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जमानत का अधिकार पुनरावर्ती और मौलिक: पूर्व याचिका की स्थिति नई याचिका की ग्राह्यता को प्रभावित नहीं करती

“पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय — जमानत का अधिकार पुनरावर्ती और मौलिक: पूर्व याचिका की स्थिति नई याचिका की ग्राह्यता को प्रभावित नहीं करती”


🔹 प्रस्तावना

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में जमानत (Bail) एक ऐसा संवैधानिक और विधिक अधिकार है, जो व्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय के संतुलन का प्रतीक है। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है, और इसी अधिकार की व्यावहारिक अभिव्यक्ति जमानत के सिद्धांत में निहित है।

हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय (Punjab & Haryana High Court) ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि —

यदि कोई आरोपी पहले जमानत याचिका वापस ले चुका है, उसे न चला सका है, अभियोजन के अभाव में याचिका खारिज हो चुकी है, या यहां तक कि याचिका गुण-दोष (on merits) पर अस्वीकृत की गई है — तब भी वह पुनः जमानत याचिका दायर कर सकता है।

यह निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था में जमानत के अधिकार की पुनरावर्ती (recurring) और मौलिक (substantive) प्रकृति को रेखांकित करता है।


🔹 प्रकरण की पृष्ठभूमि

मामला एक ऐसे अभियुक्त से संबंधित था, जिसकी पहली जमानत याचिका किसी कारणवश या तो वापस ली गई थी या न चल पाई थी, और बाद में अभियोजन पक्ष की अनुपस्थिति या अन्य कारणों से खारिज कर दी गई थी। अभियुक्त ने परिस्थितियों में बदलाव (change in circumstances) और लंबित न्यायिक प्रक्रिया का हवाला देते हुए द्वितीय जमानत याचिका प्रस्तुत की।

अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि —

“एक बार याचिका खारिज हो जाने के बाद, नई याचिका दायर नहीं की जा सकती।”

लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि जमानत का अधिकार एक बार इस्तेमाल करने से समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि यह हर चरण में पुनः प्रयोग योग्य है।


🔹 न्यायालय का विश्लेषण (Judicial Reasoning)

न्यायमूर्ति की एकल पीठ ने भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) की प्रासंगिक धाराओं का उल्लेख किया, विशेष रूप से:

  • धारा 483 (BNSS) — जमानत से संबंधित न्यायालय की शक्तियाँ,
  • धारा 310(2) — अभियुक्त के अधिकार,
  • धारा 251(b) — मजिस्ट्रेट द्वारा सुनवाई के चरण में अधिकार,
  • धारा 190 और 191(3) — संज्ञान और अभियोजन की प्रक्रिया,
  • धारा 115 और 238 — न्यायालय की विवेकाधीन शक्तियाँ,
  • धारा 140(3) — अभियुक्त की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण।

इन धाराओं की समग्र व्याख्या करते हुए न्यायालय ने कहा कि —

“जमानत माँगने का अधिकार अभियुक्त को प्रत्येक चरण में उपलब्ध एक पुनरावर्ती और मौलिक अधिकार है। न्यायिक विवेकाधिकार का प्रयोग परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग किया जाना चाहिए।”


🔹 निर्णय का मुख्य सार (Core Holding)

न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा:

“Subsequent bail petition is maintainable irrespective of the status of the earlier petition.”

अर्थात —

“पूर्व जमानत याचिका की स्थिति चाहे जो भी रही हो — वापस ली गई, न चलाई गई, अभियोजन के अभाव में खारिज, या गुण-दोष पर अस्वीकृत — द्वितीय याचिका ग्राह्य रहेगी।”

इस प्रकार, अदालत ने यह सिद्ध किया कि —

  • जमानत का अधिकार एक बार का अवसर नहीं है,
  • बल्कि यह निरंतर चलने वाला संवैधानिक अधिकार है,
  • जो प्रत्येक नए तथ्य, परिस्थिति या समय के साथ पुनः परीक्षण योग्य है।

🔹 न्यायालय का तर्क (Judicial Rationale)

  1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण:
    न्यायालय ने कहा कि भारत का संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोच्च मान देता है। जब तक अभियुक्त को दोषी सिद्ध नहीं किया जाता, तब तक उसे “presumed innocent” माना जाता है। अतः उसे बार-बार जमानत माँगने का अवसर मिलना चाहिए।
  2. परिस्थितियों में परिवर्तन (Change in Circumstances):
    अदालत ने माना कि समय के साथ मामले की परिस्थितियाँ बदल सकती हैं —
    जैसे कि

    • लंबा समय बीत जाना,
    • आरोप पत्र दायर होना,
    • गवाहों की जाँच पूरी होना,
    • स्वास्थ्य की स्थिति में बदलाव,
    • या अभियोजन के प्रमाण कमजोर होना।
      इन परिवर्तनों के आधार पर नई याचिका का पुनः परीक्षण न्यायोचित है।
  3. प्रक्रियात्मक न्याय (Procedural Justice):
    अदालत ने कहा कि यदि किसी आरोपी को केवल “पहली याचिका वापस लेने” के कारण दोबारा जमानत माँगने से रोका जाए, तो यह न्याय से वंचन (denial of justice) होगा।

