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“गवाह भी देंगे आवाज़ का नमूना: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय, Article 20(3) नहीं होगा लागू”

“गवाही नहीं, मातृभाषा नहीं — सिर्फ सामग्री: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कि न्यायालय गवाहों से भी आवाज़ का नमूना ले सकते हैं; Article 20(3) का उल्लंघन नहीं”


प्रस्तावना

भारतीय आपराधिक प्रक्रिया में अक्सर यह प्रश्न उठता है कि न्यायिक मजिस्ट्रेटों (Magistrate) को किन परिस्थितियों में यह शक्ति है कि वे जांच के दौरान आरोपी अथवा गवाह से voice sample (आवाज़ का नमूना) प्राप्त करने का आदेश दें। विशेष रूप से Article 20(3) — जो “कोई व्यक्ति आरोपी अवस्था में होने पर खुद के खिलाफ गवाही देने के लिए विवश न हो” — की रक्षा को देखते हुए यह शक्ति कितनी संवैधानिक रूप से सुरक्षित है, यह विवादित रहा है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट (Chief Justice B. R. Gavai और Justice K. Vinod Chandran की बेंच) ने यह स्पष्ट किया कि मजिस्ट्रेट न्यायिक शक्ति द्वारा आरोपी और गवाह दोनों से voice sample लेने का आदेश दे सकते हैं, और इस तरह की कार्रवाई Article 20(3) के तहत आत्म- incrimination (स्वयं-आप के खिलाफ गवाही) के अधिकार का उल्लंघन नहीं करती।

यह निर्णयProcedural Law में voice sampling की शक्ति को और अधिक व्यापक बनाता है, और यह तय करता है कि voice sample, fingerprint, handwriting आदि को testimonial evidence नहीं मानते हुए “material evidence” की श्रेणी में देखा जाना चाहिए। इस लेख में हम इस निर्णय के इतिहास, तर्क, संवैधानिक आयाम, आलोचनाएँ, और इसके प्रभावों का गहन विश्लेषण करेंगे।


पिछला इतिहास और प्रीसेडेंट-केस

इस निर्णय से पहले भी न्यायालयों ने आरोपी से voice sample लेने के अधिकार पर कुछ निर्णय दिये हैं:

  1. Ritesh Sinha v. State of Uttar Pradesh & Anr. (2019)
    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा कि मजिस्ट्रेट को शिकायत-क्रिया (investigation) के लिए voice sample लेने की शक्ति है, भले ही CrPC में कोई स्पष्ट प्रावधान न हो। यह शक्ति न्यायशास्त्र और न्यायालय की inherent powers तथा धार्मिक & विधिक व्याख्या द्वारा मान्य हुई।
  2. High Court निर्णय एवं विभिन राज्य स्तर के फैसले
    — मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने R.K. Akhande vs. Special Police Establishment जिन्दगी मामलों में इस सिद्धांत को दोहराया कि मजिस्ट्रेट voice sample लेकर Article 20(3) का उल्लंघन नहीं करता।
    — राजस्थान हाई कोर्ट ने भी मामले Badri Prasad Meena v. CBI में यह माना कि Section 349 के अधीन मजिस्ट्रेट को voice sample लेने का अधिकार है और यह अवैध नहीं है।
  3. संशाधित कानून / नवीन प्रावधान
    —टा Code of Criminal Procedure (CrPC) में explicit प्रावधान न होने के बावजूद, न्यायालयों ने इस शक्ति को न्यायशास्त्र की व्याख्या के आधार पर स्वीकार किया।
    — B.N.S.S. (Bhartiya Nagarik Suraksha Sanhita), 2023 में Section 349 के माध्यम से voice sample लेने की शक्ति को स्पष्ट रूप से मान्यता मिली है।

सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा निर्णय — तर्क और न्याय

तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

  • मामला एक घटना से शुरू हुआ जहाँ एक महिला की मृत्यु हुई थी, और उसके परिवार और उसके ससुराल पक्ष के बीच आरोप-प्रतिरोप हुए। जांच के दौरान पुलिस ने यह दावा किया कि एक गवाह ने विरोधी पक्ष की ओर से आवाज़ से धमकी दी थी जिसका रिकॉर्डिंग मौजूद थी। investigador ने उस गवाह से voice sample मांगा जिसे मजिस्ट्रेट ने स्वीकृत किया। बाद में व्यक्ति ने मजिस्ट्रेट के आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी।
  • Calcutta High Court ने यह आदेश रद्द कर दिया, इस आधार पर कि CrPC में explicit प्रावधान नहीं है और यह विषय सुप्रीम कोर्ट के Larger Bench के समक्ष है।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने निम्न तर्कों के आधार पर High Court का आदेश रद्द करते हुए मजिस्ट्रेट का आदेश बहाल किया:

  1. व्यक्ति और गवाह दोनों को voice sample का आदेश दिया जा सकता है
    कोर्ट ने कहा कि “a person” शब्द प्रयोग Ritesh Sinha फैसले में जानबूझ कर किया गया था ताकि इस शक्ति को सिर्फ आरोपी तक सीमित न रखा जाय। इसीलिए मजिस्ट्रेट गवाह से भी sample लेने का आदेश दे सकते हैं।
  2. Samplings जैसे voice, fingerprints, handwriting, DNA आदि testimonial नहीं हैं, बल्कि material evidence हैं
    न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि केवल voice sample देना खुद में दायित्वपूर्ण गवाही देना नहीं है। यह sample प्रयोग जांच-संसाधन (investigative comparison) के लिए है, न कि गवाह को खुद आरोप-प्रक्रिया में बोलने के लिए मजबूर करना।
  3. Article 20(3) की रक्षा
    Article 20(3) कहता है कि कोई व्यक्ति आरोपी होने के बाद खुद के विरुद्ध गवाही देने के लिए मजबूर न हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अधिकार सिर्फ testimonial compulsion से जुड़ा है — अर्थात् जब व्यक्ति को शब्दों में बयान देना पड़े जो उसके ज्ञान, सोच या याद के आधार पर हों। sample collection ऐसा नहीं है।
  4. Statutory मान्यता
    B.N.S.S. 2023 की धारा 349 में विशेष प्रावधान है कि मजिस्ट्रेट इस तरह का आदेश दे सकता है। यह शक्ति अब विधि द्वारा सुस्पष्ट रूप से मान्यता प्राप्त है।
  5. High Court ने binding precedent की अवहेलना की
    सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि हाई कोर्ट का यह कहना कि Larger Bench के निर्णय की प्रतीक्षा होनी चाहिए, जब कि Ritesh Sinha एवं अन्य binding precedents मौजूद हैं, न्यायशास्त्र की प्रथा नहीं है। precedent पालन जरूरी है।

संवैधानिक और विधिक आयाम

Article 20(3) — “Right against self-incrimination”

  • संविधान का अनुच्छेद 20(3) कहता है:

    “No person accused of any offence shall be compelled to be a witness against himself.”

  • “विटनेस / गवाही” का अर्थ है वह जो व्यक्ति स्वयं बोले, लिखे या मौखिक / लिखित बयान दे, जो उसके अनुभव या ज्ञानीता (personal knowledge) पर आधारित हो। ऐसा बयान देना होता है जहाँ व्यक्ति अपने शब्दों से अपना अपराध स्वीकार करे।
  • लेकिन voice sample, fingerprint आदि सिर्फ तुलनात्मक सामग्री (comparative material) हैं — व्यक्ति उन्हें अपनी इच्छा से दे सकता है (या आदेश के तहत), परंतु वे स्वयं किसी तथ्य का “कहना” नहीं करते। इसमें व्यक्ति को अपनी सोच, यथार्थ या अनुभव साझा नहीं करना पड़ता। इसलिए यह testimonial compulsion नहीं माना जाता।

न्यायशास्त्र में material evidence vs testimonial evidence

  • न्यायालयों ने कई मामलों में निर्णय दिया है कि प्रमाणों की श्रेणियाँ होती हैं — मौखिक गवाही, लिखित बयान, दस्तावेज, और पदार्थ प्रमाण (material / physical evidence) जैसे हस्ताक्षर, हस्तरेखा, ऊँगली के निशान आदि।
  • material evidence वे सब हैं जो व्यक्ति की जैविक / भौतिक विशेषताओं के आधार पर तुलना की जा सकती हैं, न कि ज्ञान के आधार पर बयान। voice sample उसी तरह से material है क्योंकि यह ध्वनि का नमूना है, जिसे रिकॉर्ड किया गया रिकॉर्डिंग से तुलना की जा सकती है।

मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ और विधि की व्याख्या

  • भले ही CrPC में explicit धारा पहले न हो, न्यायालयों ने judicial interpretation द्वारा मजिस्ट्रेट को यह शक्ति दी है (Ritesh Sinha आदि मामलों में)।
  • इसके बाद विधायी संशोधन BNSS 2023 ने इस शक्ति को स्पष्ट रूप से Section 349 में मान्यता दी।

आलोचनाएँ और संभावित चुनौतियाँ

हालाँकि यह निर्णय कई स्तरों पर प्रसिद्धि और उपयोगिता लाता है, लेकिन इस पर कुछ विवाद और चिंताएँ भी हैं:

  1. स्वचालित उपयोग और दुरुपयोग की आशंका
    न्यायालय की अनुमति के बिना voice sample लेना संभव न हो, लेकिन पुलिस या जांच एजेंसियाँ इस शक्ति का दुरुपयोग कर सकती हैं। यदि मजिस्ट्रेट “notice” और प्रक्रिया का पालन न करे, तो व्यक्ति के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं।
  2. गवाह की स्थिति
    जब गवाह को voice sample देने का आदेश दिया जाए, गवाह की सुरक्षा, उसकी मानसिक स्थिति, उत्पीड़न या दबाव का डर — ये सारे कारक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। अगर गवाह को डर हो कि sample देना उसे आरोपी की स्थिति में ला सकता है, तो न्यायिक व्यवस्था को उसे आश्वासन देना होगा कि sample मात्र तुलना के उद्देश्य से है।
  3. परिस्थिति और प्रकृति का फर्क
    सभी परिस्थितियों में sample लेना समान रूप से न्यायोचित नहीं होगा। जैसे threat recording की तुलना करना हो, तो sample की आवश्यकता बलशाली हो सकती है, लेकिन यदि sample लेने का आदेश सिर्फ शंका के आधार पर हो, तो न्यायालयों को अधिक संयम दिखाना होगा।
  4. प्रक्रिया न्याय (Due Process) की गारंटी
    आदेश देने से पहले मजिस्ट्रेट को सुनिश्चित करना होगा कि आरोपी / witness को अपनी बात कहने, आपत्ति उठाने व सुनने का अवसर मिले। यदि इस उपाय से किसी प्रकार का prejudice (हानि) हो, तो यह constitutional न्यायशास्त्र के अनुरूप नहीं होगा।
  5. नियमावली और विधि की स्पष्टता
    BNSS कानून नया है, और CrPC का नया प्रावधान नहीं दिखाता था कि यह शक्ति कब और कैसे प्रयोग होगी। उदाहरण स्वरूप, आदेश देने के समय किन मानदंडों की पूर्ति होनी चाहिए (recorded conversation, suspicion की स्थिरता, श्रेय-साक्ष्य आदि) — ये मानदंड स्पष्ट नहीं हो सकते हैं।

प्रभाव और भविष्य की दिशा

यह निर्णय आपराधिक जांच और न्यायिक प्रक्रिया में कई तरह के प्रभाव डालेगा:

  1. जांच एजेंसियों की कार्यक्षमता बढ़ेगी
    पुलिस और अन्य एजेंसियों को ऐसे मामलों में स्पष्ट आधार मिलेगें कि वे voice sample आदि के माध्यम से recorded evidence की तुलना करें ताकि सत्यता स्थापित हो सके।
  2. गवाहों की भूमिका और अधिकारों की सुरक्षा
    अब सिर्फ आरोपी नहीं, गवाह भी इस तरह के आदेश के दायरे में होंगे — इसका अर्थ है कि जांच अधिक संपूर्ण हो सकती है। लेकिन साथ ही गवाहों को विधि प्रक्रिया में पारदर्शिता, सुरक्षा और न्यायसंगत सुनवाई की गारंटी मिलेगी।
  3. Article 20(3) की सीमाएँ स्पष्ट हुईं
    यह निर्णय बताता है कि वेबसाइट संकल्पना नहीं कि किसी तरह की physical or material sampling testimonial compulsion है। इस तरह की सीमाएँ न्यायालयों द्वारा समय-समय पर परिभाषित होती रहनी चाहिए।
  4. न्यायशास्त्र एवम् विधिक शिक्षा का विकास
    कानून प्रशिक्षकों, विधि छात्रों, पुलिस अधिकारियों आदि के लिए इस तरह के निर्णय महत्वपूर्ण उदाहरण होंगे — कि कैसे constitutional rights और investigative powers के बीच संतुलन स्थापित किया जाता है।
  5. संभव विवाद / कानूनी चुनौतियाँ आगे आएँगी
    इस तरह के आदेशों के चलते कई मामले हाई कोर्ट / सुप्रीम कोर्ट में चुनौती के दौर से गुज़रेंगे — जैसे कि आदेश देने का आधार क्या था, क्या गवाह के अधिकारों पर अनावश्यक दबाव पड़ा, आदि।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह ताज़ा निर्णय (Magistrates can direct voice samples from witnesses, not just accused; Article 20(3) not violated) आपराधिक न्याय प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है।

मुख्य बिंदु:

  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि voice sample देना testimonial गवाही नहीं है, बल्कि material evidence है।
  • मजिस्ट्रेट की शक्ति इस प्रकार की sampling के लिए न्यायिक precedent और BNSS, 2023 के प्रावधान से समर्थित है।
  • Article 20(3) का अधिकार सुरक्षित है, क्योंकि यह सिर्फ कानूनी बयान/स्वीकृति (testimonial confession) से संबंधित है — न कि भौतिक नमूने देने से।
  • यह निर्णय अभियोजन पक्ष और जांच एजेंसियों को अधिक स्पष्ट और न्यायोचित आधार देता है, जिससे जांच अधिक वैज्ञानिक/तकनीकी और तुलनात्मक-मुखी हो सके।
  • लेकिन साथ ही, न्यायप्रक्रिया की पारदर्शिता, गवाहों की सुरक्षा और आदेश देने की प्रेरणा (motive) व प्रक्रिया की शुद्धता सुनिश्चित होनी चाहिए।

यह निर्णय यह दर्शाता है कि भारतीय न्याय प्रणाली लगातार विकसित हो रही है — जहां संवैधानिक अधिकारों का सम्मान और investigative efficacy दोनों को एक साथ संभाला जा सकता है।