“क्या आप पुलिस थाने में बयान देने से मना कर सकते हैं? — कानून क्या कहता है”
परिचय
अक्सर जब किसी व्यक्ति को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जाता है, तो सबसे पहले उससे पूछताछ की जाती है और उसे बयान देने के लिए कहा जाता है। बहुत से लोग डर, भ्रम या कानून की जानकारी न होने के कारण वह सब कुछ लिख या बोल देते हैं जो पुलिस चाहती है — चाहे वह सत्य हो या नहीं। लेकिन क्या आपको पता है कि भारतीय कानून आपको चुप रहने का अधिकार देता है? क्या आप पुलिस थाने में बयान देने या लिखने से इनकार कर सकते हैं?
इस सवाल का उत्तर सीधे आपके मौलिक अधिकारों और न्याय प्रणाली के मूल सिद्धांतों से जुड़ा हुआ है।
1. मौलिक अधिकार के रूप में ‘चुप रहने का अधिकार’
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि –
“किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।”
यह प्रावधान किसी भी आरोपी या संदिग्ध व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह पुलिस या किसी जांच एजेंसी के समक्ष अपने विरुद्ध कोई ऐसा बयान देने के लिए बाध्य न किया जाए जिससे बाद में उसके खिलाफ साक्ष्य बने।
यह वही सिद्धांत है जिसे विश्व के कई देशों में “Right to Remain Silent” या “Privilege against Self-Incrimination” कहा जाता है।
2. यह अधिकार कब से लागू होता है?
यह अधिकार केवल अदालत में ही नहीं बल्कि गिरफ्तारी के क्षण से ही लागू हो जाता है।
जैसे ही पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है, उसी समय से उसे यह अधिकार प्राप्त होता है कि वह कोई भी बयान देने या लिखने से मना कर सकता है।
भारत में यह सिद्धांत Miranda v. Arizona (1966) के अमेरिकी निर्णय से प्रेरित है, जिसमें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी आरोपी को पूछताछ से पहले बताया जाना चाहिए कि उसे चुप रहने का अधिकार है और वह अपने वकील की उपस्थिति में ही बयान दे सकता है।
3. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 और गिरफ्तारी के समय अधिकार
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 22 यह सुनिश्चित करता है कि किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी के समय कुछ निश्चित अधिकार दिए जाएं। इनमें शामिल हैं –
- गिरफ्तारी के कारण बताने का अधिकार,
- वकील से परामर्श करने और उसकी सहायता प्राप्त करने का अधिकार,
- 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाना।
इन अधिकारों के साथ ही, व्यक्ति यह भी कह सकता है कि वह बिना वकील की उपस्थिति में कोई बयान नहीं देना चाहता।
4. प्रशासनिक आपराधिक न्याय अधिनियम, 2015 (ACJA / भारत में समकक्ष – दण्ड प्रक्रिया संहिता)
नाइजीरिया के Administration of Criminal Justice Act (ACJA) 2015 की धारा 17(1)–(2) में स्पष्ट किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति बयान देना चाहता है, तो वह स्वेच्छा से (voluntarily) होना चाहिए और अधिमानतः उसके वकील की उपस्थिति में होना चाहिए।
भारत में भी दण्ड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code – CrPC) की धारा 161 और 164 के तहत यह व्यवस्था है कि:
- पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति से स्वेच्छिक रूप से पूछताछ कर सकता है,
- लेकिन वह व्यक्ति यह कह सकता है कि वह किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहता जो उसे दोषी सिद्ध कर सकता है।
- यदि कोई बयान मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज किया जाता है, तो उसे यह सुनिश्चित करना होता है कि वह पूरी तरह स्वेच्छा से दिया गया है।
5. जब पुलिस आपसे बयान लिखवाने पर ज़ोर देती है
अक्सर वास्तविक जीवन में पुलिस थानों में स्थिति अलग होती है। कई बार अधिकारी संदिग्ध को दबाव में लाकर बयान लिखवाने या हस्ताक्षर करवाने की कोशिश करते हैं।
लेकिन कानून बिल्कुल स्पष्ट है —
आपको किसी भी स्थिति में बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
अगर कोई पुलिस अधिकारी दबाव डालता है, डराता है या झूठे बहाने से लिखवा लेता है, तो ऐसा बयान अमान्य हो जाता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार कहा है कि “कबूलनामा तभी मान्य है जब वह पूर्णतः स्वेच्छा से दिया गया हो।”
6. बयान न देने के परिणाम — क्या चुप रहना अपराध है?
