जलवायु न्याय और विधिक परिप्रेक्ष्य : एक विस्तृत अध्ययन
प्रस्तावना
जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय से जुड़ा मुद्दा भी है। “जलवायु न्याय” (Climate Justice) का विचार इस तथ्य को रेखांकित करता है कि जलवायु परिवर्तन का असर सभी पर समान रूप से नहीं पड़ता। गरीब, हाशिए पर रहने वाले समुदाय और विकासशील देश इसके प्रभावों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं, जबकि प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन के लिए मुख्यतः विकसित देश जिम्मेदार हैं। इस असमानता को दूर करने और न्याय सुनिश्चित करने के लिए विधिक ढाँचे और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है।
जलवायु न्याय का अर्थ और महत्व
जलवायु न्याय का आशय केवल पर्यावरण की रक्षा करना नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित लोगों को उचित संरक्षण, सहायता और क्षतिपूर्ति मिले। इसका महत्व इसलिए भी है क्योंकि –
- यह सामाजिक समानता और मानवाधिकार से जुड़ा है।
- गरीब देशों और समुदायों के जीवन व आजीविका पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।
- यह अंतरराष्ट्रीय सहयोग और जिम्मेदारी बाँटने का आधार प्रदान करता है।
- यह सतत विकास और पर्यावरणीय लोकतंत्र का मूल तत्व है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु न्याय के कानूनी प्रयास
जलवायु न्याय को अंतरराष्ट्रीय कानूनों और समझौतों में विशेष महत्व दिया गया है –
- संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC, 1992) – इसमें “सामान्य लेकिन भिन्न दायित्व” (Common but Differentiated Responsibilities) का सिद्धांत स्वीकार किया गया, जिससे विकसित और विकासशील देशों की जिम्मेदारियों में अंतर तय हुआ।
- क्योटो प्रोटोकॉल (1997) – विकसित देशों को कार्बन कटौती की बाध्यता दी गई।
- पेरिस समझौता (2015) – सभी देशों को जलवायु लक्ष्यों के लिए बाध्य किया गया, लेकिन वित्तीय और तकनीकी सहयोग पर विशेष बल दिया गया ताकि विकासशील देशों को मदद मिल सके।
- जलवायु वित्त (Climate Finance) – विकसित देशों को 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए देने का संकल्प।
भारत में जलवायु न्याय और कानूनी ढाँचा
भारत जैसे विकासशील देश में जलवायु न्याय का प्रश्न और भी जटिल है। यहाँ बड़ी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है और कृषि, जल संसाधन तथा वनों पर निर्भर है।
(1) संवैधानिक आधार
- अनुच्छेद 21: जीवन का अधिकार, जिसमें स्वच्छ पर्यावरण शामिल है।
- अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार – पर्यावरणीय क्षति से सभी को समान सुरक्षा मिलनी चाहिए।
- अनुच्छेद 48-ए और 51-ए(g): पर्यावरण की रक्षा के राज्य और नागरिक कर्तव्य।
(2) प्रमुख कानून
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010।
- जैव विविधता अधिनियम, 2002।
- आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005।
(3) न्यायिक व्याख्या
भारतीय न्यायपालिका ने जलवायु न्याय को मानवाधिकारों से जोड़ते हुए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिए –
- एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ – पर्यावरण संरक्षण जीवन के अधिकार का हिस्सा है।
- वेल्लोर सिटीजंस वेलफेयर फोरम (1996) – सतत विकास और “प्रदूषक भुगतान करे” सिद्धांत को मान्यता।
- टी.एन. गोडावर्मन मामला – वनों की सुरक्षा और जलवायु संरक्षण पर बल।
जलवायु न्याय और सामाजिक-आर्थिक असमानता
