“साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला: केवल बरामदगी से संबंधित खुलासा स्वीकार्य, हथियार के उपयोग का बयान अस्वीकार्य”
भूमिका:
भारतीय न्याय प्रणाली में साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act, 1872) का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह अधिनियम तय करता है कि न्यायालय में कौन-से साक्ष्य स्वीकार्य हैं और कौन-से नहीं। इसी साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 अक्सर आपराधिक मामलों में विवाद और न्यायिक व्याख्या का केंद्र रही है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि धारा 27 के तहत केवल वही खुलासा (disclosure statement) न्यायालय में स्वीकार्य होगा जो सीधे तौर पर किसी बरामदगी (recovery) से जुड़ा हो।
यदि आरोपी यह भी कहे कि उसने उसी हथियार से अपराध किया, तो उस हिस्से का बयान साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं होगा।
केस की पृष्ठभूमि:
यह मामला उस समय न्यायालय के समक्ष आया जब अभियोजन पक्ष ने आरोपी के खुलासे पर भरोसा करते हुए कहा कि आरोपी ने पुलिस के सामने यह स्वीकार किया कि उसने हत्या में उपयोग किए गए हथियार को कहाँ छिपाया था और यह भी बताया कि उसने उसी हथियार से अपराध किया। पुलिस ने उक्त बयान के आधार पर आरोपी की निशानदेही पर हथियार बरामद किया।
ट्रायल कोर्ट और बाद में हाईकोर्ट ने इस खुलासे को संपूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया, लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा तो न्यायालय ने विस्तार से धारा 27 की व्याख्या करते हुए कहा कि —
“कानून के अनुसार केवल वह हिस्सा स्वीकार्य है जो सीधे तौर पर किसी वस्तु की बरामदगी से संबंधित हो; जबकि अपराध करने के तरीके या हथियार के प्रयोग के बारे में दिया गया बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
धारा 27 साक्ष्य अधिनियम का सार:
Evidence Act, 1872 की धारा 27 यह कहती है —
“जब किसी व्यक्ति को किसी अपराध के संबंध में हिरासत में लिया गया हो और वह ऐसा कोई बयान देता है जिससे किसी तथ्य की खोज (discovery) होती है, तो उस बयान का केवल वही हिस्सा साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगा जो उस खोज से संबंधित है।”
इसका अर्थ यह हुआ कि यदि आरोपी कहे —
“मैंने चाकू से हत्या की और वह चाकू मैंने घर के पीछे छिपाया है,”
तो इस कथन का केवल यह हिस्सा स्वीकार्य होगा —
“चाकू मैंने घर के पीछे छिपाया है।”
लेकिन “मैंने चाकू से हत्या की” वाला भाग अदालत में साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं होगा, क्योंकि वह आत्मस्वीकृति (confession) के दायरे में आता है जो पुलिस के समक्ष दिया गया है, और पुलिस के समक्ष आत्मस्वीकृति सामान्यतः अवैध मानी जाती है (धारा 25 और 26 के अनुसार)।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25, 26 और 27 को एक साथ पढ़ना आवश्यक है।
- धारा 25 कहती है कि पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया कोई भी आत्मस्वीकृति बयान साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं है।
- धारा 26 यह स्पष्ट करती है कि हिरासत में रहते हुए दिया गया बयान भी तब तक स्वीकार्य नहीं है जब तक कि वह मजिस्ट्रेट के सामने न दिया गया हो।
- धारा 27 एक अपवाद के रूप में काम करती है, जहाँ पुलिस को यह अधिकार मिलता है कि वह आरोपी के दिए गए बयान का केवल वह हिस्सा साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करे जो किसी तथ्य की खोज से सीधे संबंधित हो।
न्यायालय ने कहा कि धारा 27 का उद्देश्य यह है कि अगर किसी आरोपी के बयान से कोई नया तथ्य सामने आता है, जैसे — अपराध में प्रयुक्त हथियार, चोरी की गई वस्तु, या कोई अन्य सबूत बरामद होता है, तो उसी हिस्से को अदालत में मान्यता दी जा सकती है।
महत्वपूर्ण टिप्पणी:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा —
“कानून किसी व्यक्ति को अपने ही विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं करता। अतः यदि आरोपी अपने बयान में यह स्वीकार कर ले कि उसने अपराध किया है, तो उसका यह भाग अस्वीकार्य होगा। केवल वह हिस्सा, जिससे किसी बरामदगी का पता चलता है, स्वीकार्य होगा।”
बेंच ने यह भी कहा कि पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बरामदगी के बयान को सावधानीपूर्वक रिकॉर्ड किया जाए, और अदालत को यह देखना चाहिए कि बरामदगी वास्तव में आरोपी की निशानदेही से हुई या पहले से ज्ञात थी।
