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“खनिज संपदा पर राज्य‑कर की खुली राह — 9‑सदस्यों वाले बेंच के फैसले के खिलाफ केंद्र की कुरेटिव याचिका: केन्द्र–राज्य राजस्व संतुलन पर बड़ा प्रभाव”

“खनिज संपदा पर राज्य‑कर की खुली राह — 9‑सदस्यों वाले बेंच के फैसले के खिलाफ केंद्र की कुरेटिव याचिका: केन्द्र–राज्य राजस्व संतुलन पर बड़ा प्रभाव”


प्रस्तावना: क्या हुआ है — संक्षिप्त पृष्ठभूमि

  • भारत के Supreme Court of India (SC) के 9‑सदस्यीय संविधान बेंच ने 25 जुलाई 2024 को एक ऐतिहासिक निर्णय दिया, जिसमें 8:1 के बहुमत से यह कहा गया कि खनिज (minerals) एवं खनिज‑युक्त भूमि (mineral‑bearing land) के छू‑स्वामित्व (mineral rights / mineral bearing land) पर कर लगाने की संवैधानिक शक्ति राज्यों (States) को है — न कि केवल केन्द्र (Union) को।
  • उसी निर्णय में कहा गया कि खनिज निष्खर्षण के लिए जो “रॉयल्टी (royalty)” दी जाती है, वह कर (tax) नहीं, बल्कि एक संविदात्मक (contractual) भुगतान (consideration) है। इस कारण, राज्य “रॉयल्टी” के अलावा अलग से कर अथवा शुल्क लगा सकते हैं।
  • इस फैसले से अनेक खनिज‑समृद्ध राज्यों (जैसे झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, राजस्थान आदि) को अपने भू‑खनिज संसाधनों से राजस्व (tax / cess / surcharge) जुटाने का रास्ता खुल गया।
  • इसके बाद, केंद्र सरकार (Union) ने 23–24 सितंबर 2025 के आसपास, इस फैसले के विरुद्ध “कुरेटिव याचिका (curative petition)” दायर की — यानी इस बहुमत निर्णय की पुनरावलोकन की मांग।

इस लेख में हम देखेंगे कि यह कदम क्यों महत्वपूर्ण है, किन संवैधानिक और व्यावहारिक मुद्‍दों को सामने लाता है, और इसका असर केंद्र–राज्य वित्तीय समन्वय (fiscal federalism) पर कैसे पड़ सकता है।


पृष्ठभूमि — विवाद कैसे उठा, क्या था पुराना न्यायशासन

१. पहले का कानून और न्यायनिर्णय

  • 1957 में पारित हुए Mines and Minerals (Development and Regulation) Act, 1957 (MMDR Act) के तहत, खनिज संसाधनों और खनन संबंधित विनियमन (regulation, leases आदि) का व्यापक ढांचा केन्द्र द्वारा बनाया गया।
  • 1989 में एक 7‑सदस्यीय संविधान बेंच (7‑Judge Bench) ने, India Cements Ltd. v. State of Tamil Nadu के माध्यम से यह फैसला दिया कि राज्य विधायिकाओं (State Legislatures) के पास खनिज अधिकारों (mineral rights) पर कर लगाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि MMDR Act ने सम्पूर्ण क्षेत्र (field) ही व्याप्त कर लिया था।
  • इसी तर्क के आधार पर, कई वर्षों तक केन्द्र को ही खनिजों पर रॉयल्टी वसूलने का विशेषाधिकार माना गया, और राज्यों की कराधान शक्तियाँ सीमित मानी गईं।

२. न्यायशास्त्रीय विचारों में उलझन, और नया संदर्भ

  • 2004 में, Kesoram Industries Ltd. v. State of West Bengal में 5‑Judge Bench ने यह कहा कि “रॉयल्टी टैक्स नहीं है” — लेकिन उन्होंने राज्य की कुछ सीमित कराधान शक्तियों को पूरी तरह खारिज नहीं किया। इस फैसले ने पुराने निर्णय (1989) की व्याख्या में संशय उत्पन्न कर दिया।
  • अतः 2024 में, conflicting निर्णयों के कारण 9‑Judge Constitution Bench को यह बहस सुलझानी पड़ी कि क्या रॉयल्टी एक टैक्स है, और क्या राज्यों को खनिज‑भूमि पर कराधान का अधिकार है।

9‑Judge Bench का 2024 का फैसला — मुख्य निष्कर्ष

2024 के फैसले में निम्न मुख्य बिंदु स्वीकार किए गए:

  • “Royalty” वही है जो खनन पट्टा (mining lease) की शर्तों के अंतर्गत एक संविदात्मक भुगतान (contractual consideration) है — न कि सरकार द्वारा लगाया गया टैक्स।
  • इसलिए, रॉयल्टी को टैक्स कहकर उसे राज्य या केन्द्र की कराधान शक्तियों के दायरे में नहीं लाया जा सकता।
  • राज्यों को संवैधानिक रूप से अधिकार है कि वे खनिज‑युक्त भूमि (mineral-bearing land) या खनिज अधिकार (mineral rights) पर अलग से कर/सेस/शुल्क (tax/cess) लगा सकें — क्योंकि भूमि और खनिज अधिकार “राज्य सूची (State List)” के अंतर्गत आते हैं।
  • MMDR Act, 1957 में ऐसा कोई स्पष्ट प्रतिबंध या रोक नहीं है, जो राज्यों की कराधान शक्ति को सीमित करता हो।
  • नतीजा: खनिज‑समृद्ध राज्य, रॉयल्टी के अलावा कर लगा कर अपनी राजस्व (state revenue) बढ़ा सकते हैं। कई राज्य पहले से ही परिवर्तित कानूनों / cess / surcharge आदि लागू कर चुके थे।

इस प्रकार, यह फैसला एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मोड़ था — जिसने भारत में संसाधन‑अधिकारों, कराधान शक्तियों और संस्थागत संवैधानिक सीमाओं के बीच संतुलन को नए सिरे से परिभाषित किया।


केंद्र (Union) की चुनौती — क्यों और किस आधार पर कुरेटिव याचिका?

१. क़ानूनी व संवैधानिक आपत्तियाँ

  • केंद्र का तर्क है कि ऐसे व्यापक कराधान अधिकार देने से संविधान के संघ (Union)–राज्य (State) खंडणी (division) की सम मूल संरचना प्रभावित होगी। खनिज व खनन क्षेत्र पहले केन्द्र के अधीन था — अब राज्यों को कराधान का अधिकार मिलने से संसाधन नीति, आर्थिक समन्वय और इंटर‑राज्य प्रतिस्पर्धा पर असर होगा।
  • केंद्र यह भी कहता है कि 9‑Judge फैसला “मूलभूत त्रुटि (apparent error)” करता है — क्योंकि रॉयल्टी की प्रकृति को टैक्स से अलग करना, और उसे contractual consideration मानना, एक ऐसी व्याख्या है जो पहले के न्यायशास्त्रीय व्यवस्था (judicial precedent) से अलग है। यह विचलन संवैधानिक अस्थिरता ला सकता है।
  • यदि बैंक, सार्वजनिक उपक्रम (PSUs), खनन कंपनियों सहित देश भर के हितधारकों पर retrospective (पीछे तक लागू) दायित्व आरंभ हो जाए, तो यह अर्थव्यवस्था पर बड़ा बोझ बन सकता है। केंद्र ने पहले ही कहा था कि ऐसी मांगों से PSU को ₹70,000–₹80,000 करोड़ तक का आर्थिक नुकसान हो सकता है।

२. न्यायालय से अनुरोध — संवैधानिक पुनरावलोकन

  • 9‑Judge बेंच के फैसले के खिलाफ केंद्र ने पहले review petition दायर की थी, जिसे अक्टूबर 2024 में ठुकरा दिया गया।
  • अब, समान बहुमत निर्णय की स्थायित्वता पर पुनर्विचार की आखिरी साधन के रूप में “curative petition” दायर की गई है।
  • यदि यह कुरेटिव याचिका स्वीकार हो जाती है, तो पूरे ढांचे को फिर से खंगाला जाएगा — जिसके तहत यह पुनर्संख्या हो सकती है कि राज्य कितनी सीमाओं के साथ कराधान कर सकते हैं, और क्या रॉयल्टी व कराधान को अलग अलग पहचाना जाना चाहिए या नहीं।

संभावित प्रभाव — वित्तीय, संघीय एवं शासन‑संबंधी

१. राज्यों के लिए राजस्व में बड़ा बढ़ोतरी

  • निर्णय की वजह से खनिज समृद्ध राज्य (झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि) अब खनिज उत्पादन, खनिज भूमि व खनिज अधिकारों से नई कर / cess / surcharge लगा सकते हैं। इससे उनकी राजस्व आय में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • यदि कुरेटिव याचिका विफल रहती है — अर्थात् 9‑Judge फैसला बरकरार रहता है — तो ये राज्य दीर्घकाल में निवेश‑नीति तय करते समय खनिज‑आधारित विकास (mineral‑led growth) की ओर अधिक झुक सकते हैं।

२. केंद्र–राज्य वित्तीय संतुलन और संवैधानिक संघीयता

  • भारत में संघीय संरचना (फेडरल फेडरलिज्म) की अन्तर्निर्मित जटिलता में यह फैसला एक नए अध्याय की शुरुआत है। संसाधन एवं कराधान शक्तियों का यह पुनर्वितरण, राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता (fiscal autonomy) को मजबूत करेगा।
  • वहीं, यह केंद्र के संसाधन‑नियमन (regulation) — विशेष तौर पर राष्ट्रीय खनिज नीति, पर्यावरण, अनुवांशिक संसाधन प्रबंधन आदि — पर भी असर डाल सकता है, क्योंकि अब राज्यों को अधिक आर्थिक प्रोत्साहन मिलेगा कि वे स्वयं नियंत्रण व कराधान नीति तय करें।

३. उद्योग, खनन कंपनियों व निवेश पर असर

  • खनन कंपनियों के लिए यह बदलाव आर्थिक दृष्टिकोण से बड़ा शॉक हो सकता है — क्योंकि रॉयल्टी के अलावा राज्य करों / cess की संभावनाएँ बढ़ जाने से उनकी लागत बढ़ जाएगी।
  • इससे नए निवेशकों की दिशा, खनन परियोजनाओं की व्यवहार्यता, प्रदेशों के बीच प्रतिस्पर्धा — ये सब प्रभावित होंगे।
  • इसके अतिरिक्त, अगर राज्यों ने retrospective दावे (2005 से लेकर अब तक) ठहराए, तो कंपनियों के लिए बड़े दायित्व खड़े हो सकते हैं।

४. संवैधानिक और न्यायशास्त्रीय दायित्व — समीक्षा की संभावनाएँ

  • यदि कुरेटिव याचिका सफल होती है, तो यह पुरानी व्याख्याओं (1989, 2004 आदि) को फिर से जीवित कर सकता है, या मध्य रास्ता भी सुझा सकता है: उदाहरण‑रूप में, “States can tax लेकिन statutory framework में Parliament कुछ सीमाएँ तय कर सकती है।”
  • इससे भारत में खनिज एवं प्राकृतिक संसाधन विधियों (statutes, regulation), राज्यों व केन्द्र के बीच शक्तियों के विभाजन में स्थायित्व (stability) बने रहने की संभावना होगी।

चर्चा और चिंताएँ — किन बिंदुओं पर विशेष गौर करने की जरूरत

  • संवेदनशीलता एवं संसाधन न्याय: खनिज भूमि व संसाधन अक्सर आदिवासी एवं स्थानीय जनजातीय इलाकों से जुड़ी होती है। अधिक कराधान व खनिज गतिविधियाँ — यदि राज्य स्तर पर पूरी स्वायत्ता हो जाए — तो पर्यावरणीय और सामाजिक असंतुलन हो सकता है।
  • अंतर-राज्य प्रतिस्पर्धा व कर “दौड़”: विभिन्न राज्य अपनी खनिज संपदा व टैक्स दरों को लेकर प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं — जिससे निवेश आकर्षित हो सकता है, पर साथ में अनुशासनहीन छूट, संसाधन दोहन (over-exploitation), पारदर्शिता का अभाव आदि भी बढ़ सकते हैं।
  • कानूनी स्थिरता व निजी निवेशकों का भरोसा: यदि फैसले बार‑बार बदले जाएँ या न्यायिक पुनरावलोकन जारी रहे, तो निवेशकों के लिए अनिश्चितता बढ़ेगी — विशेषकर लम्बी अवधि के खनन व आधारभूत संरचना (infrastructure) प्रोजेक्ट्स में।
  • संघ–राज्य नीति समन्वय की जरूरत: यह आवश्यक है कि केंद्र व राज्य मिलकर एक संतुलित खनिज नीति, कराधान मॉडल, पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक लाभ सुनिश्चित करें — ताकि आर्थिक लाभ व न्याय‑सतत विकास साथ चल सकें।

निष्कर्ष: क्यों यह कदम अहम, और आगे क्या देखने योग्य

      कुल मिलाकर, केंद्र द्वारा दायर आज की कुरेटिव याचिका सिर्फ एक कानूनी माँग नहीं — बल्कि भारत की संघीय संरचना, संसाधन न्याय, वित्तीय स्वायत्तता और खनिज‑आधारित विकास की दिशा को पुनर्संकल्पित करने का प्रयास है।

       अगर यह याचिका सफल हुई, तो पुराना संतुलन लौट सकता है; पर यदि नहीं — राज्य सरकारों की वित्तीय शक्ति और संसाधन‑स्वामित्व पहचान को नई मजबूती मिलेगी।

       इसका असर न सिर्फ राजस्व और बजट वितरण पर होगा, बल्कि पर्यावरणीय, सामाजिक, निवेश-संबंधी और नीति-निर्माण (governance) स्तर पर भी दीर्घकालीन रहेगा।

        अतः यह वह दौर है, जब सिर्फ न्यायालयीय फैसला ही नहीं, बल्कि नीति‑निर्माता, राज्य सरकारें, उद्योग जगत और नागरिक समाज — सबको मिलकर खनिज संसाधनों के न्यायसंगत, पारदर्शी और विकासोन्मुख उपयोग पर पुनर्विचार करना होगा।