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कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ़ इंडिया सुप्रीम कोर्ट पहुँची—राजस्थान के एंटी-कन्वर्ज़न कानून को चुनौती: धार्मिक स्वतंत्रता बनाम राज्य नियंत्रण का बड़ा सवाल

कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ़ इंडिया सुप्रीम कोर्ट पहुँची—राजस्थान के एंटी-कन्वर्ज़न कानून को चुनौती: धार्मिक स्वतंत्रता बनाम राज्य नियंत्रण का बड़ा सवाल

        भारत में धर्मांतरण से जुड़े कानून हमेशा से बहस और विवाद के केंद्र में रहे हैं। कई राज्यों द्वारा एंटी-कन्वर्ज़न कानून लागू किए जाने के बाद अक्सर धार्मिक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिक समूहों ने यह दावा किया है कि ऐसे कानून संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।
इसी पृष्ठभूमि में अब कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ़ इंडिया (CBCI) ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है और राजस्थान के एंटी-कन्वर्ज़न कानून को चुनौती दी है। CBCI का कहना है कि यह कानून धार्मिक स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों और व्यक्तिगत स्वायत्तता पर सीधा हमला है।

       यह याचिका न केवल राजस्थान के कानून को लेकर है, बल्कि देशभर में बढ़ते हुए एंटी-कन्वर्ज़न क़ानूनों के भविष्य और संवैधानिक स्थिति पर भी बड़ा प्रभाव डाल सकती है।
आइए इस पूरे मामले को विस्तार से समझते हैं।


 राजस्थान का एंटी-कन्वर्ज़न कानून: क्या है मामला?

      राजस्थान सरकार द्वारा पारित राजस्थान स्वतंत्रता विधेयक (Rajasthan Freedom of Religion Bill) को केंद्र ने 2024 में मंजूरी दी थी। यह कानून “बल”, “प्रलोभन”, “कपटपूर्ण साधनों” और “जबरन धर्म परिवर्तन” को रोकने के उद्देश्य से बनाया गया है।

इस कानून की प्रमुख विशेषताएँ:

  • बिना अनुमति धर्म परिवर्तन अपराध
  • परिवार के सदस्य/रिश्तेदार FIR दर्ज करा सकते हैं
  • 5 से 10 साल तक की सजा
  • मामला गैर-जमानती (non-bailable)
  • धर्म परिवर्तन कराने वाले संस्थानों की जवाबदेही

      सरकार का दावा था कि इस कानून की जरूरत इसलिए है क्योंकि राज्य में “लव जिहाद”, “धार्मिक प्रलोभन” और “धार्मिक बदलाव के संगठित नेटवर्क” जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं।

लेकिन CBCI का कहना बिल्कुल उलट है।


 CBCI सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुँची? उनकी आपत्तियाँ क्या हैं?

       कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ़ इंडिया देश का सबसे बड़ा ईसाई संगठन है, जो लाखों कैथोलिक नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। उन्होंने याचिका में कहा कि राजस्थान का कानून:

 संविधान के अनुच्छेद 25 का सीधा उल्लंघन करता है

अनुच्छेद 25 हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह—

  • स्वयं अपनी पसंद का धर्म मान सके
  • उसका प्रचार कर सके
  • धर्म परिवर्तन कर सके

परंतु यह कानून इन अधिकारों पर अत्यधिक नियंत्रण लगाता है।


 ‘प्रलोभन’ और ‘कपट’ की परिभाषाएँ अस्पष्ट हैं

       कानून में “प्रलोभन” की परिभाषा ऐसी है कि किसी भी दान, सहायता, शिक्षा या चिकित्सा सेवा को भी गलत ठहराया जा सकता है।
CBCI का तर्क है—

“हमारे स्कूल, अस्पताल और चैरिटी संस्थाएँ गरीबों की सेवा करते हैं। यदि कोई गरीब व्यक्ति हमारी सेवा से प्रभावित होकर हमारे धर्म को समझना चाहे तो यह उसकी अपनी इच्छा होनी चाहिए, अपराध नहीं।”


 यह कानून अल्पसंख्यकों के अधिकारों को दबाने के लिए इस्तेमाल हो सकता है

याचिका में कहा गया कि ऐसे कानूनों का उपयोग अक्सर:

  • अल्पसंख्यक समुदायों को डराने
  • उनके धार्मिक कार्यक्रमों पर आरोप लगाने
  • पादरियों और मिशनरियों के खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज करने

के लिए किया जाता है।


 व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला

धर्म परिवर्तन के लिए अनुमति लेना, पहले से सूचना देना, या राज्य की मंजूरी का इंतज़ार करना—ये सब व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरुद्ध है।


 ‘लव जिहाद’ की अवधारणा कानूनी रूप से अस्वीकार्य

CBCI ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कई बार कह चुका है कि—

वयस्कों को अपनी मर्जी से शादी करने और साथी चुनने का पूर्ण अधिकार है।

यह कानून प्रेम विवाहों को भी संदेह की नज़र से देखता है।


 सुप्रीम कोर्ट में CBCI की याचिका: मुख्य दलीलें

याचिका में निम्न प्रमुख तर्क रखे गए:

  • कोई भी धर्म स्वतः स्वीकार करने पर रोक नहीं लगाई जा सकती।
  • “जबरन” धर्म परिवर्तन को रोकने के लिए पर्याप्त प्रावधान पहले से IPC में मौजूद हैं।
  • राज्य मनमाने ढंग से “धर्म परिवर्तन” को अपराध नहीं बना सकता।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कई बार कहा है कि “धर्म बदलने का अधिकार भी धार्मिक स्वतंत्रता का हिस्सा है।”

अत: कानून अनावश्यक, असंवैधानिक और दुरुपयोग योग्य है।


 सरकार का पक्ष: राज्य ने कानून क्यों बनाया?

