लेख शीर्षक:
“जब्त वाहन की रिहाई के लिए उच्च न्यायालय का सीधा रुख अनुचित: सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय”
(Supreme Court: Direct Recourse to High Court under Article 226 for Release of Seized Vehicle Impermissible without Following CrPC Procedure)
भूमिका:
संपत्ति की जब्ती और उसकी रिहाई से संबंधित मामलों में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के प्रावधान विशेष महत्व रखते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया कि यदि कोई वाहन शराब के साथ जब्त किया गया है, तो उसकी रिहाई के लिए संपत्ति की निगरानी और निपटान संबंधी विधिक प्रक्रिया (CrPC Section 451) का पालन आवश्यक है। बिना वाहन को संबंधित मजिस्ट्रेट अदालत में प्रस्तुत किए, सीधे उच्च न्यायालय में याचिका दायर करना अनुचित है।
मामले की पृष्ठभूमि:
- अधिनियमों के अंतर्गत धाराएँ:
- गुजरात निषेध अधिनियम (Gujarat Prohibition Act): §§ 65(A)(E), 81, 98(2), 116(2)
- भारतीय दंड संहिता (IPC): §§ 465 (जालसाज़ी), 468 (धोखाधड़ी से जालसाज़ी), 471 (जाली दस्तावेज़ का प्रयोग), 114 (सहायता)
- CrPC: § 451 (जब्त संपत्ति की अंतरिम निगरानी और रिहाई)
- मामले में एक वाहन को शराब ले जाते समय जब्त किया गया। इसके बाद वाहन के स्वामी ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की कि वाहन उसे लौटा दिया जाए।
- हालांकि, कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं था जिससे यह साबित हो सके कि वाहन को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया हो।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण और तर्क:
- CrPC की धारा 451 के प्रावधानों की अनदेखी:
- यह धारा स्पष्ट रूप से कहती है कि जांच या विचारण के दौरान कोई संपत्ति जब्त हो, तो मजिस्ट्रेट उसे सुरक्षित रखने या रिहा करने के लिए आदेश दे सकता है।
- पहला कदम: जब्त वाहन को मजिस्ट्रेट की अदालत में प्रस्तुत करना आवश्यक है।
- यदि यह कदम उठाया ही नहीं गया, तो उच्च न्यायालय को सीधे अनुच्छेद 226 के अंतर्गत हस्तक्षेप करने का कोई आधार नहीं है।
- अनुच्छेद 226 का सीमित प्रयोग:
- अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है, जब वैधानिक उपाय (statutory remedy) उपलब्ध नहीं हो या उसका उपयोग किया जा चुका हो।
- यहाँ क्रिमिनल कोर्ट का दरवाज़ा पहले खटखटाना अनिवार्य था।
- गुजरात निषेध अधिनियम की धारा 98(2) का महत्व:
- इस धारा में “BUT” शब्द द्वारा दो आवश्यक शर्तों को जोड़ा गया है, जिसका अर्थ है कि वाहन की रिहाई केवल तभी संभव है जब दोनों शर्तें पूरी की गई हों।
- इन शर्तों में सबसे महत्वपूर्ण है — वाहन को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना।
न्यायालय का निष्कर्ष:
- जब तक वाहन को विधिसम्मत रूप से मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता, तब तक उसकी रिहाई का कोई वैध आधार नहीं बनता।
- इस मामले में चूंकि यह प्रक्रिया पूरी नहीं की गई थी, अतः उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए राहत आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने गलत और पूर्व-समयिक (premature) करार दिया।
न्यायिक महत्व:
यह निर्णय निम्नलिखित बिंदुओं को रेखांकित करता है:
- वैधानिक प्रक्रिया का पालन आवश्यक है — चाहे मामला संपत्ति की रिहाई का हो या किसी मौलिक अधिकार का।
- संपत्ति या वाहन जब्ती मामलों में मजिस्ट्रेट कोर्ट का पहला मंच होना चाहिए।
- Article 226 का प्रयोग तभी उपयुक्त है, जब अन्य वैधानिक उपाय उपलब्ध न हों या वह विफल हो जाए।
- यह निर्णय गुजरात निषेध अधिनियम जैसे राज्य कानूनों के सही अनुप्रयोग को भी स्पष्ट करता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि न्यायालय की प्रक्रिया को दरकिनार कर सीधे उच्च न्यायालय में याचिका दायर करना न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि यह न्यायिक प्रणाली की प्रक्रिया के प्रति अवमानना भी है। इस निर्णय से यह संदेश गया है कि न्यायिक अनुशासन और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता दोनों ही आवश्यक हैं।