शीर्षक:
“चेक बाउंस मामलों में धारा 138 एवं 139, पर सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शी आदेश: दोष सिद्धि के लिए आवश्यक तत्वों और अभियुक्त के अधिकारों की पुनर्व्याख्या”
परिचय:
भारत में आर्थिक लेनदेन में चेक का उपयोग एक आम व्यवहार है। मगर जब चेक का भुगतान विफल होता है, तो यह भारतीय निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध बन जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने धारा 138 एवं धारा 139 से संबंधित एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जो कि चेक बाउंस मामलों में अभियोजन और प्रतिरक्षा की दिशा को स्पष्ट करता है।
धारा 138 NI Act – अपराध की परिभाषा:
धारा 138 के अंतर्गत, यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर किसी वैध ऋण या देनदारी के भुगतान हेतु चेक जारी करता है और वह चेक अपर्याप्त धनराशि के कारण बैंक द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है, तो यह अपराध है। इसमें अधिकतम दो वर्ष की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकता है।
आवश्यक तत्व:
- देनदारी या ऋण का अस्तित्व।
- चेक का प्रस्तुतिकरण निर्धारित अवधि में।
- चेक के अस्वीकृत होने पर विधिसम्मत नोटिस देना।
- नोटिस के बाद भुगतान न होना।
धारा 139 NI Act – वैधानिक अनुमान (Presumption):
धारा 139 के अंतर्गत यह माना जाता है कि चेक धारक को चेक, किसी ऋण या देनदारी के निपटान हेतु प्रदान किया गया था। अभियुक्त को यह सिद्ध करना होता है कि चेक किसी ऋण के लिए नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट का हालिया निर्णय (प्रमुख बिंदु):
- धारा 139 की ‘Presumption’ rebuttable है:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष को ऋण/देनदारी का ‘प्रथम दृष्टया’ प्रमाण देना होता है, परंतु अभियुक्त को इस अनुमान को संतुलन की संभावना (preponderance of probabilities) के आधार पर खंडित करने का अवसर है। - गंभीर आरोप नहीं, बल्कि वैधानिक अपराध:
कोर्ट ने माना कि चेक बाउंस एक सिविल नेचर की देनदारी का क्रिमिनलाइजेशन है, अतः अभियुक्त को अभियोग से छूट पाने हेतु उचित अवसर देना आवश्यक है। - साक्ष्य की अपेक्षा:
अभियुक्त प्रत्यक्ष साक्ष्य के बिना भी यह सिद्ध कर सकता है कि चेक किसी ऋण के लिए नहीं दिया गया था – जैसे व्यवहारिक परिस्थिति, लेनदेन का इतिहास, या अन्य दस्तावेजी साक्ष्य। - बिना देनदारी के चेक देना अपराध नहीं:
यदि यह साबित हो जाता है कि चेक किसी ऋण, देनदारी या अनुबंध के अंतर्गत नहीं दिया गया था, तो धारा 138 लागू नहीं होगी। - ट्रायल कोर्ट की सतर्कता:
ट्रायल कोर्ट को दोनों पक्षों के तर्कों का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना होगा, न कि केवल चेक के प्रस्तुत होने या बाउंस होने को ही दोष सिद्धि का आधार बनाना चाहिए।
न्यायिक महत्व:
इस निर्णय ने अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा करते हुए यह सुनिश्चित किया कि केवल प्रक्रियात्मक पूर्णता या चेक बाउंस होने मात्र से किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही, वैध देनदारी के अभाव में अपराध का कोई आधार नहीं होता।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय चेक बाउंस मामलों में न्यायिक प्रक्रिया को संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करता है। इससे जहां चेक धारकों को न्याय मिलेगा, वहीं चेक जारीकर्ता को भी यह अवसर मिलेगा कि वह अपनी बेगुनाही को सुस्पष्ट रूप से सिद्ध कर सके।
यह निर्णय न्याय, निष्पक्षता और विधिक संतुलन का एक उत्कृष्ट उदाहरण बन चुका है, जो भविष्य में लाखों मामलों की दिशा तय करेगा।