क्या PIL (जनहित याचिका) न्याय का हथियार है या राजनीतिक साधन?

शीर्षक: क्या PIL (जनहित याचिका) न्याय का हथियार है या राजनीतिक साधन?

भूमिका:
जनहित याचिका (Public Interest Litigation – PIL) भारतीय न्यायिक प्रणाली की एक अनूठी और क्रांतिकारी अवधारणा है, जिसका उद्देश्य समाज के वंचित, शोषित और कमजोर वर्गों की आवाज़ को न्यायपालिका तक पहुँचाना रहा है। यह अधिकार किसी भी व्यक्ति को, भले ही वह प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित न हो, न्यायालय के समक्ष एक याचिका दायर करने की अनुमति देता है, यदि उसका उद्देश्य समाज में व्याप्त किसी सार्वजनिक कुप्रथा, भ्रष्टाचार, या अधिकारों के उल्लंघन को चुनौती देना हो। लेकिन समय के साथ यह सवाल उठ खड़ा हुआ है – क्या PIL वास्तव में न्याय का हथियार बनी रही है, या यह अब राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति का साधन बन चुकी है?

जनहित याचिका की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
PIL का उद्भव 1980 के दशक में हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट ने हुसैनआरा खातून बनाम बिहार राज्य और एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया जैसे मामलों में सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए स्वतः संज्ञान लिया। इन मामलों में जेल सुधार, पर्यावरण संरक्षण, बाल श्रम निषेध जैसे विषयों पर व्यापक निर्णय दिए गए। उस समय न्यायपालिका ने अपनी संवेदनशीलता और सक्रियता के बल पर जनहित याचिका को गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों के लिए न्याय का एक सशक्त माध्यम बनाया।

PIL का उद्देश्य और सकारात्मक प्रभाव:
PIL का मुख्य उद्देश्य समाज के उन वर्गों को न्याय दिलाना रहा है, जिनकी पहुँच पारंपरिक न्याय प्रणाली तक नहीं है। इसके माध्यम से कई ऐतिहासिक निर्णय हुए – गंगा नदी की सफाई, भुखमरी के मुद्दे, पर्यावरणीय खतरों की रोकथाम, यौन उत्पीड़न के खिलाफ विशाखा दिशानिर्देश आदि। यह कहने में संकोच नहीं कि PIL ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कानून का उपयोग करते हुए न्यायपालिका को एक नैतिक संरक्षक की भूमिका में खड़ा कर दिया।

राजनीतिकरण की चुनौतियाँ:
हाल के वर्षों में PIL के बढ़ते दुरुपयोग ने चिंता पैदा कर दी है। कई बार व्यक्तिगत प्रतिशोध, मीडिया में सुर्खियाँ पाने की लालसा, या राजनीतिक दबाव के तहत भी जनहित याचिकाएँ दायर की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि “जनहित याचिका को अब ‘पब्लिसिटी इंटरेस्ट लिटिगेशन’ या ‘पॉलिटिकल इंटरेस्ट लिटिगेशन’ के रूप में दुरुपयोग किया जा रहा है।” इससे न्यायालय का कीमती समय भी प्रभावित होता है और न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक बाधा आती है।

न्यायपालिका की भूमिका:
न्यायपालिका ने PIL के माध्यम से सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने की कोशिश की, लेकिन उसने यह भी स्पष्ट किया कि न्याय का यह माध्यम अनुशासन और विवेक के साथ उपयोग किया जाना चाहिए। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “यदि जनहित याचिका का उद्देश्य केवल निजी स्वार्थ की पूर्ति है, तो उसे खारिज किया जाना चाहिए।” इससे स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका ने इस शक्तिशाली उपकरण के संभावित दुरुपयोग के प्रति सजगता बरती है।

विधायी और प्रशासकीय परिप्रेक्ष्य:
PIL ने कई बार सरकार को उसकी निष्क्रियता पर सवाल करने को विवश किया है। किन्तु इसका एक दुष्परिणाम यह भी रहा कि कभी-कभी न्यायपालिका प्रशासनिक कार्यों में अत्यधिक हस्तक्षेप करने लगी, जिससे विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की स्थिति बनी। यह बहस छिड़ी कि क्या न्यायपालिका नीति-निर्माण के दायरे में प्रवेश कर रही है?

भविष्य की दिशा:
PIL की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन इसके दुरुपयोग पर अंकुश लगाना भी उतना ही आवश्यक है। न्यायालयों को चाहिए कि वे जनहित याचिकाओं की वैधता की गंभीरता से जांच करें और उन्हें केवल तभी स्वीकार करें जब उसका उद्देश्य वास्तव में समाज के व्यापक हित से जुड़ा हो। साथ ही याचिकाकर्ताओं की नीयत और याचिका के पीछे छिपे उद्देश्यों की भी परख होनी चाहिए।

निष्कर्ष:
जनहित याचिका भारतीय लोकतंत्र में न्याय की पहुँच को विस्तारित करने का सशक्त माध्यम है। यह वह पुल है जो हाशिए पर खड़े नागरिक को संविधान के मूल अधिकारों से जोड़ता है। लेकिन यदि इसका उपयोग राजनीतिक हथियार के रूप में किया जाए, तो यह अपनी मूल आत्मा से भटक जाता है। अतः आवश्यक है कि PIL का प्रयोग विवेकपूर्ण, संयमित और उद्देश्यपूर्ण हो – ताकि यह न्याय का हथियार बना रहे, न कि राजनीतिक साधन।