जलवायु परिवर्तन से गरीब किसान, आदिवासी और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। सूखा, बाढ़, चक्रवात और समुद्र स्तर में वृद्धि उनके जीवन और आजीविका को खतरे में डालते हैं। दूसरी ओर, धनी वर्ग और विकसित देश अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं। यही असमानता जलवायु न्याय की नींव है।
जलवायु वित्त और तकनीकी सहयोग
विकसित देशों का दायित्व है कि वे विकासशील देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता दें ताकि वे जलवायु परिवर्तन से निपट सकें। “ग्रीन क्लाइमेट फंड” (Green Climate Fund) इसी उद्देश्य से बनाया गया है। भारत जैसे देशों के लिए यह सहयोग अनिवार्य है क्योंकि स्वच्छ ऊर्जा और आधुनिक तकनीक में भारी निवेश की आवश्यकता होती है।
चुनौतियाँ
- कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन – कई बार नीतियाँ बनती हैं लेकिन लागू नहीं होतीं।
- विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद – वित्तीय सहयोग और जिम्मेदारी बाँटने पर असहमति।
- स्थानीय स्तर पर जागरूकता की कमी – नागरिक समाज का सहयोग सीमित।
- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव – आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी जाती है।
- प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती घटनाएँ – न्याय और क्षतिपूर्ति का सवाल जटिल बनता है।
समाधान और आगे की राह
- कानूनों का कड़ाई से पालन – पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कठोर दंड।
- जन भागीदारी – नागरिकों को जलवायु न्याय की प्रक्रिया में शामिल करना।
- विकसित देशों की जिम्मेदारी – वित्तीय व तकनीकी सहयोग में पारदर्शिता।
- न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका – पीड़ितों को शीघ्र न्याय और क्षतिपूर्ति।
- ग्रीन रोजगार और शिक्षा – हरित उद्योगों में रोजगार और जलवायु शिक्षा का विस्तार।
- अंतरराष्ट्रीय सहयोग – साझा अनुसंधान और तकनीकी साझेदारी।
निष्कर्ष
जलवायु न्याय केवल पर्यावरण संरक्षण का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और वैश्विक समानता का प्रश्न भी है। भारत जैसे देश के लिए यह आवश्यक है कि कानूनों, नीतियों और न्यायिक आदेशों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन से प्रभावित समुदायों की रक्षा की जाए। साथ ही, विकसित देशों को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। जब तक वैश्विक स्तर पर समानता और सहयोग स्थापित नहीं होगा, तब तक जलवायु न्याय अधूरा रहेगा। अतः जलवायु न्याय की अवधारणा हमें यह सिखाती है कि पर्यावरणीय सुरक्षा केवल धरती की रक्षा नहीं बल्कि मानवता और भविष्य की पीढ़ियों की रक्षा भी है।
1. जलवायु न्याय से आप क्या समझते हैं?
जलवायु न्याय (Climate Justice) का अर्थ है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और उसके समाधान में समानता और न्याय सुनिश्चित किया जाए। इसका आधार यह है कि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित गरीब, आदिवासी और विकासशील देश हैं, जबकि उत्सर्जन के लिए मुख्य रूप से विकसित देश जिम्मेदार हैं। इसलिए न्याय की दृष्टि से जिम्मेदार देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता देकर पीड़ितों को राहत देनी चाहिए।
2. “समान लेकिन भिन्न दायित्व” सिद्धांत क्या है?
यह सिद्धांत संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC, 1992) में अपनाया गया। इसके अनुसार सभी देशों की जिम्मेदारी है कि वे जलवायु परिवर्तन से निपटें, लेकिन विकसित देशों की जिम्मेदारी अधिक होगी क्योंकि उन्होंने ऐतिहासिक रूप से अधिक प्रदूषण किया है। वहीं विकासशील देशों को विकास की आवश्यकता के कारण कुछ छूट दी गई।
3. भारतीय संविधान में जलवायु न्याय का आधार कैसे मिलता है?
