गर्भपात और LGBTQ+ समुदाय: कानूनी मान्यता और अधिकार
भूमिका
गर्भपात (Abortion) का मुद्दा केवल महिलाओं के प्रजनन अधिकारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन सभी व्यक्तियों के लिए प्रासंगिक है जो गर्भ धारण करने की क्षमता रखते हैं—चाहे वे सिसजेंडर महिलाएँ हों, ट्रांसजेंडर पुरुष, नॉन-बाइनरी या इंटरसेक्स व्यक्ति। LGBTQ+ समुदाय के लिए गर्भपात एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य और मानवाधिकार का विषय है, लेकिन इसकी कानूनी मान्यता, सामाजिक स्वीकृति और व्यावहारिक उपलब्धता अब भी कई देशों और समाजों में चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। भारत में और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, गर्भपात से जुड़ी नीतियों और कानूनों में अक्सर LGBTQ+ समुदाय की विशेष आवश्यकताओं को नजरअंदाज किया जाता है, जिससे यह विषय और भी संवेदनशील हो जाता है।
1. गर्भपात और LGBTQ+ समुदाय का संबंध
गर्भपात के संदर्भ में LGBTQ+ समुदाय की स्थिति को समझने के लिए यह मानना जरूरी है कि—
- ट्रांसजेंडर पुरुष और नॉन-बाइनरी व्यक्ति भी गर्भ धारण कर सकते हैं, और उनके लिए सुरक्षित गर्भपात की उपलब्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सिसजेंडर महिलाओं के लिए।
- समलैंगिक (Lesbian) महिलाएँ या बाइसेक्शुअल महिलाएँ भी अनचाहे गर्भ से गुजर सकती हैं।
- इंटरसेक्स व्यक्ति, जिनके प्रजनन अंग सामान्य जैविक मानकों से अलग होते हैं, कभी-कभी गर्भधारण करने में सक्षम होते हैं और उन्हें भी समान कानूनी अधिकारों की आवश्यकता होती है।
अक्सर, इन समुदायों के लिए गर्भपात का मुद्दा केवल प्रजनन स्वास्थ्य का नहीं, बल्कि उनकी लैंगिक पहचान और यौन अभिविन्यास से जुड़े भेदभाव, गोपनीयता और गरिमा से भी जुड़ा होता है।
2. कानूनी ढांचा और LGBTQ+ अधिकार
भारत में गर्भपात से संबंधित मुख्य कानून है चिकित्सा गर्भपात अधिनियम, 1971 (Medical Termination of Pregnancy Act – MTP Act), जिसे 2021 में संशोधित किया गया।
- यह कानून गर्भपात को कुछ परिस्थितियों में वैध ठहराता है, जैसे गर्भवती व्यक्ति के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य के खतरे, भ्रूण में गंभीर विकृति, या बलात्कार/निकट संबंधी द्वारा उत्पन्न गर्भ।
- लेकिन कानून की भाषा में “महिला” शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे ट्रांसजेंडर पुरुष या नॉन-बाइनरी लोग कानूनी रूप से अस्पष्ट स्थिति में रह जाते हैं।
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार की बात करता है, लेकिन इसमें प्रजनन अधिकार और गर्भपात का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
समस्या यह है कि भारतीय कानून LGBTQ+ समुदाय के लिए गर्भपात को समान रूप से सुलभ और सुरक्षित बनाने में अभी भी स्पष्टता और समावेशन की कमी रखता है।
3. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण
कई देशों ने अपने गर्भपात कानूनों में लैंगिक पहचान को ध्यान में रखना शुरू कर दिया है।
- कनाडा: गर्भपात को पूरी तरह से अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, और स्वास्थ्य सेवाएँ सभी गर्भधारण करने में सक्षम व्यक्तियों के लिए उपलब्ध हैं।
- अर्जेंटीना: 2020 में गर्भपात वैध करते समय कानून में “महिला” के बजाय “गर्भवती व्यक्ति” शब्द का इस्तेमाल किया गया।
- यूएसए: कुछ राज्यों में गर्भपात अधिकार LGBTQ+ व्यक्तियों के लिए सुरक्षित हैं, लेकिन Dobbs v. Jackson फैसले के बाद कई राज्यों में खतरा बढ़ गया है।
- यूरोप के कुछ देश, जैसे स्वीडन और नीदरलैंड, गर्भपात सेवाओं को लैंगिक पहचान-निरपेक्ष भाषा में प्रदान करते हैं।
ये उदाहरण दिखाते हैं कि समावेशी भाषा और नीतियाँ LGBTQ+ समुदाय की कानूनी मान्यता के लिए आवश्यक हैं।
4. कानूनी चुनौतियाँ