राजस्थान सरकार का कहना है कि—

  • राज्य में धार्मिक परिवर्तन का अवैध नेटवर्क सक्रिय है।
  • गरीबों, आदिवासियों और महिलाओं को निशाना बनाकर “प्रलोभन” या “दबाव” डालकर धर्म परिवर्तन कराए जा रहे थे।
  • कानून केवल “जबरन” परिवर्तन पर रोक लगाता है, स्वेच्छा से धर्म बदलने पर नहीं।
  • यह कानून सामाजिक सौहार्द की रक्षा करता है।

     सरकार ने यह भी कहा कि कानून की परिभाषाएँ सुप्रीम कोर्ट की Rev. Stanislaus केस की व्याख्या के अनुरूप हैं, जिसमें कहा गया था कि “जबरन और कपटपूर्ण धर्मांतरण मूल अधिकार नहीं है।”


 भारत में एंटी-कन्वर्ज़न कानून: एक व्यापक परिप्रेक्ष्य

भारत में लगभग 12 राज्य एंटी-कन्वर्ज़न कानून लागू कर चुके हैं, इनमें शामिल हैं:

  • मध्य प्रदेश
  • उत्तर प्रदेश
  • छत्तीसगढ़
  • हिमाचल प्रदेश
  • गुजरात
  • ओडिशा
  • उत्तराखंड
  • झारखंड
  • हरियाणा
    आदि।

       इन कानूनों पर देशभर में कई कोर्ट मामलों में सवाल उठते रहे हैं। कई बार कोर्ट ने राज्य सरकारों को कठोर शब्दों में कहा कि वे इन कानूनों का “राजनीतिक या सामाजिक दुरुपयोग” न करें।


 क्या सुप्रीम कोर्ट इस मामले को बड़ी बेंच को भेज सकता है?

संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट यह मामले को:

  • संवैधानिक बेंच (5 जज)
    या
  • 7 जजों की बड़ी बेंच

को भेज दे, क्योंकि यह मामला धार्मिक स्वतंत्रता बनाम राज्य नियंत्रण का सीधा प्रश्न है और इसका दूरगामी प्रभाव होगा।


 कानून विशेषज्ञों की राय: यह मामला क्यों महत्वपूर्ण?

कानून विद्वानों का कहना है कि यह मामला:

 धार्मिक स्वतंत्रता का भविष्य तय करेगा

क्या सरकार यह तय करेगी कि कौन किस धर्म में जाए?

 अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सीधा असर

ईसाई और मुस्लिम संगठनों ने लंबे समय से आरोप लगाए हैं कि इन कानूनों का दुरुपयोग होता है।

 विवाह और धर्म–दोनों के अधिकारों से जुड़ा मुद्दा

‘लव जिहाद’ के नाम पर आपराधिक मुकदमों की बढ़ती संख्या चिंता का कारण है।

 संघीय ढांचे पर भी असर

क्योंकि धर्म केंद्रीय सूची का विषय नहीं है, बल्कि संशोधित राज्य विषय के अंतर्गत आता है।


 भविष्य की संभावनाएँ: सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है?

सुप्रीम कोर्ट के पास कई विकल्प हैं—

 कानून को पूरी तरह रद्द करना

यदि कोर्ट यह पाए कि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 25 का उल्लंघन है।

 कानून की कुछ धाराओं को अवैध घोषित करना

जैसे—

  • पूर्व अनुमति लेना
  • पुलिस को अत्यधिक अधिकार देना
  • गवाहों के बयानों को प्राथमिकता देना

 सरकार को संशोधन करने का निर्देश देना

ताकि कानून का दुरुपयोग न हो।

 मामले को बड़ी बेंच को भेजना

क्योंकि यह राष्ट्रीय महत्व का विषय है।


 निष्कर्ष: धार्मिक स्वतंत्रता और राज्य नियंत्रण के बीच संतुलन पर बड़ी बहस

CBCI की याचिका ने एक बार फिर यह बड़ा सवाल उठाया है—

“क्या भारत में व्यक्ति अपनी इच्छा से धर्म चुन सकता है या राज्य उसकी पसंद को नियंत्रित करेगा?”

      राजस्थान का कानून, और अन्य राज्यों के समान कानून, इस प्रश्न को और भी जटिल बना देते हैं।
अब नज़रें इस बात पर हैं कि सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धार्मिक अधिकारों और राज्य की व्यवस्था—इन तीनों के बीच क्या संतुलन बनाता है।

     यह मामला न सिर्फ ईसाई समुदाय के लिए, बल्कि पूरे देश के संवैधानिक ढांचे के लिए निर्णायक साबित हो सकता है।