“क्या बंदी नागरिकों का मताधिकार छीना जा सकता है? — सुप्रीम कोर्ट में फिर उठा अधीनस्थ कैदियों के वोट देने पर दशकों पुराना प्रतिबंध”
भारत के लोकतंत्र की बुनियाद नागरिकों के मताधिकार पर टिकी हुई है। संविधान ने प्रत्येक वयस्क नागरिक को यह अधिकार दिया है कि वह अपने प्रतिनिधि का चुनाव कर सके और शासन में भागीदारी निभा सके। किंतु इस बुनियादी अधिकार पर एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद प्रतिबंध पिछले कई दशकों से लागू है—Representation of the People Act, 1951 की धारा 62(5), जो अधीनस्थ कैदियों (undertrial prisoners) को मतदान के अधिकार से वंचित करती है। अब, इसी प्रावधान की संवैधानिक वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर बहस शुरू हो गई है।
🔹 विवाद की पृष्ठभूमि
धारा 62(5) कहती है कि “कोई व्यक्ति जो किसी जेल में बंद है या किसी वैध निरोध (lawful custody) में है, वह किसी चुनाव में मतदान नहीं कर सकेगा।” इस अपवाद में केवल वे व्यक्ति शामिल नहीं हैं जो हिरासत में नहीं हैं—अर्थात जो जमानत पर बाहर हैं या जिन्हें पुलिस अभिरक्षा से मुक्त कर दिया गया है।
इस प्रावधान का उद्देश्य मूल रूप से यह था कि अपराधियों या आरोपितों का मतदान प्रक्रिया में अनुचित प्रभाव न पड़े। लेकिन, समय के साथ यह प्रश्न उठने लगा कि क्या यह प्रतिबंध उन लोगों पर भी उचित है जिन पर अभी अपराध सिद्ध नहीं हुआ है और जो ‘निर्दोष माने जाते हैं’ जब तक अदालत दोष साबित न कर दे।
🔹 याचिका का सार
सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका (PIL) में कहा गया है कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करता है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि जब तक किसी व्यक्ति को दोषी सिद्ध नहीं किया गया है, तब तक उसे अपराधी मानना और उसके नागरिक अधिकारों को छीनना असंवैधानिक है।
याचिका में यह भी कहा गया है कि यह कानून अमीर और गरीब के बीच भेदभाव करता है। जो व्यक्ति जमानत पर बाहर आने का खर्च उठा सकते हैं, वे मतदान कर सकते हैं, जबकि वही अपराध में फंसे गरीब व्यक्ति, केवल जमानत न दे पाने के कारण, मतदान के अधिकार से वंचित हो जाते हैं। यह ‘आर्थिक असमानता आधारित भेदभाव’ का उदाहरण है।
🔹 वर्तमान स्थिति और आंकड़े
भारत में अनुमानतः 4.5 लाख से अधिक कैदी जेलों में बंद हैं, जिनमें से लगभग 75% अधीनस्थ कैदी (Undertrials) हैं। अर्थात् उन पर अपराध अभी सिद्ध नहीं हुआ है। वे न्यायिक प्रक्रिया की प्रतीक्षा में वर्षों तक जेल में रहते हैं। ऐसे में इन लाखों लोगों का मतदान अधिकार छीन लेना, लोकतंत्र की समावेशी भावना के विपरीत माना जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट में यह भी तर्क दिया गया कि चुनावी प्रक्रिया का उद्देश्य प्रत्येक नागरिक को शासन में भागीदारी का अवसर देना है, और यदि अधीनस्थ कैदियों को मतदान से रोका जाता है, तो यह लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की अपूर्णता को जन्म देता है।
🔹 न्यायिक दृष्टिकोण: पूर्व निर्णय
साल 1997 में Anukul Chandra Pradhan v. Union of India मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 62(5) की संवैधानिकता को बरकरार रखा था। उस समय न्यायालय ने कहा था कि जेल में बंद व्यक्ति की स्वतंत्रता सीमित होती है, और मतदान एक विशेषाधिकार (privilege) है, न कि मौलिक अधिकार।
हालाँकि, अब सामाजिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य काफी बदल चुका है। डिजिटल वोटिंग, जेल सुधार और मानवाधिकारों की बढ़ती संवेदनशीलता के चलते यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक हो गया है कि क्या इस निर्णय की पुनर्समीक्षा आवश्यक है।
🔹 संवैधानिक पहलू
- अनुच्छेद 14 – समानता का अधिकार:
अधीनस्थ कैदियों को मतदान से वंचित करना, जबकि जमानत पर बाहर व्यक्ति मतदान कर सकता है, समानता के सिद्धांत के विपरीत प्रतीत होता है। दोनों की स्थिति में मूल अंतर केवल यह है कि एक जेल में है और दूसरा नहीं, परंतु दोनों का अपराध अभी सिद्ध नहीं हुआ है। - अनुच्छेद 21 – जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार:
सुप्रीम कोर्ट के अनेक निर्णयों में यह स्पष्ट किया गया है कि “जीवन” का अर्थ केवल शारीरिक अस्तित्व नहीं बल्कि सम्मानपूर्वक जीवन का अधिकार है। मतदान का अधिकार व्यक्ति की सामाजिक भागीदारी का प्रतीक है। इसलिए इसे छीनना, व्यक्ति की गरिमा पर आघात है। - अनुच्छेद 326 – वयस्क मताधिकार का सिद्धांत:
