जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022): “गरीबी भी वंचना है” — आर्थिक आधार पर आरक्षण की संवैधानिक वैधता पर ऐतिहासिक निर्णय
भूमिका: सामाजिक न्याय की नई दिशा
भारत का संविधान सामाजिक समता और न्याय के मूल्यों पर आधारित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही समाज में मौजूद ऐतिहासिक असमानताओं को दूर करने के लिए आरक्षण नीति लागू की गई। प्रारम्भिक रूप से आरक्षण केवल उन वर्गों के लिए था जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से वंचित थे, विशेषकर अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) एवं अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)। यद्यपि इस नीति ने अनेक वर्गों को सशक्त किया, लेकिन देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था जो जातिगत पिछड़ेपन की श्रेणी में नहीं आता था, फिर भी आर्थिक रूप से अत्यंत कमजोर था।
इसी समस्या के समाधान हेतु वर्ष 2019 में 103वाँ संविधान संशोधन लाया गया, जिसके माध्यम से अनुच्छेद 15(6) और 16(6) जोड़े गए और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) को शिक्षा व सरकारी नौकरियों में 10% आरक्षण प्रदान किया गया। इस संशोधन को चुनौती दी गई और मामला जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022) के नाम से सुप्रीम कोर्ट पहुँचा।
यह मामला भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया, क्योंकि इसमें पहली बार केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की संवैधानिक वैधता पर चर्चा हुई।
मुख्य प्रश्न
न्यायालय के समक्ष दो मुख्य संवैधानिक प्रश्न थे—
- क्या केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का उल्लंघन है?
- क्या आरक्षण की 50% सीमा को पार किया जा सकता है?
इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण था कि SC/ST/OBC समुदायों को EWS आरक्षण से बाहर रखना अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है या नहीं।
संविधान पीठ की संरचना
इस मामले की सुनवाई पाँच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने की—
- न्यायमूर्ति उदय यू. ललित (तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश)
- न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी
- न्यायमूर्ति रविंद्र भट्ट
- न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी
- न्यायमूर्ति जमशेद बी. पारदीवाला
निर्णय 3:2 के बहुमत से दिया गया।
बहुमत का निर्णय (3 जजों का मत)
बहुमत ने 103वें संविधान संशोधन को वैध ठहराया। उनके तर्क निम्नलिखित थे—
1. आर्थिक आधार पर आरक्षण संवैधानिक रूप से वैध
बहुमत ने कहा कि संविधान में संशोधन कर आर्थिक आधार पर आरक्षण देना संसद की शक्ति के अंतर्गत आता है। गरीबी भी वंचना का एक स्वरूप है और सामाजिक न्याय का दायरा केवल जातिगत पिछड़ेपन तक सीमित नहीं है।
“गरीबी भी सामाजिक अन्याय का रूप है” – अदालत
इस प्रकार आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए विशेष प्रावधान बनाना संविधान के उद्देश्य—समाजवादी राज्य और समान अवसर—के अनुरूप है।
2. 50% आरक्षण सीमा लचीली है
बहुमत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले निर्धारित 50% सीमा कोई कठोर नियम नहीं है, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार इसमें ढील दी जा सकती है।
यह सीमा इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) फैसले में निर्धारित की गई थी, लेकिन समय के साथ सामाजिक संरचनाओं और आवश्यकताओं में परिवर्तन संभव है।
3. SC/ST/OBC को बाहर रखना उचित
बहुमत ने यह भी कहा कि SC/ST/OBC वर्ग पहले से ही आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहा है और इसलिए उन्हें EWS श्रेणी से बाहर रखना असामाजिक भेदभाव नहीं, बल्कि समानता के लिए उचित वर्गीकरण है।
अल्पमत का निर्णय (2 जजों का मत)
