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केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973): भारतीय संविधान और मूल संरचना सिद्धांत

केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973): भारतीय संविधान और मूल संरचना सिद्धांत

भारतीय संविधान का इतिहास कई महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णयों से भरा हुआ है, जिनमें से कुछ ने न केवल संवैधानिक कानून को दिशा दी, बल्कि लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों और शासन की बुनियादी संरचना को स्थिर और सुरक्षित किया। इन्हीं ऐतिहासिक निर्णयों में से एक है केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973) का मामला। इस केस ने भारतीय संविधान में “मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine)” को जन्म दिया, जिसने संसद की संवैधानिक संशोधन शक्ति पर महत्वपूर्ण सीमा तय की और यह स्थापित किया कि संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताओं को बदला नहीं जा सकता।

इस लेख में हम इस निर्णय की पृष्ठभूमि, विवाद, तर्क-वितर्क, सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और इसके प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।


1. पृष्ठभूमि और विवाद की उत्पत्ति

स्वामी केशवानंद भारती, केरल के कसारगोड जिले में स्थित “एडनिर मठ” के प्रमुख थे। मठ के पास बड़ी मात्रा में भूमि थी। केरल सरकार ने भूमि सुधार अधिनियम, 1969 पारित किया, जिसके तहत मठ की भूमि का अधिग्रहण किया जाना था। स्वामी जी ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया और यह दलील दी कि यह अधिनियम उनके धार्मिक अधिकारों (अनुच्छेद 25 एवं 26) और संपत्ति के अधिकार (तत्कालीन अनुच्छेद 31) का उल्लंघन करता है।

इस विवाद ने केवल भूमि विवाद तक सीमित न रहते हुए, एक बड़े संवैधानिक प्रश्न को जन्म दिया — क्या संसद को संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की असीमित शक्ति है?


2. संविधान संशोधन और न्यायपालिका के बीच टकराव

इस मामले से पहले संसद और न्यायपालिका के बीच संविधान संशोधन की सीमा को लेकर कई विवाद सामने आ चुके थे:

  1. शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) – न्यायालय ने माना कि संसद को अनुच्छेद 368 के तहत मूल अधिकारों को भी संशोधित करने का अधिकार है।
  2. सजजन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) – न्यायालय ने संसद की असीमित शक्ति की पुष्टि की।
  3. गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) – इसमें न्यायालय ने कहा कि संसद मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती।

गोलकनाथ फैसले से संसद और कार्यपालिका असहज हो गईं और उसके बाद 24वाँ, 25वाँ एवं 29वाँ संशोधन लाए गए, जिनमें संसद को यह स्पष्ट अधिकार दिया गया कि वह किसी भी प्रावधान को संशोधित कर सकती है, यहाँ तक कि मूल अधिकारों को भी।


3. मुख्य प्रश्न

केस में उठे मूल प्रश्न थे:

  • क्या संसद को संविधान की असीमित संशोधन शक्ति प्राप्त है?
  • क्या संविधान के मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है?
  • क्या संविधान की कुछ ऐसी बुनियादी संरचनाएँ हैं जिन्हें बदला नहीं जा सकता?

4. सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (1973)

यह मामला 13 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ के समक्ष आया, जो अब तक की सबसे बड़ी पीठ थी। निर्णय 24 अप्रैल 1973 को सुनाया गया।

  • बहुमत (7 न्यायाधीशों) ने कहा कि संसद को संविधान संशोधन का अधिकार है, लेकिन यह अधिकार पूर्ण और असीमित नहीं है
  • संसद संविधान की किसी भी धारा में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) को नहीं बदला जा सकता
  • अल्पमत (6 न्यायाधीशों) का मत था कि संसद की शक्ति असीमित है और वह किसी भी प्रावधान को संशोधित कर सकती है।

इस प्रकार बहुमत से “मूल संरचना सिद्धांत” स्थापित हुआ।


5. मूल संरचना सिद्धांत (Basic Structure Doctrine)

न्यायालय ने संविधान की उन विशेषताओं को “मूल संरचना” का नाम दिया, जिन्हें संसद छू भी नहीं सकती। यद्यपि न्यायालय ने कोई निश्चित सूची नहीं दी, परंतु कुछ मुख्य तत्व इस प्रकार माने गए:

  • संविधान की सर्वोच्चता
  • गणराज्य और लोकतांत्रिक शासन प्रणाली
  • धर्मनिरपेक्षता
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता
  • विधि का शासन (Rule of Law)
  • नागरिकों के मौलिक अधिकार
  • संघीय ढांचा

6. निर्णय का महत्व और प्रभाव

(क) न्यायपालिका की भूमिका मजबूत हुई

इस निर्णय से न्यायपालिका संविधान की संरक्षक के रूप में उभरी। अदालत ने यह सुनिश्चित किया कि संसद अपने अधिकार का दुरुपयोग न कर सके।

(ख) लोकतंत्र की रक्षा

यदि संसद को असीमित शक्ति मिल जाती, तो कोई भी राजनीतिक दल संविधान को अपने हित में बदल सकता था। मूल संरचना सिद्धांत ने लोकतंत्र को स्थायित्व दिया।

(ग) संसद और न्यायपालिका के बीच संतुलन

यह निर्णय संसद की शक्ति पर अंकुश लगाता है, परंतु उसे संविधान संशोधन की पूरी स्वतंत्रता से वंचित नहीं करता।


7. आलोचनाएँ

  • कुछ विद्वानों का मानना है कि न्यायपालिका ने संसद की शक्ति को अनुचित रूप से सीमित कर दिया।
  • न्यायपालिका को यह अधिकार किस आधार पर मिला कि वह तय करे कि “मूल संरचना” क्या है?
  • यह निर्णय न्यायपालिका द्वारा न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) का उदाहरण माना जाता है।

8. आगे के मामलों में अनुप्रयोग

मूल संरचना सिद्धांत को बाद के कई मामलों में लागू किया गया:

  • इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण (1975) – लोकतंत्र और न्यायपालिका की समीक्षा शक्ति को मूल संरचना माना गया।
  • मिनerva मिल्स बनाम भारत संघ (1980) – संविधान के भाग III (मौलिक अधिकार) और भाग IV (राज्य नीति निर्देशक सिद्धांतों) के बीच संतुलन को मूल संरचना कहा गया।
  • डब्ल्यू.टी.एम.ए. बनाम भारत संघ (1993) – न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मूल संरचना माना गया।

9. आज के संदर्भ में महत्व

आज भी मूल संरचना सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ है। यह संसद को याद दिलाता है कि वह जनता की प्रतिनिधि होते हुए भी संविधान की सीमाओं से परे नहीं है। यह सिद्धांत भारतीय लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी बन चुका है।


10. निष्कर्ष

केशवानंद भारती बनाम राज्य केरल (1973) का फैसला भारतीय संवैधानिक इतिहास का टर्निंग पॉइंट है। इसने यह सुनिश्चित किया कि संविधान केवल एक राजनीतिक दस्तावेज नहीं है, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज है जिसकी आत्मा को बदला नहीं जा सकता। संसद अपनी शक्ति का प्रयोग करे, लेकिन संविधान की मूल संरचना को अक्षुण्ण रखते हुए।

यही कारण है कि यह निर्णय भारतीय लोकतंत्र को स्थायित्व, सुरक्षा और नागरिकों के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने में सदैव मील का पत्थर बना रहेगा।


संविधान की मूल संरचना के प्रमुख तत्व (Basic Structure of the Constitution)
क्रमांक मूल संरचना का तत्व संक्षिप्त विवरण
1. संविधान की सर्वोच्चता संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, संसद और सरकार उसी के अधीन कार्य करेंगे।
2. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और लोकतंत्र का संरक्षण।
3. गणराज्य स्वरूप राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होगा, वंशानुगत शासन नहीं होगा।
4. धर्मनिरपेक्षता राज्य सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करेगा, कोई राजकीय धर्म नहीं होगा।
5. न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायपालिका स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रहकर संविधान की रक्षा करेगी।
6. विधि का शासन (Rule of Law) सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं, कोई भी कानून से ऊपर नहीं।
7. मौलिक अधिकारों का संरक्षण नागरिकों को प्रदत्त मौलिक अधिकार छीन नहीं सकते, केवल उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
8. संघीय ढांचा (Federal Structure) केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बना रहेगा।
9. न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) न्यायालय संसद और कार्यपालिका के कार्यों की संवैधानिकता की समीक्षा कर सकते हैं।
10. न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के सिद्धांत संविधान की प्रस्तावना में निहित आदर्शों का संरक्षण।