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“जमानती की जिम्मेदारी और दंड में राहत: लभ सिंह बनाम पंजाब राज्य (Labh Singh vs State of Punjab, 2025)”

“जमानती की जिम्मेदारी और दंड में राहत: लभ सिंह बनाम पंजाब राज्य (Labh Singh vs State of Punjab, 2025)”


भूमिका

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – Cr.P.C.) की धारा 446 जमानतदार (Surety) की जिम्मेदारी और उसके उल्लंघन की स्थिति में दंड से संबंधित है। जब कोई व्यक्ति किसी आरोपी के लिए जमानत देता है, तो वह यह वचन देता है कि आरोपी अदालत में उपस्थित रहेगा। लेकिन यदि आरोपी फरार हो जाता है या अदालत में उपस्थित नहीं होता, तो जमानतदार को अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने Labh Singh vs State of Punjab, CRA-S-2368-2006 (O&M), 2025 मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि जमानतदार की ओर से कोई मिलीभगत या जानबूझकर गलती नहीं पाई जाती, तो दंड की राशि को घटाया जा सकता है। यह फैसला न्याय और विवेक का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ अदालत ने परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मानवीय दृष्टिकोण अपनाया।


मामले की पृष्ठभूमि

इस मामले में अपीलकर्ता लभ सिंह ने एक महिला आरोपी के लिए ₹50,000/- की जमानत दी थी। उक्त आरोपी NDPS Act की धारा 15 (Narcotic Drugs and Psychotropic Substances Act) के अंतर्गत आरोपित थी। अदालत ने आरोपी को जमानत पर रिहा किया, लेकिन बाद में आरोपी अदालत की कार्यवाही से अनुपस्थित रही।
इस अनुपस्थिति के कारण अदालत ने आरोपी की जमानत रद्द कर दी और जमानती राशि को धारा 446 Cr.P.C. के तहत जब्त (forfeited) करने का आदेश जारी किया। साथ ही, लभ सिंह को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया कि क्यों न उनसे पूरी राशि वसूल की जाए।

लभ सिंह ने तर्क दिया कि उन्हें आरोपी की अनुपस्थिति के बारे में कोई पूर्व जानकारी नहीं थी, न ही उन्होंने किसी प्रकार से आरोपी को अनुपस्थित रहने के लिए प्रेरित किया। वे स्वयं एक ईमानदार व्यक्ति हैं जिन्होंने केवल सामाजिक और मानवीय कारणों से जमानत दी थी।


मुख्य कानूनी प्रावधान – धारा 446 Cr.P.C.

धारा 446(1) के अनुसार, यदि अदालत यह पाती है कि कोई जमानती शर्त का उल्लंघन हुआ है, तो वह जमानती को नोटिस जारी कर कारण बताने का अवसर दे सकती है। यदि उत्तर संतोषजनक न हो, तो अदालत जमानती की राशि को जब्त कर सकती है।
हालांकि, उपधारा (2) अदालत को यह शक्ति देती है कि वह उचित कारणों को देखते हुए दंड की राशि को कम कर सकती है या पूरी तरह माफ भी कर सकती है।

इस प्रकार, धारा 446 का उद्देश्य जमानती को अनुचित दंड देना नहीं, बल्कि उसे उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराना है। यह प्रावधान न्यायिक विवेक का प्रयोग करने की अनुमति देता है ताकि ईमानदार जमानतदारों को अत्यधिक आर्थिक बोझ से बचाया जा सके।


न्यायालय का अवलोकन (Observations of the Court)

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने मामले की गहराई से जांच की और निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया:

  1. कोई मिलीभगत नहीं थी:
    अदालत ने पाया कि लभ सिंह और आरोपी के बीच किसी प्रकार की मिलीभगत (connivance) का कोई सबूत नहीं था।
  2. जानबूझकर लापरवाही नहीं:
    यह साबित नहीं हुआ कि जमानतदार ने जानबूझकर आरोपी को अदालत से अनुपस्थित रहने में मदद की या उसकी योजना के बारे में जानता था।
  3. सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर जमानत:
    जमानतदार ने आरोपी के लिए केवल सामाजिक और मानवीय आधार पर जमानत दी थी। उनके पास कोई आपराधिक उद्देश्य नहीं था।
  4. दंड में कमी का औचित्य:
    अदालत ने कहा कि जमानती का उद्देश्य दंड देना नहीं, बल्कि आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना होता है। अतः जब जमानतदार की नीयत और आचरण निर्दोष हो, तो पूरी राशि की वसूली अन्यायपूर्ण होगी।

