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केवल बातचीत से बहलाने का आरोप साबित नहीं होता – इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला

केवल बातचीत से बहलाने का आरोप साबित नहीं होता – इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला

प्रस्तावना

भारत में नाबालिगों के अपहरण से जुड़े मामलों को लेकर समाज और कानून दोनों अत्यंत संवेदनशील रहते हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि नाबालिगों की सुरक्षा सुनिश्चित हो, साथ ही किसी निर्दोष व्यक्ति पर गलत आरोप न लगे। हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें यह कहा गया कि केवल बातचीत करना या संपर्क में आना, नाबालिग को बहला-फुसलाकर ले जाने का पर्याप्त प्रमाण नहीं माना जा सकता। यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े पहलुओं को भी उजागर करता है।


मामले की पृष्ठभूमि

देवरिया जिले के गऊरीबाजार थाना क्षेत्र से संबंधित एक मामला न्यायालय के सामने आया। आरोप था कि 16 वर्षीय किशोरी को बहला-फुसलाकर उसके घर से बाहर ले जाया गया। पुलिस ने आरोपी हिमांशु दूबे के खिलाफ भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363 (अपहरण) के तहत मुकदमा दर्ज किया। जांच के दौरान दो ही प्रत्यक्षदर्शी गवाह सामने आए — शिकायतकर्ता और पीड़िता की माता। किंतु किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि आरोपी ने किस प्रकार प्रलोभन देकर या जबरदस्ती से किशोरी को घर से बाहर ले गया।

किशोरी ने अपने बयान में कहा कि परिवार वालों द्वारा की जा रही मारपीट और बिजली के झटके देने से परेशान होकर उसने स्वयं घर छोड़ दिया। उसने स्पष्ट कहा कि आरोपी ने कोई शारीरिक शोषण नहीं किया और न ही उसे बहला-फुसलाकर अपने साथ ले गया। इसके बाद आरोपी ने कोर्ट में याचिका दायर कर मामले को खारिज करने की मांग की।


कोर्ट का विश्लेषण

न्यायमूर्ति विक्रम डी. चौहान की एकलपीठ ने इस मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि केवल बातचीत करना या किसी से संपर्क में आना, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि नाबालिग को बहला-फुसलाकर ले जाया गया। कोर्ट ने कहा:

“धारा 361 तब लागू होगी, जब नाबालिग को उसके विधिसम्मत अभिभावक की अभिरक्षा से बिना सहमति के बाहर ले जाया जाए और उसे प्रलोभन, वादा, प्रस्ताव या प्रोत्साहन देकर अभिभावकत्व से अलग किया जाए। यदि नाबालिग स्वयं, अपनी मर्जी से घर छोड़ दे, तो यह धारा लागू नहीं होगी।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहों ने बहलाकर ले जाने का कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया। केवल बातचीत करना दंडनीय अपराध नहीं है, जब तक यह साबित न हो कि बातचीत का उद्देश्य नाबालिग को अभिभावक की देखरेख से अलग करना था।


संबंधित कानूनी प्रावधान

इस फैसले में मुख्य रूप से भारतीय दंड संहिता की निम्नलिखित धाराओं का उल्लेख हुआ:

धारा 361 – अपहरण की परिभाषा

इस धारा के अनुसार अपहरण तब माना जाएगा जब किसी नाबालिग या मानसिक रूप से असमर्थ व्यक्ति को उसके अभिभावक की अनुमति के बिना ले जाया जाए और उसे प्रलोभन, डराने, छल से उसकी अभिरक्षा से दूर किया जाए।

धारा 363 – अपहरण का दंड

यदि धारा 361 के तहत अपहरण सिद्ध हो, तो उसके लिए धारा 363 के तहत दंड का प्रावधान है। परंतु धारा 361 के बिना यह धारा लागू नहीं होगी।

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत तथ्यों में यह नहीं दिखाया गया कि आरोपी ने किसी प्रकार से प्रलोभन या दबाव देकर नाबालिग को घर से बाहर निकाला।


