IndianLawNotes.com

चार्जशीट से छूटे आरोपी को भी सम्मन करने का अधिकार : सुप्रीम कोर्ट का धारा 319 CrPC पर महत्वपूर्ण निर्णय

चार्जशीट से छूटे आरोपी को भी सम्मन करने का अधिकार : सुप्रीम कोर्ट का धारा 319 CrPC पर महत्वपूर्ण निर्णय

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure – CrPC) आपराधिक न्याय प्रणाली की रीढ़ मानी जाती है। इसमें आपराधिक मुकदमों की पूरी प्रक्रिया, जांच से लेकर सज़ा तक, विस्तृत रूप से निर्धारित की गई है। न्यायिक प्रक्रिया का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी अपराधी दंड से बच न सके और साथ ही निर्दोष व्यक्ति को अनुचित दंड न मिले। इसी संतुलन को बनाए रखने के लिए विभिन्न धाराओं में न्यायालयों को विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

इन्हीं में से एक है धारा 319 CrPC, जो ट्रायल कोर्ट को यह अधिकार देती है कि यदि मुकदमे की सुनवाई के दौरान ऐसे सबूत सामने आते हैं जिनसे किसी अन्य व्यक्ति के अपराध में शामिल होने का संकेत मिलता है, तो अदालत उसे भी आरोपी बनाकर मुकदमे में सम्मिलित कर सकती है, भले ही उस व्यक्ति का नाम प्रारंभिक चार्जशीट में न हो।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में इस प्रावधान की पुष्टि करते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति एफआईआर (FIR) में नामित है, लेकिन जांच के दौरान चार्जशीट में शामिल नहीं किया गया, और बाद में उसके खिलाफ साक्ष्य सामने आते हैं, तो ट्रायल कोर्ट उसे भी आरोपी के रूप में सम्मन कर सकता है। यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में न्याय की व्यापकता और निष्पक्षता को रेखांकित करता है।


मामले की पृष्ठभूमि

आपराधिक मामलों में अक्सर यह देखा जाता है कि एफआईआर दर्ज करते समय कई व्यक्तियों के नाम शामिल होते हैं। हालांकि, जांच एजेंसी (Police/CBI आदि) जांच के बाद चार्जशीट (Charge-sheet) में केवल उन्हीं लोगों के नाम शामिल करती है जिनके खिलाफ उसे पर्याप्त सबूत मिलते हैं।

लेकिन कई बार ऐसा होता है कि प्रारंभिक जांच में कुछ व्यक्तियों के खिलाफ सबूत कमजोर होते हैं और उन्हें चार्जशीट से बाहर कर दिया जाता है। बाद में ट्रायल के दौरान गवाहों के बयानों या अन्य साक्ष्यों से उनके अपराध में शामिल होने की संभावना प्रकट होती है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या अदालत उन्हें फिर से आरोपी बना सकती है?

सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक दिया और कहा कि धारा 319 CrPC अदालत को यह विशेष अधिकार देती है कि वह अपराध में संलिप्त सभी व्यक्तियों को न्याय के दायरे में ला सके।


धारा 319 CrPC का प्रावधान

धारा 319 CrPC का सार यह है कि—

  • यदि मुकदमे की सुनवाई के दौरान साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि कोई अन्य व्यक्ति, जो अभियुक्त नहीं है, अपराध में शामिल है,
  • तो अदालत उसे भी आरोपी बनाकर सम्मन जारी कर सकती है और मुकदमे में शामिल कर सकती है।

इस धारा का उद्देश्य यह है कि कोई भी दोषी व्यक्ति छूटने न पाए और न्याय की प्रक्रिया पूर्ण रूप से संपन्न हो।


सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और तर्क

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि—

  1. एफआईआर में नामित लेकिन चार्जशीट से बाहर व्यक्ति भी सम्मन योग्य है – यदि एफआईआर में किसी व्यक्ति का नाम है, परंतु पुलिस ने चार्जशीट में उसे शामिल नहीं किया, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमेशा के लिए न्यायिक कार्यवाही से बाहर हो गया। यदि ट्रायल के दौरान साक्ष्य सामने आते हैं, तो अदालत उसे भी सम्मन कर सकती है।
  2. न्यायालय का विवेकाधिकार – यह शक्ति ट्रायल कोर्ट के विवेक पर आधारित है। अदालत को यह देखना होगा कि उपलब्ध साक्ष्य प्रथम दृष्टया (prima facie) उस व्यक्ति को अपराध से जोड़ते हैं।
  3. न्याय सुनिश्चित करना – धारा 319 का उद्देश्य न्याय को व्यापक बनाना है। यदि किसी दोषी व्यक्ति को केवल इसलिए बरी कर दिया जाए कि उसका नाम चार्जशीट में नहीं है, तो यह न्याय के सिद्धांतों के विपरीत होगा।
  4. सीमाएँ भी निर्धारित – सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह शक्ति बहुत गंभीर है और इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक होना चाहिए। केवल संदेह या सतही आरोपों के आधार पर किसी व्यक्ति को आरोपी नहीं बनाया जा सकता।

निर्णय का महत्व

यह निर्णय कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है:

  1. सभी दोषियों को न्याय के दायरे में लाना – यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि कोई अपराधी केवल तकनीकी कारणों से बच न जाए।
  2. अदालत की सक्रिय भूमिका – अदालत सिर्फ निष्क्रिय दर्शक नहीं है, बल्कि वह सक्रिय होकर यह सुनिश्चित कर सकती है कि वास्तविक अपराधियों पर मुकदमा चले।
  3. जांच एजेंसियों पर नियंत्रण – कभी-कभी पुलिस या जांच एजेंसियाँ राजनीतिक, सामाजिक या अन्य कारणों से कुछ नाम चार्जशीट में शामिल नहीं करतीं। इस प्रावधान से अदालत उन खामियों को सुधार सकती है।
  4. पीड़ित पक्ष का विश्वास – जब पीड़ित देखता है कि सभी संभावित अपराधी न्याय के दायरे में आ रहे हैं, तो न्यायिक व्यवस्था पर उसका विश्वास बढ़ता है।

पूर्ववर्ती न्यायिक दृष्टांत

सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों ने पहले भी कई बार धारा 319 CrPC की व्याख्या की है।

  • Hardeep Singh v. State of Punjab (2014) – इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि धारा 319 के तहत अदालत का अधिकार व्यापक है और यदि साक्ष्य उपलब्ध हों तो नए आरोपी को सम्मन किया जा सकता है।
  • Rajesh v. State of Haryana (2019) – कोर्ट ने कहा कि केवल संदेह के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस साक्ष्य मिलने पर ही इस शक्ति का प्रयोग होना चाहिए।
  • Sukhpal Singh Khaira v. State of Punjab (2022) – कोर्ट ने दोहराया कि धारा 319 CrPC न्यायालय की एक असाधारण शक्ति है, जिसे सावधानी से लागू किया जाना चाहिए।

आलोचनाएँ और व्यावहारिक चुनौतियाँ

हालाँकि यह प्रावधान न्याय के लिए उपयोगी है, लेकिन इसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं:

  1. प्रक्रिया में विलंब – नए आरोपी को सम्मिलित करने से मुकदमे की अवधि बढ़ जाती है।
  2. दुरुपयोग की संभावना – कभी-कभी पीड़ित पक्ष या गवाह झूठे बयान देकर निर्दोष व्यक्तियों को फँसाने की कोशिश करते हैं।
  3. आरोपी के अधिकार – चार्जशीट से बाहर रहने के बाद अचानक आरोपी बनाए जाने से व्यक्ति को मानसिक और सामाजिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
  4. न्यायालय का बोझ – इस शक्ति के अति प्रयोग से अदालतों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ सकता है।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय आपराधिक न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इससे यह सिद्ध होता है कि न्यायालय केवल पुलिस जांच की सीमाओं तक बंधा नहीं है, बल्कि वह न्याय की व्यापकता सुनिश्चित करने के लिए स्वयं भी हस्तक्षेप कर सकता है।

धारा 319 CrPC का उद्देश्य यही है कि सभी दोषी व्यक्ति न्याय के दायरे में आएँ और कोई अपराधी केवल तकनीकी कारणों से बच न सके। हालाँकि इसका प्रयोग सावधानीपूर्वक और ठोस साक्ष्यों के आधार पर ही होना चाहिए ताकि निर्दोष व्यक्तियों को अनावश्यक रूप से परेशान न किया जाए।

इस निर्णय से पीड़ितों का विश्वास न्यायालयों में और मजबूत होगा तथा आपराधिक न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता भी बढ़ेगी।


प्रश्नोत्तर

Q1. धारा 319 CrPC का मुख्य उद्देश्य क्या है?

