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“क्या ऋणी को ‘जाल खाते’ के रूप में खाते बंद करने से पहले व्यक्तिगत सुनवाई देना अनिवार्य है? — Supreme Court of India ने Reserve Bank of India से लिया रुख”

“क्या ऋणी को ‘जाल खाते’ के रूप में खाते बंद करने से पहले व्यक्तिगत सुनवाई देना अनिवार्य है? — Supreme Court of India ने Reserve Bank of India से लिया रुख”

प्रस्तावना

वित्त-क्षेत्र में जहाँ एक ओर धोखाधड़ी, स्लिपेज तथा बैंकिंग घाटे की समस्या लगातार सामने आ रही है, वहीं दूसरी ओर ऋणदाताओं (borrowers) तथा बैंक/ऋणदाताओं (lenders) के बीच अधिकार-कर्तव्य का संतुलन भी न्याय-प्रणाली की कड़ी परीक्षा ले रहा है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बैंकिंग खातों को ‘फ्रॉड’ (fraud) के रूप में पंजीकृत करने की प्रक्रिया में ऋणी को सुनवाई का अवसर दिए जाने की आवश्यकता पर विचार किया है। इस लेख में हम इस मामले के कानूनी पक्ष, न्यायिक प्रवृत्ति, Reserve Bank of India (RBI) की निर्देशावली, ऋणदाता-बैंकिंग व्यवहार और भविष्य में आशित चुनौतियों का व्यापक अध्ययन करेंगे।


पृष्ठभूमि: बैंकिंग फ्रॉड-खाते और उनके प्रभाव

  • बैंकिंग व्यवस्था में जब कोई ऋणदाता अपने खाते/ऋण को समय पर वापस नहीं करता, या बैंक द्वारा संशयित पाया जाता है कि राशि अन्यत्र हस्तांतरित की गई, नकली दस्तावेज प्रस्तुत किए गए या सत्ताधारी निदेशकों/प्रायोजकों द्वारा खाता ‘गलत दिखाया’ गया — तो बैंक उस खाते को “फ्रॉड खाता” (fraud account) के रूप में शासकीय निर्देशों के अंतर्गत वर्गीकृत कर सकता है।
  • इस प्रकार की वर्गीकरण से न सिर्फ उस खाते पर बैंक द्वारा क्रियाएँ होती हैं, बल्कि ऋणी और उसके निदेशक/प्रायोजक के लिए गंभीर दायित्व, ब्लैकलिस्टिंग, वित्त-उपलब्धता से प्रतिबंध, कानूनी कार्यवाही आदि consequências उत्पन्न हो जाती हैं।
  • उदाहरणतः, State Bank of India व अन्य बैंकों द्वारा ऐसी खातों को फ्रॉड घोषित कर रिपोर्टिंग एजेंसियों, पुलिस/अन्वेषण एजेंसियों एवं ऋण-सूची भंडार को किया गया है।

इस पृष्ठभूमि में यह प्रश्न उठता है कि क्या बैंक/ऋणदाता को खाते को ‘फ्रॉड’ घोषित करने से पूर्व ऋणी को व्यक्तिगत सुनवाई (personal hearing) देना आवश्यक है या नहीं? इस अनवसर पर न्यायिक दृष्टि से विचार किया गया है।


