शीर्षक: “गुजरात उच्च न्यायालय का महत्वपूर्ण निर्णय: संपत्ति कानून में ‘Lis Pendens’ के सिद्धांत की पुनर्व्याख्या और आदेश 1 नियम 10 तथा आदेश 6 नियम 17 के संयुक्त प्रयोग की वैधता”
प्रस्तावना:
संपत्ति विवादों में “Lis Pendens” का सिद्धांत एक केंद्रीय भूमिका निभाता है। भारतीय ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1882 की धारा 52 इस सिद्धांत को विधिक आधार देती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि न्यायालय के समक्ष लंबित विवाद को किसी तीसरे पक्ष द्वारा प्रभावित न किया जाए। गुजरात उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक मामले में इस सिद्धांत की सीमाओं और व्यावहारिक अनुप्रयोग पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है।
मामले की पृष्ठभूमि:
इस केस की शुरुआत वादियों (plaintiffs) द्वारा विवादित संपत्ति के बंटवारे और पृथक कब्जे के लिए दायर मुकदमे से हुई। मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान, प्रतिवादियों ने उक्त संपत्ति को एक तीसरे पक्ष को विक्रय कर दिया। परिणामस्वरूप, वादियों ने इस तीसरे पक्ष (subsequent purchaser) को प्रतिवादी के रूप में सम्मिलित करने के लिए और प्लेंट में संशोधन हेतु, CPC के आदेश 1 नियम 10 और आदेश 6 नियम 17 के तहत संयुक्त आवेदन प्रस्तुत किया।
विधिक प्रश्न:
- क्या ट्रायल कोर्ट में लंबित वाद के दौरान संपत्ति की बिक्री lis pendens के सिद्धांत का उल्लंघन है?
- क्या बिना धारा 52 T.P. Act के तहत नोटिस के पंजीकरण के, वादी तीसरे पक्ष को पक्षकार बना सकते हैं?
- क्या CPC के आदेश 1 नियम 10 और आदेश 6 नियम 17 का संयुक्त प्रयोग वैध है?
न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ:
- Lis Pendens का सिद्धांत:
उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब संपत्ति विवाद न्यायालय में लंबित हो, तो उस संपत्ति का किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरण lis pendens सिद्धांत के अधीन होता है, भले ही हस्तांतरित करने वाला पक्षकार उस पर अधिकार जताता हो। - धारा 52 के तहत पंजीकरण की आवश्यकता:
अदालत ने यह माना कि T.P. Act की धारा 52 के तहत संपत्ति विवाद का नोटिस यदि रजिस्टर नहीं किया गया है, तो यह lis pendens सिद्धांत को पूरी तरह निष्क्रिय नहीं करता। इसका मतलब यह नहीं कि तीसरे पक्ष को मुकदमे से बाहर रखा जाए, यदि उसकी उपस्थिति न्यायिक निर्णय के लिए आवश्यक हो। - पक्षकार के रूप में सम्मिलन (O.1 R.10 CPC):
यदि कोई तीसरा पक्ष, संपत्ति का नया क्रेता बन चुका है और वाद उस संपत्ति से संबंधित है, तो उसे पक्षकार बनाया जा सकता है, क्योंकि उसका विवाद पर सीधा प्रभाव पड़ता है। - संशोधन आवेदन (O.6 R.17 CPC):
प्लेंट में संशोधन करना आवश्यक हो जाता है जब कोई नई परिस्थिति उत्पन्न हो, जिससे वादी के दावे की प्रकृति या तथ्य में परिवर्तन आए। लेकिन इसका प्रत्येक केस के तथ्यों के अनुसार परीक्षण होना चाहिए। - संयुक्त आवेदन की वैधता:
उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश 1 नियम 10 और आदेश 6 नियम 17 के तहत एक साथ आवेदन करना कानूनी रूप से अव्यवस्थित (legally untenable) है, क्योंकि इन दोनों प्रक्रियाओं की प्रकृति भिन्न है और उन्हें पृथक रूप से प्रस्तुत किया जाना चाहिए था।
न्यायालय का निर्णय:
गुजरात उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के आदेश को निरस्त (set aside) करते हुए मामला फिर से विचार हेतु निचली अदालत को वापस भेज दिया (remand)। यह स्पष्ट किया गया कि यद्यपि खरीदार को पक्षकार बनाया जा सकता है, लेकिन संयुक्त आवेदन विधिक दृष्टिकोण से स्वीकार्य नहीं था।
निष्कर्ष:
यह निर्णय संपत्ति कानून के क्षेत्र में lis pendens के सिद्धांत की प्रभावशीलता और व्यावहारिक उपयोग की एक सशक्त मिसाल प्रस्तुत करता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान यदि संपत्ति का स्थानांतरण होता है, तो नए खरीदार की भूमिका न्याय के निष्पक्ष निर्धारण के लिए अनिवार्य हो सकती है, परंतु प्रक्रियात्मक शुद्धता भी उतनी ही आवश्यक है।