उत्तर: धारा 319 CrPC का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी दोषी व्यक्ति न्याय से बच न सके। यदि ट्रायल के दौरान ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जो किसी अन्य व्यक्ति की संलिप्तता दर्शाते हैं, तो अदालत उसे भी आरोपी बनाकर मुकदमे में सम्मिलित कर सकती है।


Q2. यदि किसी व्यक्ति का नाम एफआईआर में है लेकिन चार्जशीट में नहीं है, तो क्या उसे आरोपी बनाया जा सकता है?

उत्तर: हाँ, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि ट्रायल के दौरान उसके खिलाफ पर्याप्त सबूत सामने आते हैं, तो अदालत उसे आरोपी बनाकर सम्मन कर सकती है, भले ही उसका नाम चार्जशीट में न हो।


Q3. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 319 CrPC के प्रयोग के बारे में क्या चेतावनी दी है?

उत्तर: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह शक्ति अत्यंत गंभीर और असाधारण है। इसका प्रयोग केवल ठोस साक्ष्यों के आधार पर होना चाहिए, न कि केवल संदेह या सतही आरोपों पर।


Q4. सुप्रीम कोर्ट ने किस मामले में धारा 319 CrPC की व्यापक व्याख्या की थी?

उत्तर: Hardeep Singh v. State of Punjab (2014) में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने धारा 319 CrPC की व्याख्या की और कहा कि अदालत को अधिकार है कि वह मुकदमे के दौरान नए आरोपियों को सम्मन कर सके।


Q5. इस निर्णय का पीड़ित पक्ष के लिए क्या महत्व है?

उत्तर: इस निर्णय से पीड़ित पक्ष को यह भरोसा मिलता है कि सभी दोषी व्यक्ति, चाहे वे चार्जशीट में हों या न हों, न्याय के दायरे में आएँगे। इससे न्यायिक व्यवस्था पर उनका विश्वास मजबूत होता है।


Q6. धारा 319 CrPC का प्रयोग न्यायालय किस स्तर पर कर सकता है?

उत्तर: धारा 319 CrPC का प्रयोग ट्रायल कोर्ट द्वारा किया जाता है, जब सुनवाई के दौरान गवाहों के बयान या अन्य साक्ष्य से किसी अतिरिक्त व्यक्ति की संलिप्तता सामने आती है।


Q7. इस प्रावधान से जांच एजेंसियों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर: यह प्रावधान जांच एजेंसियों पर नियंत्रण का कार्य करता है। यदि वे किसी कारणवश वास्तविक अपराधियों को चार्जशीट से बाहर रख देती हैं, तो अदालत उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकती है।


Q8. धारा 319 CrPC से न्यायालय की कौन-सी भूमिका सामने आती है?

उत्तर: इससे यह सिद्ध होता है कि न्यायालय केवल निष्क्रिय दर्शक नहीं है, बल्कि वह सक्रिय होकर यह सुनिश्चित करता है कि सभी वास्तविक अपराधियों पर मुकदमा चले और न्याय पूर्ण रूप से सुनिश्चित हो।


Q9. इस शक्ति के प्रयोग से क्या व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती हैं?

उत्तर: प्रमुख कठिनाइयाँ हैं— मुकदमे में विलंब, निर्दोष व्यक्ति के फँसने की आशंका, आरोपी के मौलिक अधिकारों पर प्रभाव, और अदालतों पर अतिरिक्त बोझ।


Q10. सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में न्याय के किस मूलभूत सिद्धांत को रेखांकित किया?

उत्तर: सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत रेखांकित किया कि “कोई भी दोषी व्यक्ति न्याय से बच न पाए”। इसलिए, अदालत का दायित्व है कि वह सभी वास्तविक अपराधियों को मुकदमे में सम्मिलित करे।