नाबालिगों की सुरक्षा और कानून की भूमिका

नाबालिगों की सुरक्षा भारतीय कानून का प्रमुख उद्देश्य है। बच्चों को परिवार, विद्यालय और समाज से जोड़कर उनके हितों की रक्षा की जाती है। लेकिन कई बार पारिवारिक कलह, मानसिक तनाव, या अभिभावकों से असंतोष के चलते नाबालिग स्वयं घर छोड़ देते हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय का दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि निर्दोष लोगों पर अपराध का आरोप न लगे और वास्तविक सुरक्षा का उद्देश्य भी पूरा हो।

इस फैसले ने यह संतुलन स्थापित किया है कि कानून का उपयोग किसी निर्दोष को दंडित करने के लिए न हो, और साथ ही नाबालिग की स्वायत्तता को भी समझा जाए। साथ ही अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अपहरण और स्वेच्छा से घर छोड़ने के मामलों में अंतर करना आवश्यक है।


सामाजिक संदर्भ

भारत में पारिवारिक तनाव, घरेलू हिंसा, मानसिक प्रताड़ना, और अभिभावकों के साथ संघर्ष के मामलों में बच्चों का घर छोड़ देना असामान्य नहीं है। ऐसे मामलों में कई बार नाबालिगों को अपराधी नहीं, बल्कि पीड़ित के रूप में देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने इस पहलू पर ध्यान देते हुए कहा कि बच्चों की मानसिक स्थिति, पारिवारिक परिस्थिति और सामाजिक दबाव को समझे बिना कानून लागू करना न्यायसंगत नहीं होगा।

यह फैसला समाज में यह संदेश देता है कि:

  1. हर घर छोड़ने का मामला अपहरण नहीं है।
  2. बच्चों की मानसिक स्थिति का ध्यान रखना चाहिए।
  3. पारिवारिक विवादों के समाधान के लिए संवाद आवश्यक है।
  4. कानून का उद्देश्य दोषारोपण नहीं, बल्कि संरक्षण होना चाहिए।

मानसिक स्वास्थ्य का आयाम

किशोरी द्वारा दिए गए बयान में घरेलू हिंसा और मानसिक प्रताड़ना का उल्लेख है। यह स्पष्ट करता है कि कई बार बच्चों की समस्याओं को अपराध से जोड़ देना उचित नहीं होता। अदालत ने अप्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि मानसिक स्वास्थ्य, पारिवारिक दबाव और सामाजिक समस्याएं बच्चों को घर छोड़ने के लिए मजबूर कर सकती हैं।

इस फैसले से मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देने की आवश्यकता सामने आई है। यदि समाज और प्रशासन समय रहते बच्चों की समस्याओं को समझें तो ऐसे मामले अपराध में नहीं बदलेंगे।


केस का महत्व

यह फैसला निम्न कारणों से ऐतिहासिक और उपयोगी है:

✔ अपहरण की धाराओं का सही उपयोग
✔ निर्दोष व्यक्तियों को बचाव का अधिकार
✔ नाबालिग की स्वायत्तता और मानसिक स्थिति को समझने का प्रयास
✔ पारिवारिक विवादों में कानून के दुरुपयोग को रोकना
✔ बच्चों की सुरक्षा के साथ उनके अधिकारों की रक्षा


निष्कर्ष

इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला बच्चों से जुड़े अपहरण मामलों में संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी नाबालिग से बातचीत करना या संपर्क में रहना, तब तक अपराध नहीं माना जाएगा जब तक यह साबित न हो कि आरोपी ने प्रलोभन देकर या जबरदस्ती से उसे अभिभावक की अभिरक्षा से बाहर निकाला। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि नाबालिग का अपने विवेक से घर छोड़ना अपराध की श्रेणी में नहीं आता।

यह फैसला न केवल कानून की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज में बच्चों के अधिकार, मानसिक स्वास्थ्य, और पारिवारिक संवाद को लेकर भी एक सकारात्मक संदेश देता है। कानून का उद्देश्य दंड नहीं, बल्कि न्याय और संरक्षण है—इस फैसले ने इसे व्यवहार में उतारने का प्रयास किया है।