गर्भपात कानून पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का विश्लेषण
प्रस्तावना
गर्भपात (Abortion) एक संवेदनशील और बहुआयामी कानूनी, नैतिक, सामाजिक तथा चिकित्सा विषय है। यह न केवल महिला के शरीर और उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़ा है, बल्कि अजन्मे भ्रूण के जीवनाधिकार, राज्य के नैतिक कर्तव्यों तथा सामाजिक मूल्यों से भी संबंधित है। भारत में गर्भपात का कानूनी ढांचा मुख्यतः चिकित्सकीय गर्भपात अधिनियम, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act, 1971) पर आधारित है। समय-समय पर भारतीय न्यायपालिका, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए हैं, जिनसे महिला अधिकारों, निजता और गरिमा के सिद्धांतों को नई दिशा मिली है।
गर्भपात कानून का कानूनी ढांचा
भारत में गर्भपात को लेकर सबसे प्रमुख कानून Medical Termination of Pregnancy (MTP) Act, 1971 है। इस अधिनियम के तहत—
- 20 सप्ताह तक के गर्भ को चिकित्सीय कारणों से समाप्त करने की अनुमति दी गई है।
- यदि गर्भ महिला के जीवन के लिए जोखिमपूर्ण हो या भ्रूण में गंभीर विकृति हो, तो गर्भपात अनुमत है।
- 2021 में संशोधन के बाद यह सीमा कुछ परिस्थितियों में 24 सप्ताह तक बढ़ाई गई।
- बलात्कार, नाबालिग गर्भवती और यौन शोषण से उत्पन्न गर्भ के मामलों में न्यायिक अनुमति से गर्भपात किया जा सकता है।
इस कानून का उद्देश्य महिलाओं को असुरक्षित गर्भपात से बचाना, उनके स्वास्थ्य की रक्षा करना और उन्हें प्रजनन संबंधी निर्णयों में स्वायत्तता देना है।
महत्वपूर्ण सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का विश्लेषण
1. Suchita Srivastava v. Chandigarh Administration (2009)
यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
- महिला को अपने शरीर पर पूर्ण अधिकार है।
- गर्भपात का निर्णय उसका व्यक्तिगत और प्रजनन अधिकार है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार” में निहित है।
- राज्य किसी भी महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध गर्भ जारी रखने या समाप्त करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
इस फैसले ने पहली बार स्पष्ट रूप से reproductive autonomy (प्रजनन स्वायत्तता) को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी।
2. X v. Union of India (2017)
इस मामले में 22 सप्ताह की गर्भवती महिला ने भ्रूण में गंभीर हृदय विकृति के कारण गर्भपात की अनुमति मांगी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि—
- महिला का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।
- यदि चिकित्सा बोर्ड यह राय देता है कि भ्रूण असंगत जीवन जी पाएगा, तो गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है।
यह निर्णय महिला की मानव गरिमा (dignity) और मानसिक स्वास्थ्य को कानूनी महत्व देने वाला रहा।
3. XYZ v. State of Maharashtra (2021)
इस मामले में 26 सप्ताह के गर्भ के गर्भपात की अनुमति मांगी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा—
- “प्रजनन अधिकार” केवल गर्भधारण तक सीमित नहीं है, बल्कि गर्भपात का निर्णय भी इसी अधिकार का हिस्सा है।
- राज्य का यह दायित्व है कि वह महिलाओं को सुरक्षित चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराए ताकि वे अपने निर्णय स्वतंत्र रूप से ले सकें।
यह निर्णय 2021 के MTP Amendment Act की भावना को पुष्ट करता है, जिसने महिला की स्वायत्तता को प्राथमिकता दी।
4. X v. Principal Secretary, Health and Family Welfare Department (2022)
यह अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा—
- अविवाहित महिलाओं को भी विवाहित महिलाओं के समान गर्भपात का अधिकार है।
- अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 21 (जीवन का अधिकार) के तहत किसी भी महिला के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता।
- “महिला” शब्द का अर्थ केवल विवाहित महिला तक सीमित नहीं है।
इस निर्णय ने सामाजिक दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन लाया, क्योंकि इसने एकल मातृत्व और महिला की स्वतंत्रता को संवैधानिक संरक्षण दिया।
5. High Court and Supreme Court Trends (2023–2024)
हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न मामलों में यह भी कहा है कि—
- गर्भपात के निर्णय में चिकित्सकों की राय सर्वोपरि होनी चाहिए, परंतु अंतिम निर्णय महिला की इच्छा पर आधारित होगा।
- यदि किसी स्थिति में गर्भवती महिला मानसिक या शारीरिक रूप से असमर्थ हो, तो न्यायालय उसकी भलाई के आधार पर निर्णय करेगा।
- प्रजनन अधिकारों को अब “निजता के अधिकार (Right to Privacy)” के साथ जोड़ा गया है, जैसा कि Justice K.S. Puttaswamy v. Union of India (2017) में घोषित किया गया था।
संविधानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
1. अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गर्भपात संबंधी अधिकार सभी महिलाओं को समान रूप से मिलने चाहिए, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित। किसी प्रकार का भेदभाव अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
2. अनुच्छेद 21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार
गर्भपात का निर्णय महिला के जीवन, स्वास्थ्य और गरिमा से जुड़ा है। Suchita Srivastava केस ने इसे मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया।
3. अनुच्छेद 19(1)(a) – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय
गर्भपात के निर्णय में महिला की आत्मनिर्णय क्षमता को इस अनुच्छेद के तहत देखा गया है।
नैतिक और सामाजिक पहलू
गर्भपात पर विवाद अक्सर नैतिक दृष्टिकोण से भी उठता है। एक पक्ष इसे “भ्रूण के जीवन के अधिकार” से जोड़ता है, जबकि दूसरा पक्ष “महिला की प्रजनन स्वतंत्रता” की बात करता है।
- नैतिक दृष्टि से, यह प्रश्न उठता है कि भ्रूण का जीवन कब से प्रारंभ माना जाए?
