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कॉलेजियम की कार्यवाही पर उठे सवाल: न्यायिक स्वतंत्रता बचाने के दावे पर संदेह

कॉलेजियम की कार्यवाही पर उठे सवाल: न्यायिक स्वतंत्रता बचाने के दावे पर संदेह

प्रस्तावना

भारत का संविधान न्यायपालिका को स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्था के रूप में स्थापित करता है। न्यायिक स्वतंत्रता (Judicial Independence) लोकतंत्र के मूल स्तंभों में से एक है। इसी उद्देश्य से न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रक्रिया को कार्यपालिका और विधायिका से अपेक्षाकृत अलग रखा गया। किंतु, सुप्रीम कोर्ट द्वारा विकसित कॉलेजियम प्रणाली (Collegium System) पर समय-समय पर गंभीर सवाल उठते रहे हैं। हाल की घटनाओं ने यह बहस और भी तेज कर दी है कि क्या कॉलेजियम सचमुच पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, या फिर यह बंद दरवाजों के भीतर होने वाली ऐसी प्रक्रिया बन गया है जिस पर जन-विश्वास कम होता जा रहा है।


कॉलेजियम प्रणाली की उत्पत्ति

कॉलेजियम प्रणाली का जन्म न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्ति संतुलन के संघर्ष से हुआ।

  • पहला न्यायाधीश मामला (1981): इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका का प्रमुख अधिकार होगा।
  • दूसरा न्यायाधीश मामला (1993): सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पुराने निर्णय को पलटते हुए कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कोलेजियम की सिफारिशें सर्वोच्च होंगी।
  • तीसरा न्यायाधीश मामला (1998): इसमें कॉलेजियम की संरचना और प्रक्रिया स्पष्ट की गई, जिसके तहत सीजेआई और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश मिलकर नियुक्ति और स्थानांतरण पर निर्णय लेते हैं।

इस प्रकार कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा हेतु स्थापित हुई, ताकि कार्यपालिका का सीधा प्रभाव नियुक्तियों पर न पड़े।


कॉलेजियम पर हाल के विवाद

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अध्यक्षता वर्तमान में मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई कर रहे हैं। हाल की घटनाओं ने इस प्रणाली पर कई प्रश्नचिह्न खड़े किए हैं:

  1. पारदर्शिता की कमी
    कॉलेजियम की बैठकें और चर्चाएँ सार्वजनिक नहीं की जातीं। केवल संक्षिप्त सिफारिशें प्रेस रिलीज़ के रूप में आती हैं। किस आधार पर किसी नाम की सिफारिश की गई या खारिज किया गया—यह स्पष्ट नहीं होता। इससे जनता और कानूनी बिरादरी दोनों में असमंजस बना रहता है।
  2. आपसी मतभेदों का उजागर होना
    हाल में कुछ वरिष्ठ न्यायाधीशों ने कॉलेजियम की कार्यवाही पर आपत्ति जताई। यह बात सामने आई कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में पूर्ण सहमति नहीं होती और कई बार असहमति दर्ज होने के बावजूद सार्वजनिक रूप से केवल सहमति का संस्करण प्रस्तुत किया जाता है। इससे संस्था की साख पर सवाल उठते हैं।
  3. कार्यपालिका के साथ टकराव
    कॉलेजियम द्वारा सुझाए गए कई नाम केंद्र सरकार लंबी अवधि तक रोक कर रखती है। कुछ नामों को बार-बार लौटाया भी जाता है। यह टकराव न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तनाव को उजागर करता है और न्यायिक स्वतंत्रता पर अप्रत्यक्ष दबाव डालता है।
  4. भाई-भतीजावाद और पक्षपात के आरोप
    कॉलेजियम पर यह आरोप बार-बार लगता रहा है कि यह योग्यताओं की बजाय व्यक्तिगत पसंद और रिश्तों के आधार पर नाम आगे बढ़ाता है। यह प्रणाली न्यायिक नियुक्तियों को “क्लोज़्ड क्लब” जैसी छवि देती है।

न्यायिक स्वतंत्रता पर असर

न्यायपालिका की स्वतंत्रता केवल सैद्धांतिक विचार नहीं है, बल्कि इसका लोकतंत्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल उठेंगे तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता संदिग्ध हो जाएगी।

  • यदि कार्यपालिका कॉलेजियम की सिफारिशों को बार-बार टालती है, तो न्यायाधीशों पर अप्रत्यक्ष दबाव बनता है।
  • यदि कॉलेजियम खुद ही पक्षपातपूर्ण निर्णय लेता है, तो न्यायपालिका पर जनता का भरोसा घटता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता तभी सुरक्षित रह सकती है जब नियुक्ति की प्रक्रिया न्यायसंगत, पारदर्शी और जवाबदेह हो।