सुप्रीम कोर्ट का मुख्य निर्णय: सुनवाई का अधिकार व प्राकृतिक न्याय

  • Supreme Court of India ने 27 मार्च 2023 को, मामले State Bank of India & Ors. v. Rajesh Agarwal & Ors. में कहा कि बैंक/ऋणदाता खाते को ‘फ्रॉड’ के रूप में वर्गीकृत करने से पहले ऋणी को सुनने का अवसर देना चाहिए।
  • न्यायालय ने विशेष रूप से कहा कि जबकि जांच एजेंसियों की रिपोर्ट या बैंक की आंतरिक जाँचना हो सकती है, लेकिन निर्णय के चरण में (जहाँ खाते को फ्रॉड घोषित किया जाना है) “audi alteram partem” (दो पक्षों को सुनने का सिद्धांत) लागू होगा।
  • इसका कारण यह है कि फ्रॉड घोषित करने से ऋणी को वित्त-साधनों से लंबे समय तक वंचित किया जा सकता है, बैंकों द्वारा ब्लैकलिस्ट किया जा सकता है, और उसके व व्यवसाय की प्रतिष्ठा को बहुत बड़ी चोट पहुँच सकती है — अर्थात् सिर्फ दंडात्मक या सांकेतिक कार्रवाई नहीं, बल्कि गम्भीर नागरिक/वित्तीय बाधाएँ पैदा हो जाती हैं।
  • हालांकि, न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक मामले में बैंक-लेंडर द्वारा व्यक्तिगत होला-मोष (personal hearing) ज़रूरी नहीं हो सकता, लेकिन ऋणी को कम-से-कम सूचना (notice), फॉरेंसिक ऑडिट रिपोर्ट की मुख्य बातें, जवाब देने का अवसर तथा तर्क प्रस्तुत करने का अवसर मिलना चाहिए।

RBI की निर्देशावली एवं उसके बाद के बदलाव

  • अनुसरण करते हुए सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के, RBI ने जुलाई 2024 में अपनी “Master Directions on Fraud Risk Management (including Commercial Banks, RRBs, NBFCs)” जारी की, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि बैंक/अन्य वित्तीय संस्थाएँ (REs) “प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों” (principles of natural justice) के अनुरूप कार्रवाई करें।
  • उन निर्देशों के अंतर्गत:
    1. बैंक को आरोप/संदेह के विवरण सहित एक शो-कार्न नोटिस (show-cause notice) जारी करना होगा।
    2. नोटिस प्राप्तकर्ता (ऋणी/प्रायोजक/प्रबंधक) को जवाब देने के लिए “कम-से-कम 21 दिन” का समय प्रदान करना होगा (या “उचित समय”)।
    3. बैंक/संस्था द्वारा निर्णय लेने से पहले ऋणी को अपने बचाव का अवसर देना होगा, और निर्णय एक कारणयुक्त आदेश (reasoned order) के रूप में देना होगा जिसमें उल्लेख होगा कि किन कारणों से फ्रॉड घोषित किया गया।
    4. बैंक को आंतरिक नियंत्रण-प्रणाली, बोर्ड द्वारा संचालित समिति, ‘अर्ली वार्निंग सिग्नल’ (Early Warning Signals – EWS) तथा ‘रेड फ्लैगging’ (Red Flagging) आदि की व्यवस्था करनी होगी ताकि फ्रॉड के लक्षण समय-समय पर पकड़े जा सकें।

क्या “व्यक्तिगत सुनवाई” (Personal Hearing) अनिवार्य है?

यहाँ पर “व्यक्तिगत सुनवाई” से तात्पर्य है कि बैंक/लेंडर ऋणी को आमने-सामने (in-person) या वीडियो/ऑडियो माध्यम से सुनें, उनके तर्क सुने, सवाल-जवाब करें — न सिर्फ लिखित नोटिस-प्रतिक्रिया। इस विषय में सुप्रीम कोर्ट व उच्च न्यायालयों की व्याख्या इस प्रकार है:

  • सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया कि सुनवाई का अवसर देना ज़रूरी है, लेकिन उसने स्पष्ट नहीं किया कि “व्यक्तिगत सुनवाई” (personal hearing) हमेशा जरूरी है या सिर्फ “प्रतिनिधि सुनवाई / लिखित अवसर” पर्याप्त होगा।
  • उदाहरण के तौर पर, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि व्यक्तिगत सुनवाई भी अनिवार्य हो सकती है, क्योंकि सिर्फ लिखित प्रस्तुतिकरण पर्याप्त नहीं माना जा सकता।
  • RBI की निर्देशावली ने “कम-से-कम 21 दिन का जवाब-अवसर” देना अनिवार्य किया है, किन्तु “व्यक्तिगत सुना जाना” अपरिहार्य नहीं ठहराया गया है।
  • अतः निष्कर्षतः: व्यक्तिगत सुनवाई हर मामले में अनिवार्य नहीं पर औचित्यपूर्ण अवसर (reasonable opportunity) देना अनिवार्य है। बैंक को यह देखना होगा कि मामले की संवेदनशीलता, प्रमुख आरोप, प्रभाव आदि को देखते हुए सुनवाई का स्तर क्या होना चाहिए।

