निषेध (anticipatory bail न मिलने का कारण) प्रभावी रूप से लागू माना जा सकता है:
- शिकायतकर्ता SC/ ST वर्ग का सदस्य हो और अभियुक्त को (या FIR विवरण से अनुमान हो) उसकी जात-स्थिति का पता हो।
- अभियुक्त ने जात-नाम से अपमानित या ताड़ित किया हो, अर्थात् उपहास-भाषा का उपयोग उस जात-स्थिति के कारण किया गया हो।
- वह अपमान-तथाड़ना सार्वजनिक दृश्य-क्षेत्र में हुआ हो (सहकर्मी उपस्थित हों, कार्यालय/दुकान/सार्वजनिक परिसर आदि)।
अगर इन में से किसी-एक भी घटक कमज़ोर है — जैसे कि सार्वजनिक दृश्य नहीं था, या जात-उपहास स्पष्ट नहीं था, या अभियुक्त को जात-स्थिति का पता नहीं था — तो न्यायालय अग्रिम जमानत की संभावना पर पुनर्विचार कर सकता है, और धारा 18 निषेध पूर्णतः नहीं लगेगा।
विशेष रूप से, P&H HC का निर्णय यह बताता है कि कार्यालय-स्थान में सहकर्मी उपस्थित होने पर भी सार्वजनिक दृश्य माना गया है, तथा जात-उपहास का सीधा प्रयोग (‘मज़हबी’ शब्द) पर्याप्त माना गया है।