LGBTQ+ समुदाय गर्भपात सेवाओं तक पहुँचने में जिन चुनौतियों का सामना करता है, उनमें शामिल हैं:
- कानूनी भाषा का लैंगिक पक्षपात
- अधिकांश कानून केवल “महिला” शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जिससे ट्रांसजेंडर पुरुष और नॉन-बाइनरी लोग तकनीकी रूप से बाहर हो जाते हैं।
- पहचान दस्तावेज़ और मेडिकल रिकॉर्ड
- जिन व्यक्तियों के पहचान पत्र में उनकी लैंगिक पहचान “पुरुष” दर्ज है, उन्हें गर्भपात सेवाओं में बाधा आ सकती है क्योंकि अस्पताल की प्रक्रिया में केवल “महिला” श्रेणी को मान्यता दी जाती है।
- भेदभाव और कलंक
- मेडिकल स्टाफ का LGBTQ+ मुद्दों के प्रति संवेदनशील न होना, अनुचित सवाल पूछना, या सेवाओं से इनकार करना।
- गोपनीयता का उल्लंघन
- ट्रांस और इंटरसेक्स व्यक्तियों के मामले में उनकी लैंगिक पहचान का खुलासा उनकी सहमति के बिना किया जा सकता है, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य और सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।
5. स्वास्थ्य और मानसिक कल्याण
गर्भपात की प्रक्रिया, विशेष रूप से जब व्यक्ति को सामाजिक या कानूनी भेदभाव का सामना करना पड़ता है, मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल सकती है। LGBTQ+ व्यक्तियों के लिए यह प्रभाव और भी गंभीर हो सकता है क्योंकि:
- उन्हें पहले से ही समाज में अलगाव, परिवार से अस्वीकृति और भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
- गर्भपात के समय मेडिकल स्टाफ की असंवेदनशीलता उनके मानसिक तनाव को बढ़ा सकती है।
- ट्रॉमा-इन्फॉर्म्ड केयर (Trauma-informed care) का अभाव, जो LGBTQ+ के लिए बेहद जरूरी है, सेवाओं की गुणवत्ता को कम करता है।
6. नीतिगत सुधार की आवश्यकता
यदि LGBTQ+ समुदाय के लिए गर्भपात अधिकारों को वास्तविक रूप से लागू करना है, तो नीतियों और कानूनों में कुछ अहम बदलाव जरूरी हैं:
- कानून में लैंगिक-निरपेक्ष भाषा – “महिला” की जगह “गर्भवती व्यक्ति” शब्द का उपयोग।
- ट्रांसजेंडर और नॉन-बाइनरी के लिए स्पष्ट प्रावधान – मेडिकल रिकॉर्ड और पहचान दस्तावेज़ के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा।
- मेडिकल स्टाफ का संवेदनशीलता प्रशिक्षण – LGBTQ+ मुद्दों और प्रजनन स्वास्थ्य पर विशेष प्रशिक्षण।
- गोपनीयता और गरिमा की सुरक्षा – मरीज की सहमति के बिना उसकी लैंगिक पहचान का खुलासा न हो।
- सुलभ और सुरक्षित स्वास्थ्य सेवाएँ – ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में गर्भपात सेवाओं की समान उपलब्धता।
7. न्यायिक दृष्टिकोण
भारतीय न्यायपालिका ने कई बार प्रजनन अधिकारों को Article 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का हिस्सा माना है।
- Suchita Srivastava v. Chandigarh Administration (2009) – सुप्रीम कोर्ट ने माना कि प्रजनन संबंधी निर्णय व्यक्ति की स्वायत्तता का हिस्सा हैं।
- हालांकि, इन फैसलों में LGBTQ+ गर्भपात अधिकारों पर विशेष चर्चा नहीं की गई है, जिससे कानूनी स्पष्टता की आवश्यकता बनी हुई है।
8. निष्कर्ष
गर्भपात केवल एक स्वास्थ्य सेवा नहीं, बल्कि यह आत्मनिर्णय, गरिमा और समानता का अधिकार है। LGBTQ+ समुदाय के लिए, जो पहले से ही सामाजिक और कानूनी भेदभाव का सामना करता है, गर्भपात अधिकारों का सुरक्षित और समान रूप से उपलब्ध होना अत्यंत जरूरी है। भारत को अपने गर्भपात कानून और स्वास्थ्य नीतियों में लैंगिक-निरपेक्ष भाषा अपनाने, भेदभाव-विरोधी उपाय लागू करने और मेडिकल स्टाफ को संवेदनशील बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।
यदि समाज और कानून दोनों मिलकर इन अधिकारों को मान्यता दें और उन्हें लागू करें, तो यह न केवल LGBTQ+ समुदाय के प्रजनन अधिकारों को मजबूत करेगा, बल्कि यह एक समावेशी, न्यायपूर्ण और संवेदनशील समाज की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा।