“गैरकानूनी हिरासत का झूठा आरोप: बॉम्बे हाईकोर्ट का दिशा-निर्देशात्मक निर्णय — LAWS(BOM)-2023-9-432”

शीर्षक: “गैरकानूनी हिरासत का झूठा आरोप: बॉम्बे हाईकोर्ट का दिशा-निर्देशात्मक निर्णय — LAWS(BOM)-2023-9-432”


परिचय:

गैरकानूनी हिरासत (Illegal Detention) के आरोपों के संदर्भ में बॉम्बे हाईकोर्ट ने LAWS(BOM)-2023-9-432 में एक महत्वपूर्ण निर्णय पारित किया। यह निर्णय न केवल मौलिक अधिकारों की व्याख्या करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि बिना पर्याप्त साक्ष्य के किसी भी पुलिस कार्रवाई को “गैरकानूनी हिरासत” करार नहीं दिया जा सकता। यह फैसला उन मामलों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध होता है जहां संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यवसाय करने की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में झूठे दावे किए जाते हैं।


मामले की पृष्ठभूमि:

याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उसे पुलिस द्वारा अवैध रूप से हिरासत में लिया गया, जिससे उसके व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार (Article 19(1)(g)) का हनन हुआ है। यह याचिका मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 21 (व्यक्तिगत स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 19(1)(g) (व्यवसाय, व्यापार या पेशा अपनाने की स्वतंत्रता) के उल्लंघन के आधार पर दायर की गई थी।

इस मामले में “Immoral Traffic (Prevention) Act” की धारा 3 और 34, भारतीय दंड संहिता की धारा 370 (मानव तस्करी), और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के प्रावधानों का संदर्भ लिया गया।


प्रमुख कानूनी प्रश्न:

क्या याचिकाकर्ता यह सिद्ध करने में सक्षम है कि उसे वास्तव में गैरकानूनी रूप से हिरासत में लिया गया, जिससे उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ?


कोर्ट का निर्णय और विश्लेषण:

  1. गैरकानूनी हिरासत के आरोप निराधार पाए गए:
    • न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि पुलिस द्वारा किसी भी प्रकार की अवैध या अनुचित हिरासत नहीं की गई थी
    • याचिकाकर्ता द्वारा कोई ठोस साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया जो यह दर्शाता कि उसे कानूनन अनुमत प्रक्रिया के बिना हिरासत में लिया गया।
  2. अनुच्छेद 19(1)(g) के अधिकार का दुरुपयोग:
    • कोर्ट ने माना कि व्यवसाय करने की स्वतंत्रता का अधिकार पूर्ण नहीं है और यह संगठित अपराध या गैरकानूनी गतिविधियों पर लागू नहीं होता।
    • यदि व्यक्ति अनैतिक या अवैध गतिविधियों में लिप्त है, तो वह संविधान के इस अनुच्छेद के अंतर्गत संरक्षण का दावा नहीं कर सकता।
  3. याचिका सुनवाई योग्य नहीं पाई गई:
    • चूंकि याचिकाकर्ता गैरकानूनी हिरासत का कोई वैध प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सका, अतः उसकी याचिका रखने योग्य (Maintainable) नहीं मानी गई।
    • कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि हिरासत कानून के अनुसार हो, तो वह गैरकानूनी नहीं कही जा सकती।
  4. मानव तस्करी और अनैतिक व्यापार अधिनियम की प्रासंगिकता:
    • न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि इस मामले में Immoral Traffic (Prevention) Act की धाराओं और IPC धारा 370 की विवेचना आवश्यक थी, क्योंकि यह मामला व्यावसायिक स्वतंत्रता की आड़ में अनैतिक गतिविधियों से जुड़ा प्रतीत हो रहा था।

निर्णय का महत्व:

  • कानून की प्रक्रिया को प्राथमिकता: न्यायालय ने कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया और साक्ष्य आधारित न्याय को सर्वोपरि रखा।
  • मौलिक अधिकारों की सीमा स्पष्ट: यह निर्णय बताता है कि मौलिक अधिकार असीमित नहीं होते और उन्हें विधिक प्रतिबंधों के अधीन लागू किया जाता है।
  • पुलिस की कार्रवाई का समर्थन: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई विधिसम्मत थी और याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए आरोप प्रसिद्धि या दबाव के उद्देश्य से लगाए गए थे।

निष्कर्ष:

LAWS(BOM)-2023-9-432 के इस निर्णय में बॉम्बे हाईकोर्ट ने संविधानिक अधिकारों के विवेकपूर्ण प्रयोग और कानून के दुरुपयोग के बीच संतुलन स्थापित किया है। न्यायालय ने दोहराया कि बिना पर्याप्त साक्ष्य के किसी भी पुलिस कार्रवाई को “गैरकानूनी हिरासत” नहीं माना जा सकता और इस प्रकार की याचिकाएं यदि ठोस आधार के बिना दायर की जाती हैं, तो वे अमान्य और निरस्त की जाएंगी।

यह निर्णय न्यायिक विवेक, विधिक प्रक्रिया और मौलिक अधिकारों के संतुलित प्रयोग का आदर्श उदाहरण है।