- सामाजिक दृष्टि से, भारत में बलात्कार पीड़ितों, नाबालिग लड़कियों और गरीबीग्रस्त महिलाओं के लिए गर्भपात एक जटिल चुनौती है।
- चिकित्सकीय दृष्टि से, देर से गर्भपात स्वास्थ्य के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है, इसलिए कानूनी सीमा निर्धारित की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी पहलुओं का संतुलन बनाते हुए यह माना है कि महिला की स्वायत्तता और गरिमा सर्वोपरि है।
चिकित्सकीय दृष्टिकोण और न्यायपालिका की भूमिका
न्यायपालिका ने चिकित्सकों की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना है। अदालतों ने कहा कि—
- चिकित्सा बोर्ड निष्पक्ष रूप से यह तय करें कि गर्भपात महिला के जीवन या स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है या नहीं।
- डॉक्टरों को महिला की निजता और गरिमा का सम्मान करना चाहिए।
- किसी भी स्थिति में महिला की इच्छा के विरुद्ध गर्भपात या गर्भ जारी रखने का आदेश नहीं दिया जा सकता।
महिलाओं के प्रजनन अधिकार और निजता
2017 के Puttaswamy केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि Right to Privacy (गोपनीयता का अधिकार) अनुच्छेद 21 का अभिन्न हिस्सा है।
इस निर्णय ने गर्भपात के अधिकार को एक नया संवैधानिक आयाम दिया।
अब महिला का अपने शरीर पर नियंत्रण और गर्भपात का निर्णय उसकी निजता और स्वतंत्रता का केंद्र बन गया है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से उत्पन्न प्रभाव
- महिला अधिकारों की मजबूती – अदालतों ने स्पष्ट किया कि प्रजनन निर्णय महिला का ही विशेषाधिकार है।
- कानूनी स्पष्टता – MTP Act को न्यायिक व्याख्याओं से अधिक समावेशी और मानवीय बनाया गया।
- सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन – अविवाहित महिलाओं और बलात्कार पीड़ितों के प्रति दृष्टिकोण उदार हुआ।
- निजता और गरिमा का संरक्षण – हर महिला की पहचान और निर्णय का सम्मान किया गया।
आलोचनात्मक विश्लेषण
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया है, फिर भी कुछ चुनौतियाँ बनी हुई हैं—
- ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षित गर्भपात की सुविधाएँ सीमित हैं।
- कई चिकित्सक सामाजिक दबाव या कानूनी भय के कारण गर्भपात से इनकार कर देते हैं।
- भ्रूण लिंग परीक्षण पर रोक के बावजूद लिंग आधारित गर्भपात की घटनाएँ जारी हैं।
- विधिक ढांचा अभी भी कुछ हद तक चिकित्सा विशेषज्ञों की राय पर निर्भर है, जो महिला की आत्मनिर्णय क्षमता को सीमित कर सकता है।
भविष्य की दिशा
सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों ने यह स्पष्ट किया है कि भविष्य में—
- गर्भपात संबंधी कानूनों में महिला की स्वायत्तता को केंद्र में रखा जाना चाहिए।
- सुरक्षित और सुलभ चिकित्सा सेवाएँ ग्रामीण और शहरी दोनों स्तरों पर सुनिश्चित की जानी चाहिए।
- यौन शिक्षा और जनजागरूकता से समाज में भ्रांतियाँ दूर की जा सकती हैं।
- न्यायपालिका और चिकित्सा संस्थान मिलकर प्रजनन अधिकारों की रक्षा करें।
निष्कर्ष
गर्भपात कानूनों और सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों ने भारतीय विधि प्रणाली को अधिक संवेदनशील, मानवतावादी और प्रगतिशील बनाया है।
अब गर्भपात को केवल चिकित्सा या कानूनी प्रक्रिया नहीं माना जाता, बल्कि इसे महिला के संवैधानिक, नैतिक और व्यक्तिगत अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है।
न्यायपालिका ने बार-बार यह दोहराया है कि महिला की इच्छा सर्वोच्च है — न समाज, न राज्य और न कोई व्यक्ति उसके निर्णय में हस्तक्षेप कर सकता है।
इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका ने भारत को उन देशों की श्रेणी में ला खड़ा किया है जहाँ महिलाओं के प्रजनन अधिकारों को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है।