“गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा झूठे और अस्पष्ट आरोपों पर दर्ज एफआई

लेख शीर्षक:
“गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा झूठे और अस्पष्ट आरोपों पर दर्ज एफआईआर को रद्द करने का ऐतिहासिक निर्णय”
(Misuse of Criminal Law in Matrimonial Disputes: Gujarat HC Quashes Vague FIR under Section 498A IPC)


भूमिका:
वैवाहिक विवादों में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A, 406, 420 आदि का दुरुपयोग लंबे समय से चिंता का विषय रहा है। गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में ऐसे ही एक मामले में दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया, जिसमें आरोप सामान्य, अस्पष्ट और तथ्यों से रहित थे। यह निर्णय न्यायिक विवेक और आपराधिक कानूनों के अनुचित प्रयोग पर नियंत्रण की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।


मामले का संक्षिप्त विवरण:
इस मामले में, पत्नी द्वारा पति, उसके माता-पिता, रिश्तेदारों और यहाँ तक कि अपनी ननद (जो उस समय अलग रहती थी) के खिलाफ विभिन्न गंभीर धाराओं के अंतर्गत प्राथमिकी (FIR) दर्ज कराई गई थी। आरोपों में शामिल थीं:

  • क्रूरता (Section 498A IPC)
  • शारीरिक हमला (Section 323 IPC)
  • गाली-गलौज (Section 504 IPC)
  • आपराधिक धमकी (Section 506(2) IPC)
  • धोखाधड़ी और बेईमानी (Sections 406 & 420 IPC)
  • साजिश (Section 114 IPC)
  • साथ ही, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत एफआईआर रद्द करने की मांग की।

अदालत की दृष्टिकोण और तर्क:

  1. विशिष्ट घटनाओं का अभाव:
    • अदालत ने स्पष्ट किया कि एफआईआर में आरोपों के समर्थन में कोई विशेष या दिनांकित घटनाएं नहीं दी गईं थीं।
    • केवल सामान्य और व्यापक आरोप थे, जो क़ानूनी रूप से पर्याप्त नहीं हैं।
  2. ननद पर आरोप निराधार:
    • जिस बहन (ननद) पर आरोप लगाया गया था, वह कथित घटनाक्रम के दौरान उस घर में रह ही नहीं रही थी।
    • इस आधार पर अदालत ने कहा कि इस प्रकार का आरोप “संदेह की छाया में” है।
  3. एफआईआर में साक्ष्य का अभाव:
    • अदालत ने कहा कि प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों को प्रमाणित करने के लिए कोई प्राथमिक या ठोस सबूत नहीं दिया गया।
  4. धारा 482 CrPC के अंतर्गत हस्तक्षेप:
    • अदालत ने कहा कि जब आरोप प्रथम दृष्टया ही मनगढंत या अस्पष्ट हों, तो न्यायालय को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत एफआईआर और आगे की कार्यवाही को रद्द करने का अधिकार है।
    • इस अधिकार का प्रयोग “न्याय के हित में” किया गया।

न्यायालय का निष्कर्ष:
गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि –

  • आरोप निराधार, सामान्य और तथ्यविहीन हैं।
  • अभियुक्तों को अनावश्यक रूप से आपराधिक प्रक्रिया में घसीटा जा रहा है।
  • इसलिए, FIR और उससे संबंधित सभी कानूनी कार्यवाहियों को रद्द किया जाता है।

न्यायिक दृष्टिकोण का महत्व:
यह निर्णय कई मामलों में एक नज़ीर (precedent) के रूप में कार्य करेगा, जहाँ वैवाहिक विवादों को व्यक्तिगत बदले की भावना से आपराधिक मुकदमों में बदलने का प्रयास किया जाता है।
अदालत ने दोहराया कि दंड कानून का उद्देश्य न्याय सुनिश्चित करना है, न कि व्यक्तिगत प्रतिशोध का माध्यम बनना।


निष्कर्ष:
गुजरात उच्च न्यायालय का यह निर्णय न्यायिक विवेक और संतुलन का उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ न्यायालय ने आरोपों की सत्यता का परीक्षण करते हुए विधिक प्रक्रिया का अनुचित दुरुपयोग रोका। इस फैसले से उन निर्दोष व्यक्तियों को राहत मिलेगी जो झूठे और अस्पष्ट आरोपों के चलते वर्षों तक न्यायिक प्रक्रिया में फंसे रहते हैं।