यह अनुच्छेद कहता है कि प्रत्येक वयस्क नागरिक, जो अन्यथा अयोग्य नहीं है, उसे मतदान का अधिकार होगा। यहाँ “अयोग्यता” को सीमित रूप में समझा गया है। अधीनस्थ कैदियों पर यह अयोग्यता लागू करना संविधान की भावना से मेल नहीं खाता।
🔹 अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
कई देशों में कैदियों को मतदान की अनुमति दी गई है।
- दक्षिण अफ्रीका में संवैधानिक न्यायालय ने कहा कि हर व्यक्ति, चाहे वह कैदी ही क्यों न हो, नागरिक के रूप में अपने अधिकार रखता है।
- कनाडा और न्यूजीलैंड में भी सुप्रीम कोर्ट ने कैदियों के मताधिकार को मानवाधिकारों का हिस्सा माना है।
- यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय ने भी कहा है कि मतदान का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है, और इसे सामान्य प्रतिबंधों के आधार पर नहीं छीना जा सकता।
भारत जैसे लोकतंत्र में, जो समानता, स्वतंत्रता और गरिमा के सिद्धांतों पर टिका है, वहाँ इस वैश्विक दृष्टिकोण पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
🔹 प्रशासनिक चुनौतियाँ
सरकार का पक्ष यह है कि जेलों में मतदान कराना व्यावहारिक रूप से कठिन है। सुरक्षा, पहचान, मतदान केंद्रों की व्यवस्था और परिणामों की गोपनीयता सुनिश्चित करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसके अतिरिक्त, सरकार का तर्क यह भी है कि कैदी, विशेष रूप से गंभीर अपराधों में संलिप्त, समाज से अलग हैं और उन्हें राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना नैतिक रूप से उचित नहीं है।
लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि तकनीक के इस युग में यह बहाना तर्कसंगत नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग, पोस्टल बैलेट या विशेष जेल मतदान केंद्र जैसी व्यवस्थाएँ इन समस्याओं का समाधान कर सकती हैं।
🔹 आर्थिक असमानता का पहलू
भारत में न्याय तक पहुंच आर्थिक संसाधनों से गहराई से जुड़ी हुई है। अमीर आरोपी आसानी से जमानत प्राप्त कर सकते हैं और अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं। वहीं गरीब, जो जमानत की रकम नहीं दे पाते, उन्हें जेल में रहना पड़ता है और इस दौरान उनका मताधिकार भी छिन जाता है।
यह स्थिति लोकतंत्र के “समान अवसर के सिद्धांत” के विरुद्ध है। संविधान के निर्माताओं ने यह कभी नहीं सोचा था कि आर्थिक स्थिति किसी नागरिक के मतदान अधिकार का निर्धारक बनेगी।
🔹 मानवाधिकार दृष्टिकोण
संयुक्त राष्ट्र के Universal Declaration of Human Rights में कहा गया है कि हर व्यक्ति को शासन में भाग लेने और मतदान करने का अधिकार है। जेल में बंद व्यक्ति भी, जब तक दोषी सिद्ध न हो, इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
इसके अलावा, National Human Rights Commission (NHRC) ने भी पहले सिफारिश की थी कि अधीनस्थ कैदियों के मतदान अधिकार पर पुनर्विचार किया जाए क्योंकि वे “सजा भुगत नहीं रहे” बल्कि “मुकदमे की प्रतीक्षा में” हैं।
🔹 संभावित समाधान
- केवल दोषसिद्ध कैदियों पर प्रतिबंध:
अधीनस्थ कैदियों को मतदान की अनुमति दी जा सकती है, जबकि केवल दोषसिद्ध अपराधियों पर प्रतिबंध लागू रखा जाए। - डाक मत (Postal Ballot) की सुविधा:
जैसे सैन्य कर्मियों को पोस्टल बैलेट की सुविधा दी जाती है, वैसे ही जेलों में बंद व्यक्तियों को भी दी जा सकती है। - डिजिटल मतदान या जेल पोलिंग बूथ:
सीमित निगरानी में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग की व्यवस्था कराई जा सकती है, जिससे सुरक्षा और गोपनीयता दोनों सुनिश्चित हों।
🔹 निष्कर्ष
भारत का लोकतंत्र तब ही पूर्ण माना जाएगा जब उसका हर नागरिक—चाहे वह समाज में हो या जेल की चारदीवारी के भीतर—अपने प्रतिनिधि के चयन में भाग ले सके। अधीनस्थ कैदियों को मतदान से वंचित रखना न केवल उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि न्याय की मूल भावना के भी विपरीत है।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह अवसर है कि वह दशकों पुराने दृष्टिकोण को नये संवैधानिक परिप्रेक्ष्य में परखे और यह सुनिश्चित करे कि लोकतंत्र की रोशनी उन तक भी पहुँचे जो आज भी न्याय की प्रतीक्षा में जेलों में बंद हैं।