न्यायालय द्वारा उद्धृत पूर्व निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय में कई पुराने प्रकरणों का उल्लेख किया, जिनमें धारा 27 की व्याख्या पहले की जा चुकी है, जैसे कि —
- Pulukuri Kottaya vs. King Emperor (AIR 1947 PC 67) — यह प्रिवी काउंसिल का ऐतिहासिक निर्णय है जिसमें कहा गया था कि धारा 27 केवल उस सीमा तक लागू होती है जहाँ तक वह “discovery of fact” से संबंधित है।
- State of UP vs. Deoman Upadhyaya (1960 AIR SC 1125) — सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 27 को अत्यंत सीमित दायरे में लागू किया जाना चाहिए।
- Aghnoo Nagesia vs. State of Bihar (1966 AIR SC 119) — इसमें कहा गया कि आत्मस्वीकृति के केवल “discovery-related” भाग को ही स्वीकारा जा सकता है।
न्यायालय ने इन मिसालों का अनुसरण करते हुए स्पष्ट किया कि “disclosure” का मतलब केवल वह जानकारी है जो पहले अज्ञात थी और जिसकी वजह से कोई वस्तु या तथ्य सामने आया।
न्यायालय का तर्क (Reasoning of the Court):
सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से बताया कि —
- आरोपी द्वारा दिया गया पूरा बयान एक ही समय पर दिया जा सकता है, लेकिन अदालत को यह तय करना होगा कि उसमें से कौन-सा हिस्सा स्वीकार्य है और कौन-सा नहीं।
- “I used this knife to stab the deceased” — यह हिस्सा आत्मस्वीकृति है, अतः अस्वीकार्य है।
- “I have hidden the knife in my backyard” — यह हिस्सा “discovery” से संबंधित है, अतः स्वीकार्य है।
न्यायालय ने आगे कहा कि पुलिस या अभियोजन को यह साबित करना होगा कि बरामद वस्तु वास्तव में आरोपी की निशानदेही पर मिली, न कि पहले से पुलिस के पास जानकारी थी।
न्यायालय का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए कहा —
“धारा 27 के तहत आरोपी का केवल वह बयान स्वीकार्य होगा जो किसी तथ्य की खोज से जुड़ा हो। हथियार के प्रयोग, अपराध के तरीके, या अपराध की स्वीकृति संबंधी बयान साक्ष्य के रूप में मान्य नहीं होंगे।”
न्यायालय ने संबंधित आरोपी की सजा को आंशिक रूप से रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि केवल हथियार की बरामदगी को साक्ष्य के रूप में स्वीकारा जा सकता है, लेकिन “उस हथियार से हत्या करने” के बयान को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
कानूनी महत्व:
यह निर्णय साक्ष्य कानून की व्याख्या में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह पुलिस जांच की सीमाओं और आरोपी के अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करता है।
- यह स्पष्ट करता है कि पुलिस को बयान रिकॉर्ड करते समय अत्यंत सावधानी रखनी होगी।
- न्यायालयों को भी यह ध्यान रखना होगा कि केवल बरामदगी से संबंधित हिस्से को ही स्वीकार करें।
- यह निर्णय न्यायिक निष्पक्षता (Judicial Fairness) और अभियुक्त के मौलिक अधिकारों की रक्षा को सुदृढ़ करता है।
संवैधानिक दृष्टिकोण:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(3) के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि धारा 27 की व्याख्या अनुच्छेद 20(3) के अनुरूप ही की जानी चाहिए ताकि किसी भी आरोपी के अधिकारों का हनन न हो।
न्यायपालिका और पुलिस के लिए निर्देश:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि —
- पुलिस को किसी भी आरोपी का बयान लेते समय यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कोई दबाव या धमकी न दी जाए।
- बरामदगी का सही रिकॉर्ड तैयार किया जाए और पंच गवाह (independent witnesses) की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए।
- अदालतों को यह देखना चाहिए कि बरामदगी की प्रक्रिया पारदर्शी और निष्पक्ष थी।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 की सही व्याख्या को एक बार फिर स्पष्ट करता है। यह निर्णय न्यायपालिका की उस सतर्कता को दर्शाता है जिसके माध्यम से आरोपी के अधिकारों की रक्षा करते हुए सच्चाई की खोज की जाती है।
यह फैसला एक बार फिर यह संदेश देता है कि —
“न्याय केवल सज़ा देना नहीं, बल्कि निष्पक्ष प्रक्रिया के माध्यम से सच्चाई की खोज है।”
इसलिए, यदि किसी आरोपी के बयान से कोई वस्तु बरामद होती है, तो उस बरामदगी का हिस्सा अदालत में मान्य होगा, लेकिन उसके अपराध स्वीकार करने वाले हिस्से को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
यह निर्णय भारतीय आपराधिक न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मिसाल (precedent) के रूप में स्थापित होगा, जो पुलिस जांच की पारदर्शिता और आरोपी के संवैधानिक अधिकारों के बीच उचित संतुलन बनाएगा।