शीर्षक:
“चेक अनादरण मामला: उधार देने की क्षमता साबित करना प्रारंभिक बाध्यता नहीं — सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शक निर्णय”
(2025 (2) Civil Court Cases 690 (S.C.))
प्रस्तावना:
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में चेक अनादरण (Dishonour of Cheque) से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि धारा 138, परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत दर्ज शिकायत में प्रारंभिक रूप से शिकायतकर्ता (complainant) को यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि वह राशि उधार देने की वित्तीय क्षमता रखता था।
अदालत ने कहा कि यदि आरोपी (accused) इस मुद्दे पर आपत्ति उठाता है कि शिकायतकर्ता के पास उक्त राशि देने की वित्तीय क्षमता नहीं थी, तभी शिकायतकर्ता पर यह भार आता है कि वह विश्वसनीय साक्ष्यों द्वारा अपनी आर्थिक स्थिति सिद्ध करे।
मामले का संक्षिप्त विवरण:
एक व्यक्ति ने दूसरे के विरुद्ध धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक शिकायत दायर की, जिसमें यह आरोप था कि आरोपी ने उससे ऋण (loan) लिया और उस ऋण के एवज में चेक दिया, जो बैंकों द्वारा “अपर्याप्त धनराशि” (insufficient funds) के कारण अनादरित (dishonoured) हो गया।
निचली अदालतों में बहस इस मुद्दे पर केंद्रित रही कि क्या शिकायतकर्ता के पास उतनी राशि उधार देने की वित्तीय क्षमता (financial capacity) थी या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“प्रथम दृष्टया, शिकायतकर्ता को यह साबित करने की आवश्यकता नहीं है कि उसके पास उतनी राशि उधार देने की क्षमता थी।
यदि आरोपी इस आधार पर आपत्ति करता है कि शिकायतकर्ता के पास आवश्यक वित्तीय संसाधन नहीं थे, तभी वह शिकायतकर्ता पर यह दायित्व आता है कि वह अपने पास पर्याप्त वित्तीय साधनों के प्रमाण प्रस्तुत करे।”(2025 (2) Civil Court Cases 690 (S.C.))
मुख्य बिंदु:
🔹 भार का सिद्धांत (Onus of Proof):
धारा 138 के तहत शिकायत दायर करने पर प्रारंभिक रूप से यह माना जाता है कि चेक कानूनी देनदारी को चुकाने के लिए जारी किया गया था।
🔹 धारा 139 का लाभ:
परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 यह कहती है कि जब तक विपरीत साबित न हो, यह मान लिया जाएगा कि चेक वास्तविक ऋण या दायित्व के भुगतान के लिए जारी किया गया था।
🔹 प्रेसम्प्शन का महत्व:
यह एक प्रेसम्पशन ऑफ लॉ (legal presumption) है, जिसे केवल साक्ष्यों द्वारा ही खंडित किया जा सकता है।
🔹 केवल आपत्ति पर्याप्त नहीं:
यदि आरोपी केवल यह कहता है कि शिकायतकर्ता के पास पैसे नहीं थे, परंतु उसका कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं है, तो केवल यह आपत्ति शिकायत खारिज कराने के लिए पर्याप्त नहीं होगी।
न्यायालय ने आगे कहा:
- यदि आरोपी ठोस आधारों पर सवाल उठाता है कि शिकायतकर्ता की आर्थिक स्थिति संदिग्ध थी, तो उसे पहले प्राथमिक प्रमाण प्रस्तुत करना होगा।
- तब जाकर शिकायतकर्ता को उत्तरदायित्व होगा कि वह विश्वसनीय दस्तावेज़ों या बैंक स्टेटमेंट आदि द्वारा अपनी वित्तीय स्थिति प्रमाणित करे।
प्रभाव और महत्व:
✅ यह निर्णय उन मामलों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है जहाँ ऋणदाताओं को केवल इस आधार पर झूठे मुकदमों में घसीटा जाता है कि उनके पास पैसा नहीं था।
✅ इससे स्पष्ट होता है कि शिकायतकर्ता को केवल इसलिए मुकदमा दायर करने से नहीं रोका जा सकता क्योंकि उसके पास लाखों रुपये उधार देने के दस्तावेज़ शुरू में मौजूद नहीं हैं।
✅ यह न्यायिक दृष्टिकोण कानून में निहित धारणा (legal presumption) की रक्षा करता है, और झूठे बचावों (false defences) पर रोक लगाता है।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय धारा 138 मामलों की सुनवाई प्रक्रिया को सरल, न्यायसंगत और प्रभावी बनाने की दिशा में एक मजबूत कदम है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि शिकायतकर्ता को अनावश्यक बाधाओं का सामना न करना पड़े, और अभियुक्त द्वारा केवल संदेह उत्पन्न करके मुकदमे को बाधित न किया जा सके।