न्यायमूर्ति रविंद्र भट्ट और CJI उदय ललित ने संशोधन को असंवैधानिक माना। उनके प्रमुख तर्क—
1. केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान की मूल संरचना के विपरीत
अल्पमत का मत था कि ऐतिहासिक रूप से आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करना था। केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण देना उस मूल उद्देश्य को बदल देता है, जो संविधान की मूल संरचना का भाग है।
2. 50% सीमा का उल्लंघन असमानता को जन्म देता है
उन्होंने कहा कि 50% सीमा एक संरचनात्मक संतुलन है जिसे तोड़ना अन्य वर्गों के अधिकारों को प्रभावित कर सकता है।
3. SC/ST/OBC को EWS से बाहर रखना अनुचित
अल्पमत का तर्क था कि गरीबी जाति-विशिष्ट नहीं होती, इसलिए आर्थिक रूप से कमजोर SC/ST/OBC को EWS आरक्षण से वंचित करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
संबंधित संवैधानिक प्रावधान
| अनुच्छेद | प्रावधान |
|---|---|
| 15(6) | शिक्षा संस्थानों में EWS आरक्षण |
| 16(6) | सरकारी नौकरियों में EWS आरक्षण |
| अनुच्छेद 46 | आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हितों को बढ़ावा देना |
| अनुच्छेद 368 | संविधान संशोधन की शक्ति |
ऐतिहासिक संदर्भ: इंद्रा साहनी केस (1992)
- मंडल आयोग केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण की सीमा सामान्यतः 50% होनी चाहिए।
- और आरक्षण सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर ही दिया जा सकता है, न कि केवल आर्थिक आधार पर।
जनहित अभियान केस ने इस स्थिति में बदलाव लाया और आर्थिक आधार को भी आरक्षण के लिए मान्य मान लिया।
निर्णय का प्रभाव
✅ नई आरक्षण नीति को संवैधानिक मान्यता
अब भारत में दो समानांतर आरक्षण व्यवस्था मान्य है—
- सामाजिक पिछड़ेपन आधारित आरक्षण (SC/ST/OBC)
- आर्थिक आधार आधारित आरक्षण (EWS)
✅ 50% सीमा अब पूर्ण रूप से कठोर नहीं
अब परिस्थितियों के अनुसार इस सीमा को पार किया जा सकता है। भविष्य में नए सामाजिक समूह भी दावा कर सकते हैं।
✅ सामाजिक न्याय का दायरा विस्तृत
इस फैसले ने सामाजिक न्याय को जाति से परे आर्थिक वंचना तक विस्तारित कर दिया।
निर्णय के आलोचनात्मक पक्ष
इस निर्णय की कुछ आलोचनाएँ भी सामने आईं—
- सामाजिक न्याय का मूल आधार जातिगत ऐतिहासिक अन्याय रहा है—क्या इसे कमजोर कर दिया गया?
- आर्थिक रूप से कमजोर SC/ST/OBC व्यक्ति EWS श्रेणी में क्यों शामिल नहीं हो सकते?
- 50% सीमा समाप्त होने से आरक्षण अनियंत्रित रूप से बढ़ सकता है।
कुछ विशेषज्ञों का मत है कि इससे आरक्षण नीति का दर्शन बदल गया और यह न्यायपालिका द्वारा संसद के अधिकार क्षेत्र के विस्तार को भी दर्शाता है।
आगे की राह
यह निर्णय भारत में आरक्षण और सामाजिक न्याय की नीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। अब बहस केवल जाति बनाम वर्ग नहीं बल्कि आर्थिक अवसर बनाम सामाजिक समानता पर केंद्रित होगी।
आने वाले वर्षों में न्यायालय और नीति-निर्माताओं पर दायित्व होगा कि वे—
- सामाजिक और आर्थिक दोनों वंचनाओं को संतुलित करें,
- आरक्षण को केवल राजनीतिक उपकरण न बनने दें,
- वास्तविक गरीबों तक लाभ पहुँचाने की व्यवस्था मजबूत करें।
निष्कर्ष
जनहित अभियान बनाम भारत संघ (2022) निर्णय ने भारतीय संवैधानिक इतिहास में नई धारणा स्थापित की कि—
“वंचना केवल जाति से नहीं, गरीबी से भी उत्पन्न होती है।”
यह फैसला भारत में धीरे-धीरे जाति आधारित राजनीति से आर्थिक न्याय केंद्रित मॉडल की ओर परिवर्तन का संकेत देता है। यद्यपि इस निर्णय ने नई उम्मीदें जगाईं, परंतु यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि आरक्षण का उद्देश्य — समाज के कमजोर वर्गों को वास्तविक अवसर प्रदान करना — सच्चे अर्थों में पूरा हो।
भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक यात्रा में यह फैसला निस्संदेह एक नया अध्याय है, जो भविष्य के न्यायिक और सामाजिक विमर्श को दिशा प्रदान करेगा।