“जब राज्य अपराध मानकर व्यक्ति को दोषी मान लेता है, तो शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करना भी उसका दायित्व है” — UAPA मामलों में देरी पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी, हाई कोर्टों को लंबित मुकदमों की निगरानी का निर्देश
प्रस्तावना
अवैध गतिविधि (निवारण) अधिनियम, 1967 — जिसे आमतौर पर UAPA के नाम से जाना जाता है — भारत का सबसे कठोर आतंकवाद-विरोधी कानून माना जाता है। इस कानून के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को जमानत मिलना अत्यंत कठिन होता है, और मुकदमे प्रायः वर्षों तक लंबित रहते हैं। इससे न केवल अभियुक्तों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हैं, बल्कि न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगते हैं।
इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि यदि राज्य किसी व्यक्ति को आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त मानकर कठोर प्रावधान लगा देता है, तो उसके लिए न्याय का मार्ग भी त्वरित और निष्पक्ष होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी कहा कि UAPA मामलों के ट्रायल में वर्षों की देरी न्याय की अवधारणा को गंभीर रूप से प्रभावित करती है।
सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के हाई कोर्टों को निर्देश दिया है कि वे अपने-अपने राज्यों में लंबित UAPA मामलों का नियमित रूप से निरीक्षण करें और यह सुनिश्चित करें कि ट्रायल तेजी से आगे बढ़े। यह टिप्पणी भारत में आतंकवाद-निरोधक कानूनों के लागू होने और उनके दुरुपयोग की संभावनाओं को लेकर चल रही बहस के बीच महत्वपूर्ण है।
मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले की पृष्ठभूमि उन कई अभियुक्तों से जुड़ी थी जो UAPA के तहत लंबे समय से जेल में बंद थे और जिनका ट्रायल कई वर्षों से शुरू ही नहीं हुआ था। कई मामलों में चार्जशीट दाखिल होने के बाद भी ट्रायल अदालतों के समक्ष साक्ष्य पेश नहीं किए गए थे, और कई बार अभियोजन (prosecution) द्वारा देरी की गई।
अभियुक्तों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते हुए कहा कि:
- वे 5–7 वर्षों से जेल में बंद हैं,
- ट्रायल या तो शुरू नहीं हुआ, या बमुश्किल आगे बढ़ रहा है,
- अभियोजन पक्ष (State) द्वारा बार-बार समय मांगने से देरी हो रही है,
- यह अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) का खुला उल्लंघन है।
UAPA की धारा 43(D)(5) जमानत को लगभग असंभव बनाती है, इसलिए ट्रायल में देरी न्याय का सीधा हनन है।
सुप्रीम कोर्ट की तीखी टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने राज्य सरकारों और अभियोजन एजेंसियों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा:
1. “यदि राज्य अभियुक्त को आतंकवादी करार देकर उससे कठोर कानून लागू करता है, तो उसका यह भी दायित्व है कि मुकदमे की सुनवाई शीघ्र पूरी करे।”
न्यायालय ने कहा कि UAPA के अंतर्गत आरोप अत्यंत गंभीर होते हैं, लेकिन केवल गंभीर आरोप होने से किसी व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक जेल में रखना न्यायसंगत नहीं हो सकता।
2. “स्पीडी ट्रायल (त्वरित सुनवाई) कोई विलासिता नहीं, बल्कि मौलिक अधिकार है।”
यह बात सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई निर्णयों में कह चुका है कि स्पीडी ट्रायल अनुच्छेद 21 का हिस्सा है।
लेकिन UAPA मामलों में यह अधिकार सबसे अधिक प्रभावित होता है।
3. “लंबित मामलों की संख्या चिंताजनक है — हाई कोर्ट स्वयं निगरानी करें।”
सुप्रीम कोर्ट ने सभी उच्च न्यायालयों को निम्न निर्देश दिए:
- अपने राज्य में लंबित UAPA मामलों की सूची तैयार करें,
- यह जांचें कि देरी का कारण क्या है — अदालतें, अभियोजन या जांच एजेंसियाँ,
- समयबद्ध योजना बनाकर ट्रायल को आगे बढ़ाएँ,
- लंबित मामलों पर नियमित सुनवाई और निगरानी सुनिश्चित करें।
4. “राज्य केवल ‘कठोर कानून’ थोपने तक सीमित नहीं रह सकता — न्याय सुनिश्चित करना भी उसकी जिम्मेदारी है।”
अदालत ने यह इंगित किया कि UAPA के मामलों में:
- अभियुक्त लंबी अवधि तक जेल में रहता है,
- लेकिन आखिर में कई मामलों में वह बरी भी हो जाता है।
यदि मुकदमे समय पर हो जाएँ, तो न्याय समय रहते मिल सकता है।
UAPA के तहत मुकदमों में देरी: समस्या कहाँ है?