इन कारणों से अदालत ने यह निर्णय दिया कि ₹50,000/- की पूरी राशि वसूल करना अत्यधिक कठोर कदम होगा। इसलिए दंड की राशि घटाकर ₹10,000/- कर दी गई।


निर्णय का कानूनी महत्व (Legal Significance)

इस निर्णय से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत सामने आते हैं:

  1. जमानतदार की जिम्मेदारी सीमित है:
    जमानतदार आरोपी की अदालत में उपस्थिति सुनिश्चित करता है, पर वह आरोपी के भागने के लिए हमेशा दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
  2. न्यायिक विवेक आवश्यक है:
    अदालत को प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के अनुसार विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए। हर अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं कि जमानतदार ने जानबूझकर गलती की।
  3. दंड का उद्देश्य सुधार है, सजा नहीं:
    दंड का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भविष्य में जमानतदार अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से लें, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि निर्दोष व्यक्ति पर अत्यधिक आर्थिक बोझ डाला जाए।
  4. मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए:
    अदालत ने इस मामले में मानवीय दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी और जमानतदार की ईमानदारी को ध्यान में रखा।

पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत (Precedents)

अदालत ने अपने निर्णय में कई पुराने मामलों का हवाला दिया, जिनमें यह सिद्धांत स्पष्ट हुआ कि जमानतदार को केवल तभी कठोर दंड दिया जा सकता है जब उसकी ओर से दुर्भावना, मिलीभगत या जानबूझकर लापरवाही सिद्ध हो।

उदाहरणस्वरूप:

  • State of Rajasthan v. Kailash Nath, AIR 1985 SC 551 — सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अदालत को जमानतदार की स्थिति को ध्यान में रखते हुए दंड की राशि तय करनी चाहिए।
  • Ram Lal v. State of Haryana, 2012 (4) RCR (Criminal) 1267 — इसमें कहा गया कि दंड की पूरी राशि जब्त करना तभी उचित है जब जमानतदार दोषपूर्ण आचरण में शामिल हो।

सामाजिक प्रभाव (Social Impact)

यह फैसला उन हजारों नागरिकों के लिए राहत का संदेश है जो दूसरों की मदद करने के उद्देश्य से जमानत देते हैं। अदालत ने स्पष्ट किया कि कानून मानवीय संवेदना से रहित नहीं है। जमानतदार की भूमिका समाज में विश्वास और जिम्मेदारी को बढ़ावा देती है। यदि ईमानदार जमानतदारों को अत्यधिक दंड दिया जाए, तो लोग भविष्य में किसी के लिए जमानत देने से हिचकिचाएँगे।

यह निर्णय समाज में “मानवीय न्याय” की अवधारणा को सुदृढ़ करता है — जहाँ कानून का उद्देश्य केवल दंड देना नहीं बल्कि न्यायसंगत संतुलन स्थापित करना होता है।


निष्कर्ष (Conclusion)

Labh Singh vs State of Punjab (2025) का फैसला भारतीय न्यायपालिका के उस विवेकपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है जहाँ न्याय केवल कानून के अक्षरों में नहीं, बल्कि उसकी भावना में खोजा जाता है। अदालत ने यह संदेश दिया कि जमानती की जिम्मेदारी का मूल्यांकन करते समय उसकी नीयत, परिस्थितियाँ और भूमिका का वस्तुनिष्ठ आकलन आवश्यक है।

₹50,000/- की जगह ₹10,000/- का दंड निर्धारित करना न केवल न्यायसंगत बल्कि विवेकपूर्ण निर्णय था। इस फैसले से यह सिद्ध हुआ कि न्यायपालिका कठोरता से अधिक विवेक और संवेदना को प्राथमिकता देती है।


लेखक का मत:
यह फैसला “न्याय की करुणा” का उत्कृष्ट उदाहरण है। कानून केवल दंड का उपकरण नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन और नैतिक जिम्मेदारी का रक्षक भी है। ऐसे निर्णय समाज में विश्वास, सहयोग और न्याय के मूल्यों को सुदृढ़ करते हैं।