भारतीय संविधान में कई प्रावधान जलवायु न्याय को आधार देते हैं। अनुच्छेद 21 जीवन के अधिकार में स्वच्छ पर्यावरण को शामिल करता है। अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की गारंटी देता है। अनुच्छेद 48-ए राज्य को पर्यावरण संरक्षण का निर्देश देता है और अनुच्छेद 51-ए(g) नागरिकों को पर्यावरण संरक्षण का कर्तव्य सौंपता है। ये सभी मिलकर जलवायु न्याय की संवैधानिक नींव बनाते हैं।
4. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) की भूमिका जलवायु न्याय में क्या है?
NGT की स्थापना 2010 में हुई। इसका उद्देश्य पर्यावरणीय विवादों का त्वरित निपटारा और पीड़ितों को क्षतिपूर्ति देना है। जलवायु न्याय की दृष्टि से NGT एक सशक्त मंच है जहाँ गरीब और प्रभावित वर्ग सस्ती व शीघ्र न्याय प्राप्त कर सकते हैं। इसके कई फैसलों ने प्रदूषण नियंत्रण, वन संरक्षण और कार्बन कटौती को मजबूत किया है।
5. न्यायपालिका ने जलवायु न्याय को कैसे परिभाषित किया है?
भारतीय न्यायपालिका ने कई मामलों में जलवायु न्याय को मानवाधिकारों से जोड़ा है। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) में स्वच्छ पर्यावरण को मौलिक अधिकार माना गया। वेल्लोर सिटीजंस वेलफेयर फोरम (1996) में “सतत विकास” और “प्रदूषक भुगतान करे” सिद्धांत को मान्यता दी गई। इन निर्णयों ने जलवायु न्याय को कानूनी आधार प्रदान किया।
6. जलवायु वित्त का महत्व क्या है?
जलवायु वित्त का तात्पर्य है कि विकसित देश विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वित्तीय सहयोग दें। पेरिस समझौते के तहत विकसित देशों ने प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर देने का वादा किया। भारत जैसे देशों के लिए यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्षय ऊर्जा, हरित तकनीक और अनुकूलन उपायों में भारी निवेश की आवश्यकता होती है।
7. जलवायु न्याय और सामाजिक समानता का क्या संबंध है?
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सभी पर समान नहीं पड़ता। गरीब किसान, आदिवासी, महिलाएँ और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग अधिक प्रभावित होते हैं। जबकि धनी वर्ग के पास अनुकूलन के साधन होते हैं। इसलिए जलवायु न्याय सामाजिक समानता से जुड़ा है, ताकि कमजोर वर्ग को संरक्षण, सहायता और क्षतिपूर्ति दी जा सके।
8. भारत में जलवायु न्याय से संबंधित प्रमुख कानून कौन-कौन से हैं?
भारत में कई कानून जलवायु न्याय से जुड़े हैं, जैसे – पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986; राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010; जैव विविधता अधिनियम, 2002; और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005। ये कानून प्रदूषण नियंत्रण, पर्यावरणीय क्षति की भरपाई, प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा और आपदा प्रबंधन से संबंधित हैं।
9. जलवायु न्याय के सामने प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
प्रमुख चुनौतियों में कानूनों का कमजोर क्रियान्वयन, विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच मतभेद, वित्तीय संसाधनों की कमी, स्थानीय स्तर पर जागरूकता का अभाव, और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती घटनाएँ न्याय और क्षतिपूर्ति के प्रश्न को और जटिल बना देती हैं।
10. जलवायु न्याय को प्रभावी बनाने के उपाय क्या हैं?
इसके लिए कानूनों का सख्त प्रवर्तन, जनभागीदारी, विकसित देशों की वित्तीय जिम्मेदारी, ग्रीन रोजगार का सृजन, शिक्षा और जागरूकता का प्रसार, तथा न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका आवश्यक है। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और स्वच्छ तकनीक का हस्तांतरण भी जलवायु न्याय को प्रभावी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।