गर्भपात का अधिकार बनाम भ्रूण का जीवन अधिकार
(Right to Abortion vs. Right to Life of the Foetus)
एक संवैधानिक, नैतिक और विधिक विमर्श
परिचय
गर्भपात (Abortion) के अधिकार और भ्रूण (Foetus) के जीवन के अधिकार के बीच का संघर्ष एक जटिल और संवेदनशील विषय है, जो नैतिक, कानूनी, धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोणों से लगातार बहस में रहा है। एक ओर जहां स्त्री के पास अपने शरीर पर नियंत्रण और निजी निर्णय लेने का अधिकार है, वहीं दूसरी ओर भ्रूण को जीवन का मौलिक अधिकार मिलना चाहिए या नहीं – यह प्रश्न समाज और कानून के समक्ष एक नैतिक द्वंद्व खड़ा करता है।
यह लेख भारतीय कानून, अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य, धार्मिक विचारों, नैतिक सिद्धांतों और महिला अधिकारों के संदर्भ में इस टकरावपूर्ण मुद्दे की विस्तृत विवेचना करता है।
1. गर्भपात का अधिकार: महिला की स्वतंत्रता और निजता का मूल हिस्सा
(क) संवैधानिक परिप्रेक्ष्य
भारत में महिला को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार” प्राप्त है। इस अनुच्छेद की व्यापक व्याख्या में ‘स्वास्थ्य’, ‘निजता’, और ‘स्वेच्छा से निर्णय लेने’ का अधिकार सम्मिलित माना गया है। सुप्रीम कोर्ट ने “के.एस. पुत्तुस्वामी बनाम भारत सरकार (2017)” के ऐतिहासिक निर्णय में निजता को मौलिक अधिकार घोषित किया, जो गर्भपात के अधिकार को बल प्रदान करता है।
(ख) मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (MTP Act)
इस कानून के अंतर्गत कुछ परिस्थितियों में गर्भपात को वैध माना गया है, जैसे:
- गर्भवती महिला का जीवन या मानसिक/शारीरिक स्वास्थ्य संकट में हो।
- भ्रूण में कोई गंभीर विकृति हो।
- बलात्कार या गर्भ निरोधक विफलता के कारण गर्भ ठहरा हो।
2021 में इस कानून में संशोधन कर 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति दी गई कुछ विशेष श्रेणियों की महिलाओं के लिए, जो महिला अधिकारों की दिशा में बड़ा कदम था।
2. भ्रूण का जीवन अधिकार: एक अस्मिता की प्रारंभिक अभिव्यक्ति
(क) कब से प्रारंभ होता है ‘जीवन’?
जीवन की शुरुआत को लेकर जैविक और धार्मिक मत विभिन्न हैं। कुछ मानते हैं कि जीवन गर्भाधान (conception) से शुरू होता है, जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता है कि भ्रूण को एक ‘व्यक्ति’ नहीं माना जा सकता जब तक वह गर्भ के बाहर स्वतंत्र रूप से जीवित रहने में सक्षम न हो (viability), जो लगभग 20 से 24 सप्ताह माना जाता है।
(ख) भारत में भ्रूण का अधिकार
हालांकि भारत के संविधान में भ्रूण को विशिष्ट रूप से जीवन का अधिकार नहीं दिया गया है, परंतु कुछ न्यायिक टिप्पणियों में भ्रूण के संरक्षण का समर्थन किया गया है, जैसे कि:
- Suchita Srivastava v. Chandigarh Administration (2009) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महिला की सहमति सर्वोपरि है, लेकिन राज्य नीतियों में “भ्रूण के संरक्षण” की भी भूमिका हो सकती है।
(ग) नैतिक दृष्टिकोण