🔹 सुप्रीम कोर्ट के संदर्भ

यह निर्णय कई सुप्रीम कोर्ट के पुराने निर्णयों की भावना से मेल खाता है, जैसे —

  1. Kalyan Chandra Sarkar v. Rajesh Ranjan (2004) 7 SCC 528
    • सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नई परिस्थितियों के उद्भव पर पुनः जमानत याचिका दायर की जा सकती है।
  2. Raghuvansh Dewanchand Bhasin v. State of Maharashtra (2012) 9 SCC 791
    • अदालत ने माना कि “जमानत के अधिकार को एक बार प्रयोग करने से अभियुक्त के अधिकार समाप्त नहीं होते।”
  3. Arnesh Kumar v. State of Bihar (2014) 8 SCC 273
    • सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और न्यायालयों को निर्देश दिया कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का सम्मान सर्वोपरि है।

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने इन्हीं निर्णयों की पृष्ठभूमि में कहा कि —

“जमानत का अधिकार किसी तकनीकी अड़चन से सीमित नहीं किया जा सकता।”


🔹 न्यायालय की टिप्पणी

न्यायालय ने अपने निर्णय में महत्वपूर्ण अवलोकन किया:

“यदि अदालत केवल इस आधार पर नई जमानत याचिका को अस्वीकार कर दे कि पूर्व याचिका निस्तारित हो चुकी है, तो यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। अभियुक्त का प्रत्येक याचिका में सुनवाई का अधिकार एक सतत (continuous) और न्यायसंगत अधिकार है।”

न्यायालय ने यह भी कहा कि —

“हर जमानत याचिका को स्वतंत्र रूप से, वर्तमान परिस्थितियों और तथ्यों के आलोक में परखा जाना चाहिए।”


🔹 निर्णय का प्रभाव (Impact of the Judgment)

  1. व्यावहारिक स्वतंत्रता का संरक्षण:
    अब अभियुक्तों को यह स्पष्ट कानूनी संरक्षण प्राप्त होगा कि उनकी जमानत याचिका किसी तकनीकी आधार पर अस्वीकृत नहीं की जा सकती।
  2. न्यायिक विवेकाधिकार को सुदृढ़ करना:
    अदालतों को प्रत्येक याचिका का स्वतंत्र मूल्यांकन करने की जिम्मेदारी दी गई है, जिससे न्यायिक विवेक का दायरा और व्यापक होगा।
  3. मुकदमों की प्रक्रिया में सरलता:
    बार-बार जमानत याचिका दाखिल करने को अब अवैध या अनुचित नहीं माना जाएगा, जिससे अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा होगी।
  4. संविधानिक मूल्यों की पुनः पुष्टि:
    यह निर्णय “Bail, not Jail” की न्यायिक परंपरा को मजबूती प्रदान करता है।

🔹 विश्लेषण: क्यों यह निर्णय मील का पत्थर है

🔸 पहला, यह निर्णय न्यायिक प्रणाली में मानवाधिकारों की सर्वोच्चता को स्थापित करता है।
🔸 दूसरा, यह बताता है कि तकनीकी त्रुटियाँ या प्रक्रिया संबंधी कारणों से किसी की स्वतंत्रता सीमित नहीं की जा सकती।
🔸 तीसरा, यह उन मामलों में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा जहाँ पहली याचिका जल्दबाज़ी में दायर या वापस ले ली गई थी।
🔸 चौथा, यह निर्णय BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) और BNS (भारतीय न्याय संहिता) के नये प्रावधानों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के सिद्धांत से जोड़ता है।


🔹 न्यायिक टिप्पणी का दार्शनिक पक्ष

अदालत ने यह भी कहा कि —

“व्यक्तिगत स्वतंत्रता लोकतंत्र की आत्मा है। एक व्यक्ति को उसके अपराध सिद्ध हुए बिना बार-बार कारावास में रखना, विधि के शासन की आत्मा के विपरीत है।”

इस कथन के माध्यम से अदालत ने यह संदेश दिया कि जमानत केवल कानूनी औपचारिकता नहीं बल्कि मानवीय गरिमा का प्रश्न है।


🔹 निष्कर्ष

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर (landmark judgment) है।
यह न केवल जमानत कानून की व्याख्या को आधुनिक दृष्टिकोण देता है, बल्कि संविधान की आत्मा — व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और न्याय — को भी पुनर्स्थापित करता है।

अब यह स्थापित हो गया है कि —

“जमानत का अधिकार समाप्त नहीं होता, चाहे याचिका कितनी बार खारिज या वापस ली गई हो।”

प्रत्येक याचिका को न्यायालय वर्तमान परिस्थितियों, साक्ष्यों और अभियोजन की प्रगति के आधार पर स्वतंत्र रूप से देखेगा।


🔹 उपसंहार

यह निर्णय उन सभी अभियुक्तों और वकीलों के लिए मार्गदर्शक है, जो यह मानते हैं कि न्याय केवल एक अवसर से सीमित नहीं है।
न्यायालय ने सिद्ध किया है कि —

“कानून का उद्देश्य दंड नहीं, बल्कि न्याय है — और न्याय की नींव स्वतंत्रता पर टिकी है।”