चुनावी सुधार और राजनीतिक दल कानून (Electoral Reforms & Political Party Law)

चुनावी सुधार और राजनीतिक दल कानून (Electoral Reforms & Political Party Law)

शीर्षक: भारत में चुनावी सुधार और राजनीतिक दल कानून: लोकतंत्र की मजबूती की दिशा में एक कदम

प्रस्तावना
भारत एक विशाल लोकतंत्र है, जहां चुनावों के माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। किंतु समय के साथ चुनाव प्रणाली में अनेक कमियाँ सामने आई हैं, जैसे धनबल और बाहुबल का प्रयोग, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की भागीदारी, वोटों की खरीद-फरोख्त और राजनीतिक दलों की पारदर्शिता की कमी। इन समस्याओं से निपटने के लिए चुनावी सुधार और राजनीतिक दलों को विधिक रूप से नियंत्रित करने वाले कानूनों की आवश्यकता महसूस की गई।


चुनावी सुधारों की आवश्यकता
चुनावी सुधार लोकतंत्र की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए जरूरी हैं। इनका मुख्य उद्देश्य चुनाव प्रक्रिया को निष्पक्ष, पारदर्शी और जवाबदेह बनाना है। भारतीय चुनाव आयोग, विधि आयोग, सर्वोच्च न्यायालय तथा विभिन्न समितियों ने समय-समय पर कई सुझाव दिए हैं, जैसे:

  1. आपराधिक रिकॉर्ड वाले उम्मीदवारों पर रोक
    सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि जिन उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक आरोप हों, उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जाए या जनता को उनकी जानकारी दी जाए।
  2. राजनीतिक दलों की पारदर्शिता
    राजनीतिक दलों को चंदा प्राप्ति, खर्च और आंतरिक लोकतंत्र के मामलों में पारदर्शिता लाने के लिए बाध्य करना आवश्यक है।
  3. वन नेशन, वन इलेक्शन
    बार-बार होने वाले चुनावों से सरकारी संसाधनों पर बोझ पड़ता है। एक देश, एक चुनाव की अवधारणा से समय और धन की बचत हो सकती है।
  4. ई-वोटिंग और EVM-VVPAT
    प्रौद्योगिकी का उपयोग करके चुनाव प्रक्रिया को अधिक सुरक्षित और भरोसेमंद बनाया जा सकता है।

राजनीतिक दल कानून की आवश्यकता
भारत में राजनीतिक दलों की स्थापना और कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने वाला कोई विशिष्ट समग्र कानून अब तक नहीं है। केवल जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 और संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत कुछ प्रावधान हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं।

राजनीतिक दल कानून के तहत निम्नलिखित आवश्यकताएँ रखी जा सकती हैं:

  • राजनीतिक दलों का अनिवार्य पंजीकरण और लेखा परीक्षा।
  • आंतरिक चुनाव अनिवार्य करना।
  • चंदा देने वालों की सूची सार्वजनिक करना।
  • दलों के ऊपर लगे आरोपों की जांच के लिए स्वतंत्र संस्था की स्थापना।
  • आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर दंडात्मक प्रावधान।

सरकार और आयोग द्वारा लिए गए प्रयास

  • चुनाव आयोग ने ‘राजनीतिक दलों को विनियमित करने हेतु विधि’ (Regulation of Political Parties) संबंधी ड्राफ्ट तैयार किया है।
  • विधि आयोग की रिपोर्ट (255वीं रिपोर्ट) में सुझाव दिया गया कि राजनीतिक दलों को भी सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे में लाया जाए।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कई महत्वपूर्ण फैसलों के माध्यम से चुनाव सुधारों को बढ़ावा दिया है, जैसे उम्मीदवारों की संपत्ति और आपराधिक मामलों की जानकारी देना अनिवार्य करना।

निष्कर्ष
चुनाव प्रणाली किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यदि उसमें खामियाँ रहेंगी, तो लोकतंत्र का वास्तविक उद्देश्य प्रभावित होगा। चुनावी सुधारों और राजनीतिक दलों पर विधिक नियंत्रण के बिना, एक पारदर्शी और सशक्त लोकतंत्र की कल्पना अधूरी है। अतः यह आवश्यक है कि सरकार, निर्वाचन आयोग, न्यायपालिका और नागरिक समाज मिलकर ऐसे ठोस कदम उठाएं जो भारतीय लोकतंत्र को और अधिक पारदर्शी, निष्पक्ष और जिम्मेदार बना सकें।


चुनावी भ्रष्टाचार और आदर्श आचार संहिता | चुनाव आयोग की भूमिका और कानूनी पहलू

परिचय:

भारतीय लोकतंत्र की सफलता स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनावों पर आधारित है। लेकिन जब चुनावों में भ्रष्टाचार हावी हो जाता है, तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठते हैं। चुनावी भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने हेतु भारत निर्वाचन आयोग द्वारा “आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct)” लागू की जाती है, जो चुनाव के दौरान नैतिक आचरण की रूपरेखा प्रदान करती है। यह लेख चुनावी भ्रष्टाचार, उसके प्रकार, प्रभाव तथा आदर्श आचार संहिता की भूमिका का विश्लेषण करता है।


चुनावी भ्रष्टाचार क्या है?

