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“केशवानंद भारती मामला : भारतीय संविधान की रीढ़ — ‘मूलभूत संरचना’ सिद्धांत का पताका‑फहराना”

“केशवानंद भारती मामला : भारतीय संविधान की रीढ़ — ‘मूलभूत संरचना’ सिद्धांत का पताका‑फहराना”

प्रस्तावना

भारतीय संवैधानिक इतिहास में Kesavananda Bharati बनाम Kerala राज्य मामले ने (24 अप्रैल 1973 को) न्यायिक दृष्टिकोण से एक मील‑पत्थर स्थापित किया है। इस निर्णय ने गृहस्थ संविधानों द्वारा किये जा सकने वाले संशोधनों की सीमा निर्धारित की और एक ऐसी रीढ़ (basic structure) की अवधारणा विकसित की, जिसे संसद के माध्यम से अछूता नहीं किया जा सकता। इस लेख में हम इस मामले की पृष्ठभूमि, तथ्यों‑प्रकरण, मुख्य निर्णय, ‘मूलभूत संरचना’ सिद्धांत, उसके प्रभाव‑परिणाम, तथा चुनौतियों पर गहराई से चर्चा करेंगे।


पृष्ठभूमि

  1. मूल मामला
    केशवानंद भारती, जो केरल के Edneer Mutt के शंकराचार्य थे, ने केरल सरकार द्वारा अधिनियमित भूमि‑सुधार कानूनों (Land Reforms Acts) एवं संशोधनों के विरुद्ध न्याय की गुहार लगाई। उनका तर्क था कि यह अधिनियमन उनके धार्मिक संस्थान के स्वामित्व अधिकार, धर्म‑स्वतंत्रता तथा संपत्ति अधिकारों को प्रभावित कर रहा था।
  2. संवैधानिक परिवेश
    उस समय भारत की संसद द्वारा संवैधानिक संशोधन क्रियाएँ तीव्र थीं। विशेष रूप से Twenty‑Fourth Amendment of the Constitution of India (1971), Twenty‑Fifth Amendment of the Constitution of India (1972) एवं अन्य संशोधन‑प्रयासों ने संसद की संशोधन‑शक्ति को व्यापक बनाने का प्रयास किया था। इससे पहले जेसी‑टेस्ट था Golak Nath v. State of Punjab (1967) जिसमें संसद द्वारा मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) के संशोधन पर न्याय‑समीक्षा (judicial review) की संभावना स्वीकार की गई थी।
  3. आवेदन सुप्रीम कोर्ट में
    भारतीजी ने 21 मार्च 1970 को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 25, 26 और संपत्ति‑अधिकार (उस समय मौलिक अधिकार के रूप में) के उल्लंघन का आरोप लगाया।
    इस मामले की सुनवाई देश के इतिहास की सबसे बड़ी संवैधानिकपीठ (13‑न्यायाधीशों की बेंच) द्वारा की गई थी।

मुख्य सवाल और न्यायालय के समक्ष विषय

  • क्या संसद के पास संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की असीमित (unlimited) शक्ति है — विशेष रूप से मौलिक अधिकारों तथा संसद‑एमीडमेंट (Article 368) द्वारा?
  • यदि ऐसी शक्ति है, तो क्या इस शक्ति का दायरा अत्यंत विशाल है या न्यायालय एवं संवैधानिक ढाँचे (framework) द्वारा कुछ सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं?
  • क्या संविधान में ‘मूलभूत संरचना’ (basic structure) नामक ऐसा तत्व है जिसे संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता?
  • प्रस्तावित संशोधन (24वाँ, 25वाँ आदि) क्या संवैधानिक रूप से वैध हैं या उनकी वैधता पर न्यायालयीय नियंत्रण सम्भव है?

न्यायालय का निर्णय – प्रमुख बिंदु

  1. संसद की संशोधन‑शक्ति
    न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान संशोधन करने का अधिकार है — अर्थात् संविधान का कोई भी भाग, समुचित प्रक्रिया से, संशोधित हो सकता है।
    परंतु यह शक्ति अनियंत (unfettered) नहीं है। संसद वह संशोधन नहीं कर सकती जो संविधान की मूलभूत संरचना को समाप्त या मोड़ दे।
  2. मूलभूत संरचना (Basic Structure) सिद्धांत
    न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि संविधान की कुछ विशेषताएँ (जैसे‑ संविधान की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक समीक्षा, संघीयता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता) मूलभूत संरचना की रूप में आती हैं, जिनको संसद अपने संशोधन द्वारा समाप्त नहीं कर सकती।
    अर्थात्‑ “संविधान बदला जा सकता है, पर उसकी आत्मा नहीं”
  3. सुनवाई एवं बहुमत निर्णय
    इस मामले में 13‑न्यायाधीशों की बेंच थी। निर्णय 7:6 के सर्वमहत्वपूर्ण बहुमत से दिया गया।
    न्यायमूर्ति H. R. Khanna ने इस सिद्धांत को विशेष रूप से संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया।
  4. संशोधन‑कानूनों की वैधता
    न्यायालय ने 24वें संशोधन को वैध माना, किन्तु 25वें संशोधन के कुछ भागों को असंवैधानिक घोषित किया। इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि संशोधन‑प्रक्रिया निरंतर हो सकती है, किंतु उसकी सीमाएँ न्यायालय द्वारा निर्धारित हो सकती हैं।

