शीर्षक:
“जांच आदेश मैकेनिकल रूप से नहीं दिया जा सकता, मजिस्ट्रेट को विचार करना आवश्यक: दिल्ली कोर्ट”
लंबा लेख:
नई दिल्ली। दिल्ली की एक अदालत ने एक अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि आपराधिक मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का आदेश (Investigation Order) ‘मैकेनिकल’ यानी केवल औपचारिक रूप से नहीं दिया जा सकता। मजिस्ट्रेट को विवेक और सोच-विचार के साथ तथ्यों का विश्लेषण करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि प्रथम दृष्टया जांच की आवश्यकता है या नहीं।
अदालत ने यह निर्णय एक मामले की सुनवाई करते हुए दिया जिसमें शिकायतकर्ता ने धारा 156(3) CrPC (Code of Criminal Procedure) के तहत पुलिस जांच की मांग की थी। याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता देवाशीष ने यह दलील दी कि संबंधित मजिस्ट्रेट ने बिना उचित कारण बताए और बिना प्रथम दृष्टया विचार किए, जांच के आदेश जारी कर दिए।
अदालत का अवलोकन:
अदालत ने अपने निर्णय में कहा कि जब कोई वादी धारा 156(3) CrPC के अंतर्गत जांच की मांग करता है, तो मजिस्ट्रेट का यह कर्तव्य होता है कि वह याचिका पर सोच-समझकर निर्णय ले। केवल याचिका दाखिल हो जाने मात्र से जांच का आदेश देना कानून की भावना के विपरीत है। जांच का आदेश देना एक ‘न्यायिक निर्णय’ है, और मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग कर यह तय करना चाहिए कि क्या पुलिस जांच की आवश्यकता है।
फैसले में कहा गया:
“मजिस्ट्रेट को कानून के अनुसार ‘माइंड अप्लाई’ करना अनिवार्य है। अगर जांच का आदेश केवल आवेदन देखकर और तथ्यों की गहराई में जाए बिना दे दिया जाए, तो यह न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।”
पृष्ठभूमि और महत्त्व:
यह निर्णय न्यायिक प्रणाली में जांच आदेशों की गंभीरता को रेखांकित करता है। धारा 156(3) का उद्देश्य पीड़ित पक्ष को राहत देना है, परंतु इस प्रावधान का उपयोग केवल ठोस आधार और साक्ष्य के साथ ही किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
दिल्ली कोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि मजिस्ट्रेट की भूमिका केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि न्यायिक है। यदि मजिस्ट्रेट जांच का आदेश दे रहे हैं, तो उन्हें आवेदन के तथ्यों, परिस्थितियों, और उपलब्ध साक्ष्यों का गंभीरता से परीक्षण करना होगा। इस फैसले से यह संदेश जाता है कि न्यायिक आदेशों में विवेक और निष्पक्षता सर्वोपरि है, और “मैकेनिकल” निर्णय विधि के उद्देश्यों को विफल कर सकते हैं।