चुनावी भ्रष्टाचार का तात्पर्य ऐसे अनैतिक या अवैध कृत्यों से है जिनका उद्देश्य मतदाताओं को प्रभावित कर चुनाव परिणाम को मनचाहा रूप देना होता है। यह भ्रष्टाचार उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों या उनके समर्थकों द्वारा किया जा सकता है।

प्रमुख रूप:

  • धन, शराब या वस्त्र का वितरण
  • जाति, धर्म या भाषा के नाम पर वोट मांगना
  • झूठे वादे या भ्रामक प्रचार
  • सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग
  • बूथ कैप्चरिंग और फर्जी मतदान
  • डराने-धमकाने की रणनीति

चुनावी भ्रष्टाचार के दुष्परिणाम:

  • लोकतंत्र की विश्वसनीयता में गिरावट
  • योग्य उम्मीदवारों का बहिष्कार
  • समाज में वैमनस्य और हिंसा
  • चुनावी निष्पक्षता पर आघात
  • जनता का राजनीति से मोहभंग

आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) क्या है?

आदर्श आचार संहिता चुनाव आयोग द्वारा बनाई गई एक अनिवार्य नैतिक संहिता है, जो चुनाव की घोषणा के साथ ही लागू हो जाती है। इसका उद्देश्य है – सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को एक समान, मर्यादित और शालीन चुनावी माहौल प्रदान करना।


मुख्य प्रावधान:

क्षेत्र प्रावधान
सरकारी घोषणाएं चुनाव के दौरान कोई नई योजना या परियोजना घोषित नहीं की जा सकती
प्रचार के नियम धार्मिक/जातीय अपील, आपत्तिजनक भाषा, झूठा प्रचार वर्जित
सरकारी संपत्ति प्रचार में सरकारी वाहन, भवन, अधिकारियों का उपयोग प्रतिबंधित
सभा एवं रैली पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य
पोस्टर-बैनर नियम निर्धारित स्थानों और अनुमति के साथ ही प्रचार सामग्री लगाई जा सकती है
शांति व्यवस्था मतदान केंद्रों पर अनुशासन बनाए रखना

उल्लंघन पर कार्रवाई:

हालांकि आदर्श आचार संहिता कानून नहीं है, लेकिन इसके उल्लंघन पर निर्वाचन आयोग कड़ी कार्रवाई करता है।
कानूनी कार्रवाई के अंतर्गत:

  • जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951
  • भारतीय दंड संहिता (IPC)
  • चुनाव अपराध (Corrupt Practices) की धाराएं

संभावित दंड:

  • चेतावनी या नोटिस
  • प्रचार पर प्रतिबंध
  • एफआईआर/कानूनी कार्यवाही
  • उम्मीदवारी रद्द करना (गंभीर मामलों में)

भारत निर्वाचन आयोग की भूमिका:

  • आचार संहिता का निगरानी एवं क्रियान्वयन
  • शिकायतों की त्वरित जांच
  • निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना
  • प्रशासन व पुलिस तंत्र को निर्देश देना

निष्कर्ष:

चुनावी भ्रष्टाचार लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर करता है। इसके खिलाफ कठोर निगरानी, कड़ा कानून और जन-जागरूकता आवश्यक है। आदर्श आचार संहिता चुनावों को मर्यादित व निष्पक्ष बनाने की दिशा में एक सशक्त उपकरण है। प्रत्येक मतदाता, राजनीतिक दल और प्रशासन की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे इस संहिता का पालन करें और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाएं।


राजनीतिक चंदा और पारदर्शिता नियम | लोकतंत्र की स्वच्छता और वित्तीय जवाबदेही का मूल्यांकन


परिचय:

लोकतंत्र की आत्मा है – निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही। जब राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने और संगठन चलाने के लिए चंदा मिलता है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि उस चंदे का स्रोत, उपयोग और उद्देश्य स्पष्ट हो। भारत में राजनीतिक चंदा एक संवेदनशील विषय रहा है क्योंकि अपार धनराशि मिलने के बावजूद इसकी पारदर्शिता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। इसलिए समय-समय पर सरकार और चुनाव आयोग ने राजनीतिक चंदा और उससे जुड़े पारदर्शिता नियमों को सशक्त बनाने का प्रयास किया है।


राजनीतिक चंदा क्या है?