संसद और सरकार का रुख

2014 में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का गठन किया था। NJAC का उद्देश्य था कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका, न्यायपालिका और सिविल सोसाइटी सभी की भागीदारी हो। किंतु 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर दिया और कॉलेजियम प्रणाली को पुनः बहाल कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट का तर्क था कि यदि कार्यपालिका को निर्णायक भूमिका दी गई, तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी। परंतु आलोचकों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकारों का अति-विस्तार कर लिया और जवाबदेही से बचने के लिए कॉलेजियम को सुरक्षित कर दिया।


वर्तमान परिदृश्य

हाल के महीनों में कई नियुक्तियाँ और स्थानांतरण विवादों के घेरे में आए हैं। कुछ नामों पर लंबे समय तक निर्णय लंबित रहा। कुछ मामलों में वरिष्ठता की अनदेखी का आरोप लगा। यहाँ तक कि कॉलेजियम के भीतर असहमति सार्वजनिक चर्चा का विषय बनी।

इससे यह प्रश्न और गहरा हो गया है कि क्या कॉलेजियम सचमुच न्यायपालिका की गरिमा बनाए रखने में सक्षम है, या फिर यह प्रणाली अब सुधार की मांग करती है।


सुधार की आवश्यकता

विशेषज्ञों और विधि आयोग ने कई बार सुझाव दिए हैं कि कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। कुछ संभावित सुधार इस प्रकार हो सकते हैं:

  1. कारणों का सार्वजनिक खुलासा
    कॉलेजियम को चाहिए कि वह प्रत्येक सिफारिश के पीछे का ठोस कारण विस्तार से सार्वजनिक करे।
  2. नागरिक समाज और बार काउंसिल की भूमिका
    नियुक्ति प्रक्रिया में केवल न्यायाधीशों की बजाय समाज के अन्य प्रतिनिधियों को भी सीमित भूमिका दी जा सकती है।
  3. संसदीय निगरानी
    प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से बचते हुए संसद एक निगरानी तंत्र बना सकती है जो कॉलेजियम की कार्यवाही पर पारदर्शिता का दबाव बनाए।
  4. वरिष्ठता और योग्यता का संतुलन
    केवल वरिष्ठता के आधार पर नियुक्ति न्यायसंगत नहीं मानी जा सकती। योग्यता, अनुभव और सामाजिक विविधता भी ध्यान में रखी जानी चाहिए।

न्यायपालिका पर भरोसा बनाए रखने की चुनौती

न्यायपालिका लोकतंत्र का अंतिम संरक्षक है। यदि इसकी स्वतंत्रता पर सवाल उठे तो संविधानिक ढाँचा डगमगा सकता है। आज आवश्यकता है कि कॉलेजियम प्रणाली में जनता का विश्वास बहाल किया जाए। यह तभी संभव है जब न्यायपालिका खुद पहल कर पारदर्शिता और सुधार के उपाय अपनाए।


निष्कर्ष

कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य न्यायिक स्वतंत्रता को बचाना था, किंतु व्यावहारिक रूप से यह प्रणाली कई विवादों से घिर गई है। हाल की घटनाओं ने यह संदेह और गहरा किया है कि क्या कॉलेजियम सचमुच उस गौरवपूर्ण स्थिति में है जिसका दावा किया जाता है। यदि पारदर्शिता और जवाबदेही को प्राथमिकता नहीं दी गई तो न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर गहरा संकट खड़ा हो सकता है।

इसलिए आवश्यक है कि न्यायपालिका और कार्यपालिका मिलकर एक संतुलित प्रणाली विकसित करें जो न केवल न्यायिक स्वतंत्रता को सुरक्षित रखे बल्कि जनता के सामने जवाबदेह भी हो।


संभावित प्रश्नोत्तर (Q&A)

प्रश्न 1. कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत कब और किस मामले से हुई?
उत्तर: कॉलेजियम प्रणाली का जन्म दूसरे न्यायाधीश मामले (1993) से हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम की सिफारिश को सर्वोच्च माना।

प्रश्न 2. तीसरे न्यायाधीश मामले (1998) में क्या निर्णय हुआ?
उत्तर: इसमें कॉलेजियम की संरचना तय की गई, जिसके अनुसार सीजेआई और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश मिलकर नियुक्ति और स्थानांतरण के निर्णय लेते हैं।

प्रश्न 3. कॉलेजियम प्रणाली का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर: न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखना और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाना।

प्रश्न 4. कॉलेजियम प्रणाली पर प्रमुख आलोचना क्या है?
उत्तर: पारदर्शिता की कमी, भाई-भतीजावाद के आरोप और जवाबदेही का अभाव।

प्रश्न 5. हाल के वर्षों में कॉलेजियम और केंद्र सरकार के बीच किस प्रकार का टकराव देखा गया?
उत्तर: कई सिफारिशों को केंद्र ने लंबी अवधि तक रोके रखा या बार-बार लौटाया, जिससे नियुक्तियाँ अटकी रहीं।

प्रश्न 6. NJAC क्या है और कब बना था?
उत्तर: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) 2014 में गठित हुआ था ताकि न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका, न्यायपालिका और समाज की संयुक्त भूमिका हो।

प्रश्न 7. सुप्रीम कोर्ट ने NJAC अधिनियम को असंवैधानिक क्यों घोषित किया?
उत्तर: 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि NJAC से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रभावित होगी, इसलिए इसे रद्द कर दिया।

प्रश्न 8. कॉलेजियम के भीतर असहमति की समस्या क्यों उठती है?
उत्तर: निर्णय अक्सर सभी न्यायाधीशों की सहमति से नहीं होते, परंतु बाहर केवल सहमति का संस्करण पेश किया जाता है।

प्रश्न 9. न्यायिक स्वतंत्रता का लोकतंत्र में महत्व क्या है?
उत्तर: यह सुनिश्चित करता है कि न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के दबाव से मुक्त होकर न्याय कर सके।

प्रश्न 10. कॉलेजियम पर भाई-भतीजावाद का आरोप क्यों लगता है?
उत्तर: क्योंकि कई बार नियुक्तियों में रिश्तेदारों, वरिष्ठ वकीलों के बच्चों या व्यक्तिगत पसंद के नाम आगे बढ़ाए जाते हैं।

प्रश्न 11. कॉलेजियम प्रणाली सुधार के लिए एक प्रमुख सुझाव लिखिए।
उत्तर: प्रत्येक सिफारिश के कारणों का सार्वजनिक खुलासा किया जाए ताकि पारदर्शिता बनी रहे।

प्रश्न 12. न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर: नियुक्तियों और स्थानांतरण पर केंद्र द्वारा कॉलेजियम की सिफारिशें लंबित रखना।

प्रश्न 13. ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर: इसका अर्थ है कि न्यायपालिका बाहरी दबावों से मुक्त होकर स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से न्याय कर सके।

प्रश्न 14. कॉलेजियम प्रणाली का सबसे बड़ा लाभ क्या माना जाता है?
उत्तर: यह कार्यपालिका को सीधे नियंत्रण से दूर रखकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखती है।

प्रश्न 15. कॉलेजियम प्रणाली का सबसे बड़ा दोष क्या है?
उत्तर: पारदर्शिता और जवाबदेही की गंभीर कमी।

प्रश्न 16. पारदर्शिता बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं?
उत्तर: कॉलेजियम की बैठकों के निर्णय और कारण सार्वजनिक किए जाएँ तथा प्रक्रिया को रिकॉर्ड किया जाए।

प्रश्न 17. न्यायपालिका पर जनता का भरोसा क्यों आवश्यक है?
उत्तर: क्योंकि यह लोकतंत्र का अंतिम संरक्षक है; जनता का विश्वास न्यायपालिका की वैधता का आधार है।

प्रश्न 18. कार्यपालिका द्वारा नियुक्तियों में देरी का क्या प्रभाव होता है?
उत्तर: इससे अदालतों में रिक्तियाँ बढ़ती हैं, न्याय में विलंब होता है और न्यायाधीशों पर अप्रत्यक्ष दबाव पड़ सकता है।

प्रश्न 19. कॉलेजियम और NJAC में मूलभूत अंतर क्या है?
उत्तर: कॉलेजियम केवल न्यायाधीशों तक सीमित है, जबकि NJAC में न्यायपालिका, कार्यपालिका और समाज के प्रतिनिधियों की संयुक्त भूमिका थी।

प्रश्न 20. न्यायपालिका की स्वतंत्रता बचाने के लिए आगे क्या आवश्यक है?
उत्तर: पारदर्शिता, जवाबदेही और संतुलित प्रणाली जिसमें स्वतंत्रता भी सुरक्षित रहे और जनता का विश्वास भी बना रहे।