“जस्टिस वर्मा केस की रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होगी: सुप्रीम कोर्ट ने कहा—विश्वास आधारित सूचना का प्रकटीकरण नहीं हो सकता”
प्रस्तावना
देश की न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर समय-समय पर उठने वाली बहस के बीच, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला दिया है। यह फैसला उस आरटीआई याचिका से संबंधित था, जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ जांच रिपोर्ट और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजे गए पत्र को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि ऐसी रिपोर्ट और पत्र संसदीय विशेषाधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं तथा विश्वास आधारित गोपनीय सूचनाओं का प्रकटीकरण तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि सक्षम प्राधिकारी यह न माने कि यह “जनहित में आवश्यक” है।
पृष्ठभूमि: मामला क्या था
इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास से भारी मात्रा में नकदी मिलने की खबरें सामने आईं। इस मामले की जांच के लिए तीन जजों की एक समिति गठित की गई थी। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट चार मई 2024 को तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना को सौंपी थी।
रिपोर्ट में कथित रूप से जस्टिस वर्मा को दोषी ठहराए जाने का उल्लेख था और सीजेआई ने यह रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भेजी थी ताकि आगे की कार्रवाई जैसे महाभियोग की सिफारिश की जा सके।
इसके बाद एक आरटीआई आवेदन दायर किया गया, जिसमें दो प्रमुख सूचनाएँ मांगी गईं—
- जांच समिति की पूरी रिपोर्ट की प्रति।
- तत्कालीन सीजेआई द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजे गए पत्र की प्रति।
सीपीआईओ का जवाब और आरटीआई खारिज करने का आधार
सुप्रीम कोर्ट के केंद्रीय जन सूचना अधिकारी (C.P.I.O.) ने इस आरटीआई को खारिज कर दिया।
उन्होंने अपने आदेश में कहा कि—
- यह सूचना विश्वास और गोपनीयता पर आधारित है,
- इसका खुलासा करना संसदीय विशेषाधिकारों का उल्लंघन कर सकता है,
- और जब तक यह स्पष्ट रूप से बड़े सार्वजनिक हित में आवश्यक न माना जाए, तब तक ऐसी जानकारी साझा नहीं की जा सकती।
सीपीआईओ ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 (RTI Act) की धारा 8(1)(e) और 8(1)(j) का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि ऐसी जानकारी जो किसी व्यक्ति के निजी हित, फिड्युशियरी (विश्वास) संबंधों, या व्यक्तिगत निजता से जुड़ी हो, उसे साझा नहीं किया जा सकता—जब तक कि उसका बड़ा सार्वजनिक हित न हो।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने सीपीआईओ के इस निर्णय को सही ठहराया और अर्जी को खारिज कर दिया।
कोर्ट ने कहा—
“न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच विश्वास पर आधारित सूचनाओं को तब तक सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, जब तक कि सक्षम प्राधिकारी यह न माने कि इससे जनहित की सेवा होगी। अन्यथा यह संस्थागत गोपनीयता और संसदीय विशेषाधिकारों के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी रिपोर्टें न्यायिक अनुशासनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा होती हैं और इनका प्रकटीकरण न्यायिक स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है।
इसलिए इन्हें सार्वजनिक डोमेन में लाना न्यायिक प्रशासन के लिए अनुचित होगा।
कानूनी दृष्टिकोण से विश्लेषण
यह फैसला RTI अधिनियम और न्यायिक गोपनीयता के बीच संतुलन की दिशा में महत्वपूर्ण है।
RTI Act, 2005 का उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना है, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करना है कि संवेदनशील या गोपनीय सूचनाएं, जिनसे संस्थागत विश्वास या गोपनीय प्रक्रिया प्रभावित होती है, उजागर न हों।
- धारा 8(1)(e): फिड्युशियरी संबंधों में प्राप्त जानकारी के खुलासे पर रोक लगाती है।
- धारा 8(1)(j): ऐसी निजी जानकारी, जिसका किसी सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध नहीं, या जिसका खुलासा किसी व्यक्ति की निजता का उल्लंघन कर सकता है, उसे साझा नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों धाराओं की भावना को ध्यान में रखते हुए यह फैसला सुनाया।
न्यायिक स्वतंत्रता बनाम पारदर्शिता
यह मामला न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) और पारदर्शिता (Transparency) के बीच की महीन रेखा को भी उजागर करता है।
एक ओर RTI कानून का उद्देश्य जनता को सूचना तक पहुंच देना है, तो दूसरी ओर न्यायपालिका यह सुनिश्चित करना चाहती है कि न्यायाधीशों की अनुशासनात्मक जांचें गोपनीय रहें, ताकि जांच प्रक्रिया पर बाहरी दबाव न पड़े।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका में जवाबदेही की दिशा में आंतरिक सुधार तंत्र की जरूरत है, लेकिन यह भी आवश्यक है कि संवेदनशील रिपोर्टें बिना जांच पूरी हुए सार्वजनिक न हों, ताकि न्याय की प्रक्रिया प्रभावित न हो।
संभावित प्रभाव
इस फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि—
- किसी न्यायाधीश के खिलाफ आंतरिक जांच रिपोर्टें या अनुशासनात्मक सिफारिशें, जब तक उन पर कोई औपचारिक कार्रवाई या संसद में महाभियोग प्रक्रिया न शुरू हो,
सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं। - RTI के माध्यम से ऐसी रिपोर्टें मांगना अब और कठिन हो जाएगा।
- इससे न्यायपालिका के गोपनीयता के अधिकार को मजबूती मिली है, लेकिन पारदर्शिता के पक्षधर वर्ग के लिए यह एक झटका साबित हुआ है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायपालिका की संवेदनशील संस्थागत प्रकृति को ध्यान में रखकर दिया गया है।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि न्यायाधीशों की जांच से जुड़ी रिपोर्टें और उच्चाधिकारियों के बीच का संवाद तब तक सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, जब तक कि यह बड़े जनहित में न हो।
यह फैसला एक बार फिर इस सवाल को सामने लाता है कि—
“क्या न्यायिक पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता एक-दूसरे के पूरक हैं या विरोधी?”
इसका उत्तर शायद यही है कि दोनों के बीच संतुलन बनाए रखना ही न्याय व्यवस्था की गरिमा और विश्वसनीयता की कुंजी है।