राजनीतिक चंदा (Political Funding) का अर्थ है – वह धनराशि जो व्यक्ति, संस्था, कॉर्पोरेट, ट्रस्ट या अन्य स्रोतों से किसी राजनीतिक दल को चुनाव प्रचार, संगठन निर्माण, कार्यक्रमों और प्रशासनिक खर्चों के लिए दी जाती है।

यह चंदा नगद, चेक, बैंक ट्रांसफर या अब इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के माध्यम से भी दिया जा सकता है।


राजनीतिक चंदा के प्रमुख स्रोत:

  1. व्यक्तिगत दानदाता (Individual Donations)
  2. कॉर्पोरेट/कंपनियों द्वारा योगदान
  3. राजनीतिक कोष या फंड रेज़िंग कार्यक्रम
  4. एनजीओ/ट्रस्ट (कानूनी सीमाओं के भीतर)
  5. विदेशी स्रोत (FCRA के तहत सीमित)
  6. इलेक्ट्रोरल बॉन्ड (Electoral Bonds) – 2017 से लागू एक नई विधि

राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता से जुड़ी समस्याएं:

  • अधिकतर दानदाता गुमनाम रहते हैं
  • ₹20,000 से कम के दान का कोई सार्वजनिक विवरण अनिवार्य नहीं था
  • विदेशी कंपनियों के चंदे को लेकर अस्पष्टता
  • Electoral Bonds के माध्यम से दानदाता की पहचान छिपी रहती है
  • कॉर्पोरेट लॉबिंग और पक्षपात के आरोप

वर्तमान पारदर्शिता नियम:

1. जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of People Act):

  • सभी मान्यता प्राप्त दलों को चुनाव आयोग को वार्षिक लेखा-जोखा देना होता है
  • ₹20,000 से अधिक के प्रत्येक दान का विवरण देना होता है (हालांकि बाद में इसका दुरुपयोग भी देखा गया)

2. आयकर अधिनियम, 1961:

  • चेक या डिजिटल माध्यम से दिया गया चंदा कर-मुक्त हो सकता है
  • राजनीतिक दलों को आयकर से छूट तभी मिलती है जब वे IT रिटर्न समय पर दाखिल करें

3. चुनाव आयोग की गाइडलाइंस:

  • राजनीतिक दलों को दानदाताओं की सूची प्रकाशित करनी होती है
  • चुनाव खर्च की सीमा तय की गई है

4. FCRA (Foreign Contribution Regulation Act):

  • विदेशी स्रोतों से चंदा लेने पर सख्त नियम लागू
  • केवल पंजीकृत राजनीतिक दल ही सीमित विदेशी दान ले सकते हैं

इलेक्ट्रोरल बॉन्ड: एक नई व्यवस्था

इलेक्ट्रोरल बॉन्ड की शुरुआत 2018 में हुई। इसके तहत दानदाता SBI के माध्यम से बॉन्ड खरीदकर किसी भी पंजीकृत राजनीतिक दल को चुपचाप दान दे सकता है।

सुविधाएं:

  • बैंकिंग माध्यम से सुरक्षित लेन-देन
  • दानदाता की पहचान सार्वजनिक नहीं होती

आलोचना:

  • पारदर्शिता की कमी – जनता यह नहीं जान सकती कि कौन-सा कॉर्पोरेट किस दल को चंदा दे रहा है
  • सत्ता पक्ष को अधिक लाभ मिलने की संभावना
  • RTI के तहत जानकारी मिलना असंभव

सुप्रीम कोर्ट और पारदर्शिता पर न्यायिक दृष्टिकोण:

  • सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर पारदर्शिता के पक्ष में निर्णय दिए हैं, जैसे:
    • राजनीतिक दलों को आय और दान का लेखा-जोखा देने का आदेश
    • उम्मीदवारों की संपत्ति और आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक करने की व्यवस्था

हालिया घटनाक्रम: 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्ट्रोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार दिया और निर्देश दिया कि सभी रिकॉर्ड सार्वजनिक किए जाएं।


राजनीतिक चंदा सुधार के सुझाव:

  1. ₹1 से लेकर हर चंदे की ट्रैकिंग होनी चाहिए
  2. दानदाता की पहचान सार्वजनिक हो
  3. इलेक्ट्रोरल बॉन्ड प्रणाली को अधिक पारदर्शी बनाया जाए
  4. राजनीतिक दलों के खातों का स्वतंत्र ऑडिट अनिवार्य हो
  5. जनता को सूचना का अधिकार हो कि कौन किसे कितना और क्यों दान दे रहा है
  6. नकद चंदे पर पूरी तरह प्रतिबंध लगे

निष्कर्ष:

राजनीतिक चंदा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आवश्यक है, लेकिन जब यह अपारदर्शी या असंतुलित हो जाता है, तब यह लोकतंत्र को कमजोर करता है। राजनीतिक दलों की वित्तीय पारदर्शिता से ही लोकतंत्र की साख मजबूत होगी। इसलिए आवश्यक है कि कानून, नीति और राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ ऐसी व्यवस्था बने जहां हर चंदे का स्रोत, उपयोग और उद्देश्य साफ हो।

ईवीएम और वीवीपैट विवाद: एक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण

भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) और वोटर वेरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) इसी पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए अपनाए गए तकनीकी उपाय हैं। हालांकि, इन दोनों तकनीकों को लेकर समय-समय पर विवाद और संदेह उठते रहे हैं, जो एक गंभीर लोकतांत्रिक बहस का विषय बन चुके हैं।

ईवीएम: तकनीकी नवाचार या चुनावी संकट?

EVM को 1999 में भारत में व्यापक रूप से लागू किया गया। इसका उद्देश्य मतदान प्रक्रिया को अधिक तेज़, पारदर्शी और त्रुटिरहित बनाना था। यह मशीन बैलेट पेपर की तुलना में अधिक सुविधाजनक और परिणामों की गिनती में तीव्र होती है। फिर भी, राजनीतिक दलों और नागरिक समाज संगठनों द्वारा ईवीएम की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं। आरोप लगते हैं कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है, जिससे चुनाव परिणामों में हेरफेर संभव है।

वीवीपैट: पारदर्शिता की उम्मीद

वीवीपैट को वर्ष 2013 में एक पूरक तकनीक के रूप में प्रस्तुत किया गया था ताकि ईवीएम में डाले गए मत का पेपर ट्रेल मिल सके। जब कोई मतदाता वोट डालता है, तो वीवीपैट एक पर्ची प्रदर्शित करता है जिसमें प्रत्याशी का नाम और चुनाव चिह्न होता है। यह पर्ची 7 सेकंड तक दिखाई देती है, फिर मशीन में जमा हो जाती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि मतदाता का वोट सही व्यक्ति को गया है।

विवाद और चिंता के प्रमुख कारण

  1. हैकिंग की आशंका: कई दलों ने आरोप लगाए हैं कि ईवीएम को रिमोट या वायरलेस तरीकों से नियंत्रित किया जा सकता है। हालांकि चुनाव आयोग और तकनीकी विशेषज्ञों ने इस आशंका को खारिज किया है।
  2. वीवीपैट मिलान: सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि 5% वीवीपैट पर्चियों का ईवीएम से मिलान किया जाए, लेकिन विपक्षी दल अधिक प्रतिशत में मिलान की मांग करते हैं।
  3. पारदर्शिता की कमी: मतदाताओं में यह विश्वास नहीं बन पा रहा है कि उनका वोट सही उम्मीदवार को गया है, विशेषकर जब वीवीपैट मिलान सीमित हो।
  4. तकनीकी खामियां: कुछ मामलों में वीवीपैट मशीनों के खराब होने और बैकअप में देरी की शिकायतें मिली हैं, जिससे चुनाव प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।

चुनाव आयोग का पक्ष

चुनाव आयोग बार-बार यह स्पष्ट करता आया है कि ईवीएम पूर्णतः सुरक्षित और स्वतंत्र हैं। ये मशीनें इंटरनेट या किसी नेटवर्क से नहीं जुड़ी होतीं, जिससे हैकिंग की संभावना नगण्य हो जाती है। आयोग का यह भी दावा है कि अब तक किसी भी चुनाव में ईवीएम की निष्पक्षता प्रमाणित रूप से संदेहास्पद नहीं पाई गई।

समाधान की संभावनाएँ

  • वीवीपैट पर्चियों की 100% गिनती की मांग पर विचार किया जाना चाहिए ताकि मतदाताओं का विश्वास बहाल हो।
  • स्वतंत्र तकनीकी परीक्षण और जनजागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए जिससे लोग ईवीएम-वीवीपैट की कार्यप्रणाली को समझ सकें।
  • चुनाव प्रक्रिया में निरपेक्ष ऑडिट प्रणाली की स्थापना होनी चाहिए।
  • राजनीतिक दलों और आयोग के बीच संवाद को मजबूत किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

ईवीएम और वीवीपैट भारतीय लोकतंत्र के लिए तकनीकी प्रगति के प्रतीक हैं, लेकिन जब तक इन पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा, तब तक चुनावी प्रक्रिया की वैधता संदेह के घेरे में रहेगी। लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है कि इन तकनीकों की पारदर्शिता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की जाए और सभी पक्षों की चिंताओं का समाधान किया जाए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता का विश्वास सर्वोपरि है, और उसे बनाए रखना हर संस्था की जिम्मेदारी है।