कई नैतिक विचारधाराएं जैसे Kantian Ethics या Catholic Doctrine, भ्रूण को आरंभिक अवस्था से ही नैतिक अस्तित्व प्रदान करती हैं। उनका मानना है कि जीवन चाहे किसी भी अवस्था में हो, उसकी हत्या (या समाप्ति) अनैतिक है।
3. टकराव की संवेदनशीलता: महिला बनाम भ्रूण
यह द्वंद्व महिला के स्वायत्तता और भ्रूण के अस्तित्व के अधिकार के बीच है। इसका समाधान केवल कानून से नहीं, बल्कि समाज की संवेदनशीलता, वैज्ञानिक समझ और महिला के मानवाधिकारों की स्वीकार्यता से ही संभव है।
पक्ष | महिला का अधिकार | भ्रूण का अधिकार |
---|---|---|
कानूनी आधार | अनुच्छेद 21 – जीवन और स्वतंत्रता | जीवन का स्पष्ट संवैधानिक अधिकार नहीं |
व्यावहारिक पहलू | स्वास्थ्य, सामाजिक स्थिति, इच्छा | जीवन का नैतिक मूल्य |
नैतिक तर्क | आत्मनिर्णय का सम्मान | जीवन की पवित्रता |
4. अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण
(क) संयुक्त राज्य अमेरिका
- Roe v. Wade (1973) ने महिला के गर्भपात के अधिकार को मान्यता दी, जिसे Dobbs v. Jackson (2022) में पलट दिया गया, जिससे गर्भपात पर प्रतिबंध बढ़ गए।
(ख) आयरलैंड
- लंबे समय तक सख्त गर्भपात विरोधी कानून रहे, परंतु 2018 में जनमत संग्रह के माध्यम से उदार नीतियाँ लागू की गईं।
(ग) जर्मनी और फ्रांस
- इन देशों में सीमित परिस्थितियों में गर्भपात की अनुमति है, लेकिन भ्रूण के जीवन की रक्षा भी प्राथमिकता मानी जाती है।
5. धार्मिक दृष्टिकोण
धर्म | दृष्टिकोण |
---|---|
हिंदू धर्म | भ्रूणहत्या को पाप माना गया है, लेकिन बलात्कार या खतरे की स्थिति में सहिष्णुता संभव |
ईसाई धर्म | कैथोलिक दृष्टिकोण से जीवन गर्भाधान से प्रारंभ होता है; गर्भपात को पाप |
इस्लाम | गर्भपात पहले 120 दिनों तक कुछ शर्तों के साथ स्वीकार्य हो सकता है |
बौद्ध धर्म | जीवन को पवित्र मानते हैं; गर्भपात अनैतिक परंतु करुणा के आधार पर विचार संभव |
6. संभावित समाधान और संतुलन
- महिला की गरिमा का सम्मान करें: जब तक भ्रूण स्वयं निर्णय लेने या जीवित रहने में असमर्थ है, तब तक महिला का निर्णय प्रधान होना चाहिए।
- समय की सीमा निर्धारित करें: वैज्ञानिक viability को ध्यान में रखते हुए गर्भपात की सीमा तय करना (जैसे 20 या 24 सप्ताह)।
- परामर्श और काउंसलिंग आवश्यक: महिला को उचित जानकारी और परामर्श देकर निर्णय की प्रक्रिया को सशक्त बनाया जा सकता है।
- कानूनी रूप से संतुलन बनाना: महिला के अधिकार को संरक्षित करते हुए, भ्रूण के जीवन को भी सम्मान देना—यह विधायिका और न्यायपालिका की जिम्मेदारी है।
निष्कर्ष
“गर्भपात का अधिकार बनाम भ्रूण का जीवन अधिकार” केवल कानूनी विवाद नहीं, बल्कि यह एक गहरी नैतिक, मानवीय और सामाजिक बहस है। आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्रों में महिला की स्वायत्तता और निर्णय लेने का अधिकार सर्वोपरि है, लेकिन समाज और कानून को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह अधिकार विवेकपूर्ण, सुरक्षित और न्यायोचित रूप से प्रयोग हो।
भारतीय संदर्भ में हमें एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें महिला के मानवाधिकार और भ्रूण के संभावित जीवन का उचित समन्वय किया जा सके।