बैंक/ऋणी के लिए प्रमुख बिंदु

ऋणी के लिए सुझाव

  • यदि आपके खाते को फ्रॉड घोषित करने का प्रस्ताव चल रहा है — बैंक से लिखित में नोटिस माँगे और देखें कि क्या आपको जवाब का अवसर मिला है।
  • फॉरेंसिक ऑडिट रिपोर्ट तथा बैंक द्वारा उठाए गए प्रमुख बिंदुओं की कॉपी माँगे।
  • तय करें कि बैंक ने “शो-कार्न नोटिस + जवाब देने का समय + कारणयुक्त आदेश” का पालन किया है या नहीं। यदि नहीं, तो न्यायालय में चुनौती संभव है।
  • बैंकिंग एवं कानूनी सलाह लें — क्योंकि फ्रॉड घोषित होने पर ब्लैकलिस्टिंग, क्रिमिनल कार्रवाई, वित्त-उपलब्धता से प्रतिबंध आदि हो सकते हैं।

बैंक/लेंडर के लिए सुझाव

  • बैंक अपनी जालसाजी तथा फ्रॉड-रिस्क की नीतियों (fraud-risk policy) को बोर्ड द्वारा स्वीकृत करें और समय-समय पर समीक्षा करें।
  • खातों को फ्रॉड घोषित करने से पहले उचित प्रक्रिया अपनाएँ: नोटिस, जवाब-अवसर, कारणयुक्त निर्णय।
  • सुनवाई की सुविधा-प्रक्रिया स्थापित करें — चाहे लिखित हो, वीडियो-कॉन्फरेंस हो या व्यक्तिगत — यह देखना होगा कि किस स्तर की सुनवाई उचित है।
  • प्रक्रिया को अभिसूचित (document) रखें ताकि बाद में निर्णय चुनौती के दौर में स्थिर बने।

चुनौतियाँ एवं आगे-का मार्ग

  • सुनवाई के अवसर देने से बैंक/लेंडर को समय-बाधा (time-lag) का सामना करना पड़ सकता है — फ्रॉड को जल्दी पकड़ना बैंकिंग के हित में है। न्यायालय ने इसे स्वीकार किया है कि प्रक्रिया धीमी हो सकती है लेकिन उचित है।
  • बैंक को यह तय करना होगा कि कितनी सुनवाई पर्याप्त है — व्यक्तिगत सुनवाई हो या लिखित प्रस्तुति — मामला-विशिष्ट होगा।
  • ऋणी यदि सुनवाई का अवसर नहीं दिया गया होने का दावा करे, तो बैंक द्वारा लिया गया निर्णय न्यायालय में रद्द हो सकता है, और पुनः प्रक्रिया शुरू करनी पड़ सकती है।
  • RBI तथा बैंकिंग नियामक निकायों द्वारा आगे फ्रॉड-रिस्क मॉडल, निगरानी तंत्र, डेटाअनालिटिक्स आदि को मजबूती से लागू करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

संक्षिप्ततः कहा जा सकता है कि — ‘खाते को फ्रॉड घोषित करने से पहले ऋणी को सुनवाई देना’ अब बैंकिंग-प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा बन गया है। हालांकि, “व्यक्तिगत सुनवाई” हर मामले में हर समय अनिवार्य नहीं ठहराई गई है, लेकिन एक उचित, निष्पक्ष, पहले से सूचित अवसर देना बैंकों–लेंडर्स के लिए अब नियामक एवं न्यायिक रूप से अनिवार्य है। इस दृष्टिकोण से बैंकिंग प्रणाली में पारदर्शिता एवं न्यायसंगत व्यवहार को बल मिला है, और ऋणदाताओं (borrowers) को अपने अधिकारों-प्रक्रियाओं को चुनौती देने का अवसर मिला है।