“मूलभूत संरचना” के घटक एवं उदाहरण

निर्णय में यह तय नहीं किया गया कि मूलभूत संरचना में कौन‑कौन‑सी विशेषताएँ शामिल होंगी; लेकिन न्यायाधीशों ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किये‑

  • संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of Constitution)
  • लोकतंत्र एवं गणराज्य स्वरूप
  • संघात्मक एवं क्षेत्रीय संरचना (Federalism)
  • धर्मनिरपेक्षता (Secularism)
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं न्यायिक समीक्षा (Independent Judiciary & Judicial Review)
  • मूलभूत अधिकारों का संरक्षण (Protection of Fundamental Rights)
  • सही प्रक्रिया (Due Process) एवं कानून का शासन (Rule of Law)

इनमें से यदि संसद किसी संशोधन द्वारा इन मूलगत­सिद्धांतों को बदलने या समाप्त करने का प्रयास करे, तो न्यायालय उस संशोधन को रद्द (strike down) कर सकती है।


महत्व और प्रभाव

  1. संविधान की पहचान एवं संरचना का संरक्षण
    इस निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि भारत के संविधान की मूल पहचान (identity) एवं मूल्य‑ढाँचा (ethos) संरक्षित रहेगा — संसद यदि चाहें, संविधान को बदल सकती है, लेकिन उसकी आत्मा नहीं।
  2. न्यायिक समीक्षा का सशक्तिकरण
    न्यायपालिका को यह अधिकार मिला कि वह संशोधनों की न्याय‑समीक्षा (judicial review) कर सकती है, यदि संशोधन मूलभूत संरचना को प्रभावित करें। इससे शक्ति‑विभाजन (separation of powers) एवं शासन‑व्यवस्था में संतुलन (checks & balances) मज़बूत हुआ।
  3. संसद एवं नियम‑प्रक्रिया की सीमा निर्धारण
    संसद को यह संदेश गया कि उसकी भर्ती‑शक्ति निरंकुश नहीं; संवैधानिक लोकतंत्र के ढाँचे में वह भी बंधी हुई है। यह निर्णय विभिन्न संवैधानिक संशोधनों (जैसे 39वें, 42वें संशोधन) में भी आधार बन गया।
  4. शैक्षणिक‑साधन एवं सामाजिक‑न्याय‑फील्ड में प्रयोग
    इस सिद्धांत का उपयोग भविष्य में अनेक मामलों में हुआ जहाँ संसद द्वारा या राज्य द्वारा किये गए संशोधन‑प्रयासों को ‘मूलभूत संरचना’ के विरुद्ध माना गया। इससे संवैधानिक शिक्षा, अध्यापन तथा शोध‑विषय में यह विषय सर्वाधिक चर्चित रहा।

चुनौतियाँ एवं विवाद‑बिंदु

  • परिभाषा का अस्पष्ट होना
    मूलभूत संरचना का कोई निश्चित सूचीबद्ध स्वरूप नहीं दिया गया। यह न्यायालय एवं प्रत्येक मामले की पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है।
  • लोकतंत्र बनाम न्याय‑प्रो क्लेश
    कुछ आलोचकों का तर्क है कि यह सिद्धांत संसद की संप्रभुता एवं जनता द्वारा चुनित जनप्रतिनिधियों की शक्ति को कम कर सकता है — “नीति‑निर्धारक” को अदालत द्वारा रोका जाना जन‑प्रतिनिधित्व के तर्क से मेल नहीं खाता।
  • आव्रजन और अनिश्चितता
    सुनवाई एवं निर्णय‑प्रक्रिया लंबी थी (लगभग 68 दिन तक चली) और निर्णय के अलग‑अलग भागों ने न्यायालयीय सिस्टम में अनिश्चितताएँ भी उत्पन्न की।
  • व्यवहारिक चुनौतियाँ
    संसद एवं राज्य सरकारों को इस निर्णय के आलोक में संवैधानिक संशोधनों, सामाजिक‑आर्थिक नीतियों को बनाना सहज नहीं रहा — उन्हें यह देखना पड़ता है कि संशोधन मूलभूत संरचना को न छेड़े।

निष्कर्ष

केशवानंद भारती मामला केवल एक याचिका या भूमि‑सुधार विवाद नहीं था — यह भारतीय लोकतंत्र, संविधान‑शासन और न्यायपालिका‑संसद संबंधों के लिए एक संविधान‑परिमाणक क्षण था। इसने स्पष्ट कर दिया कि संविधान सिर्फ लिखित शब्द‑समुच्चय नहीं, बल्कि एक जीवित, मूल्य‑आधारित संरचना है, जिसकी ‘रोक‑टोक’‑क्षमता संसद के हाथ में पूरी तरह‐से नहीं हो सकती।

संक्षेप में: संसद संशोधन कर सकती है, पर संविधान की आत्मा (its basic structure)‑ को नहीं छू सकती। ये विचार आज भी भारत में संवैधानिक‑वाद का आधार बने हुए हैं।