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान उन कारणों पर भी विचार किया जिनकी वजह से UAPA ट्रायल लंबे समय तक लटके रहते हैं:
1. आरोपपत्र (Chargesheet) अत्यंत विस्तृत और जटिल
आमतौर पर UAPA मामलों में 20,000 से लेकर 50,000 पृष्ठों तक की चार्जशीट होती है, जिनका अध्ययन करने में महीनों लग जाते हैं।
2. गवाहों की अत्यधिक संख्या
ऐसे मामलों में:
- पुलिस अधिकारी
- खुफिया एजेंसी के अधिकारी
- तकनीकी विशेषज्ञ
- फॉरेंसिक विशेषज्ञ
आदि बड़ी संख्या में गवाह होते हैं। सभी गवाहों को समय पर बुलाना कठिन हो जाता है।
3. अभियोजन पक्ष की उदासीनता
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि कई मामलों में:
- अभियोजन समय पर गवाह प्रस्तुत नहीं करता,
- दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं कराता,
- तारीख पर समय मांगकर देरी करता है।
4. ट्रायल कोर्ट पर मामले का अत्यधिक भार
NIA कोर्ट और विशेष UAPA कोर्टों पर भारी संख्या में केस लंबित हैं, जिसके कारण सुनवाई नियमित रूप से नहीं हो पाती।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण: संतुलन ज़रूरी
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि:
- राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है,
- लेकिन न्याय प्रणाली में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भी अपनी जगह है।
इसलिए कोर्ट ने कहा:
“राज्य आतंकवाद से लड़ने के लिए कठोर कानून बना सकता है, लेकिन वह कानून न्यायिक प्रक्रिया को इसी कारण विलंबित करने का लाइसेंस नहीं देता।”
स्पीडी ट्रायल पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का संदर्भ
- हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य – स्पीडी ट्रायल को मौलिक अधिकार घोषित किया।
- कादरी बनाम भारत सरकार – कहा गया कि देरी से अभियुक्त के अधिकार प्रभावित होते हैं।
- वर्नोन गोंसाल्वेस और अरबिंदो तेलतुंबड़े मामलों में – UAPA मामलों में देरी को जमानत के आधार के रूप में माना गया।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान आदेश में इन सिद्धांतों को आगे बढ़ाया है।
फैसले के मुख्य निर्देश
- सभी हाई कोर्ट UAPA मामलों की राज्यवार निगरानी प्रणाली बनाएं।
- लंबित मामलों की स्थिति की रिपोर्ट नियमित रूप से तैयार करें।
- ट्रायल अदालतों को समयबद्ध दिशा-निर्देश जारी करें।
- अभियोजन में देरी होने पर जिम्मेदारी तय करें।
- विशेष अदालतों की संख्या बढ़ाने पर विचार करें।
- ट्रायल को प्राथमिकता के आधार पर आगे बढ़ाया जाए।
फैसले का महत्व
1. राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकार के बीच संतुलन की कोशिश
UAPA एक कठोर कानून है। इस फैसले से थोड़ा संतुलन आता है।
2. लंबित मुकदमों में तेजी आएगी
देशभर में सैकड़ों मामले वर्षों से बिना सुनवाई के लंबित हैं।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश इन मामलों में तेजी लाएंगे।
3. अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का संरक्षण
जब आरोपी जमानत तक नहीं पा सकता, तो ट्रायल का त्वरित संचालन ही उसका एकमात्र समाधान है।
4. न्यायिक जवाबदेही बढ़ेगी
हाई कोर्ट को निगरानी की जिम्मेदारी सौंपने से:
- ट्रायल अदालतें
- पुलिस
- अभियोजन
सभी अधिक जवाबदेह बनेंगे।
सुप्रीम कोर्ट की अंतिम टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा:
“राज्य किसी व्यक्ति को आतंकवादी करार देकर उसकी स्वतंत्रता को छीन सकता है, परंतु ऐसा करते समय यह सुनिश्चित करना होगा कि वह व्यक्ति न्याय से वंचित न हो। न्याय में देरी, न्याय से इनकार के समान है।”
यह टिप्पणी भारतीय न्याय व्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के प्रयोग पर न्यायालय की गहन संवेदनशीलता को दर्शाती है।
निष्कर्ष
यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में लंबित UAPA मामलों पर नई रोशनी डालता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई कठोर टिप्पणी और हाई कोर्टों को दिए गए निर्देश न केवल अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर न्याय की मूल भावना कमजोर न पड़े।
UAPA जैसे कठोर कानून में यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जो बताता है कि:
- अपराध की गंभीरता चाहे कितनी भी हो,
- लेकिन न्याय की प्रक्रिया निष्पक्ष और त्वरित होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का यह दृष्टिकोण संविधान की मूल आत्मा — न्याय, स्वतंत्रता और गरिमा — को बनाए रखने की महत्वपूर्ण कोशिश है।