कई लोगों को यह डर होता है कि अगर उन्होंने बयान नहीं दिया, तो पुलिस या अदालत यह मान लेगी कि वे दोषी हैं।
लेकिन यह पूरी तरह से गलत धारणा है।
चुप रहना अपराध नहीं है।
बल्कि यह आपका कानूनी और संवैधानिक अधिकार है।
न्यायालय केवल मौन रहने से यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकती कि व्यक्ति दोषी है।
सुप्रीम कोर्ट ने State of Bombay v. Kathi Kalu Oghad (1961) में कहा था कि आरोपी को अपने ही खिलाफ साक्ष्य देने के लिए मजबूर करना संविधान के अनुच्छेद 20(3) का उल्लंघन है।
7. कब बयान देना उचित होता है
हालांकि, हर स्थिति में चुप रहना ही सर्वोत्तम विकल्प नहीं होता। यदि आपने कुछ ऐसा किया है जिसे आप कानूनी रूप से सही ठहरा सकते हैं, या आपके पास ठोस साक्ष्य हैं जो आपकी बेगुनाही साबित करते हैं, तो अपने वकील की सलाह लेकर बयान देना लाभकारी हो सकता है।
मुख्य बात यह है कि —
कोई भी बयान बिना वकील की उपस्थिति और सलाह के न दें।
8. पुलिस पूछताछ में वकील की भूमिका
वकील का होना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि आपकी सुरक्षा की गारंटी है। वकील यह सुनिश्चित करता है कि पुलिस पूछताछ के दौरान:
- आपके साथ कोई शारीरिक या मानसिक दबाव न डाला जाए,
- आपका बयान पूरी तरह स्वेच्छा से लिया जाए,
- किसी भी गलत शब्द या कथन को आपके खिलाफ उपयोग न किया जाए।
इसलिए यदि पुलिस आपको पूछताछ के लिए बुलाती है, तो हमेशा अपने वकील को साथ ले जाएं या कम से कम उसके परामर्श से आगे बढ़ें।
9. झूठे या दबाव में दिए गए बयानों के परिणाम
कई मामलों में देखा गया है कि निर्दोष व्यक्तियों ने पुलिस दबाव में अपराध कबूल लिया, और बाद में वर्षों तक जेल में रहे।
बाद में जब सच्चाई सामने आई, तो उन्हें बरी किया गया — लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इसलिए कानून ने यह व्यवस्था बनाई है कि कोई भी व्यक्ति अपने ही खिलाफ बयान देने के लिए बाध्य नहीं होगा।
10. अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से यह अधिकार
विश्व के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में यह अधिकार मान्यता प्राप्त है।
संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, और भारत — सभी में “Right to Silence” को due process of law का आवश्यक हिस्सा माना गया है।
संयुक्त राष्ट्र के International Covenant on Civil and Political Rights (ICCPR) की धारा 14(3)(g) में भी यह प्रावधान है कि किसी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
11. यदि पुलिस आपके मौन रहने के अधिकार का उल्लंघन करे तो क्या करें
यदि पुलिस अधिकारी आपको जबरदस्ती बयान देने को कहता है या धमकाता है, तो आप निम्न कानूनी कदम उठा सकते हैं:
- अपने वकील से तत्काल संपर्क करें।
- मजिस्ट्रेट को शिकायत दें कि बयान जबरदस्ती लिया गया।
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) या राज्य मानवाधिकार आयोग में शिकायत करें।
- धारा 482 CrPC के तहत हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर सकते हैं यदि पुलिस की कार्रवाई अवैध हो।
12. अदालत में बयान का मूल्यांकन
जब कोई मामला अदालत में जाता है, तो न्यायाधीश यह जांचता है कि पुलिस द्वारा प्राप्त कोई भी बयान स्वेच्छा से दिया गया था या नहीं।
यदि slightest भी संदेह हो कि वह दबाव, भय या धोखे से लिया गया है, तो अदालत उसे अप्रमाणिक मानकर साक्ष्य से बाहर कर देती है।
इस प्रकार, केवल वही बयान मान्य है जो व्यक्ति ने पूर्ण समझदारी और स्वतंत्र इच्छा से दिया हो।
13. ‘चुप रहना’ और ‘सहयोग न करना’ — फर्क समझें
अक्सर पुलिस यह आरोप लगाती है कि जो व्यक्ति बयान नहीं देता वह “जांच में सहयोग नहीं कर रहा।”
लेकिन कानून के अनुसार, चुप रहना सहयोग न करने के समान नहीं है।
आपको जांच में आवश्यक जानकारी या दस्तावेज देने का दायित्व हो सकता है, लेकिन अपने खिलाफ बोलने या लिखने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
14. आधुनिक दृष्टिकोण — न्यायपालिका की टिप्पणी
हाल के वर्षों में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स ने कई बार यह दोहराया है कि:
“स्वीकारोक्ति तभी विश्वसनीय है जब वह किसी दबाव, भय, या प्रलोभन से मुक्त होकर की गई हो।”
उदाहरण के लिए, D.K. Basu v. State of West Bengal (1997) में कोर्ट ने कहा कि हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों की जानकारी दी जानी चाहिए और पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति दबाव में बयान न दे।
15. निष्कर्ष — मौन आपका अधिकार है, अपराध नहीं
पुलिस थाने में बयान न देना आपका कानूनी अधिकार है, न कि अपराध।
आप यह कह सकते हैं —
“मैं चुप रहने के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहा हूँ, जब तक मैं अपने वकील से परामर्श न कर लूं।”
यह कहना आपके खिलाफ नहीं जा सकता।
बल्कि यह आपके मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है और न्यायिक प्रक्रिया को निष्पक्ष बनाता है।
अंतिम निष्कर्ष / Takeaway
- आप पुलिस थाने में बयान देने से इनकार कर सकते हैं।
- कानून आपको चुप रहने का अधिकार देता है।
- पुलिस आपको बयान देने के लिए मजबूर नहीं कर सकती।
- बयान केवल वकील की उपस्थिति और आपकी स्वेच्छा से ही दिया जाना चाहिए।
- चुप रहना दोष का प्रमाण नहीं है।
इसलिए अगली बार यदि कोई पुलिस अधिकारी आपसे कहे कि “बयान लिखिए, वरना…”
तो आत्मविश्वास से और कानून के दायरे में कहें —
“मैं अपने कानूनी अधिकार के तहत चुप रहना चुनता हूँ।”
मौन अपराध नहीं, अधिकार है।
कानून आपको यह सुरक्षा देता है कि आप तभी बोलें जब आप तैयार हों — स्वतंत्र रूप से, समझदारी से, और अपने अधिकारों की पूरी जानकारी के साथ।