केवल तेज रफ्तार से नहीं साबित होती लापरवाही: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने दुर्घटना मामले में आरोपी को किया बरी

केवल तेज रफ्तार से नहीं साबित होती लापरवाही: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने दुर्घटना मामले में आरोपी को किया बरी

प्रस्तावना

दीप राज बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य
(Deep Raj v. State of H.P.)
न्यायालय: हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
न्यायाधीश: माननीय न्यायमूर्ति राकेश कैंथला (Justice Rakesh Kainthla)
तारीख: 3 जुलाई 2025
न्यूट्रल सिटेशन: 2025:HHC:19449
साइटेशन: 2025 SCC OnLine HP 2699

मुख्य बात:
इस निर्णय में न्यायालय ने कहा कि केवल तेज रफ्तार से यह सिद्ध नहीं होता कि चालक लापरवाह था। अभियोजन की कहानी में विरोधाभास और आरोपी की पहचान स्पष्ट न होने के कारण न्यायालय ने निचली अदालतों के दोषसिद्धि आदेश को रद्द कर दिया और आरोपी दीप राज को बरी कर दिया।

कानूनी धाराएँ:

भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC): धारा 279 (लापरवाही से वाहन चलाना), धारा 337 (दूसरे को चोट पहुँचाना)

मोटर वाहन अधिनियम, 1988: धारा 181 (अनधिकृत रूप से वाहन चलाना), धारा 187 (दुर्घटना के बाद रिपोर्ट न करना आदि)

        मोटर वाहन दुर्घटना के मामलों में अक्सर यह मान लिया जाता है कि यदि वाहन तेज गति में था, तो चालक ने अवश्य ही लापरवाही या जल्दबाज़ी की होगी। परंतु न्यायपालिका इस विषय में एक सशक्त और स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाती है कि “तेज रफ्तार” अपने-आप में अपराध का प्रमाण नहीं है। हाल ही में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक ऐसे ही मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए यह स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत असंगत और विरोधाभासी साक्ष्यों के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 279 (लापरवाही से वाहन चलाना), 337 (दूसरे को चोट पहुँचाना), तथा मोटर वाहन अधिनियम की धारा 181 एवं 187 से संबंधित है। आरोपी पर आरोप था कि उसने तेज गति से वाहन चलाते हुए एक बस को टक्कर मारी, जिससे कुछ लोग घायल हो गए।

FIR में शुरूआती जानकारी के अनुसार, दोनों वाहन — ट्रक और बस — तेज गति में चल रहे थे। किंतु बाद में गवाहों ने अदालत में यह बयान दिया कि जब ट्रक ने टक्कर मारी, तब बस पूरी तरह से रुकी हुई थी। इस तरह के बुनियादी विरोधाभास से अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया।

उच्च न्यायालय की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ

  • तेज़ रफ़्तार स्वयं में लापरवाही नहीं है: अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी वाहन का तेज गति में होना अपने आप में चालक की लापरवाही या अपराध की पुष्टि नहीं करता, जब तक यह साबित न हो कि उसने यातायात नियमों का उल्लंघन किया या कर्तव्य का पालन नहीं किया।
  • अभियोजन की कहानी में विरोधाभास: न्यायालय ने यह पाया कि FIR और गवाहों के बयानों में गंभीर विरोधाभास था। अभियोजन की कहानी ट्रायल के दौरान बदलती रही, जिससे मामला संदेहास्पद हो गया।
  • साक्ष्यों की विश्वसनीयता: ट्रायल कोर्ट और अपीलीय अदालत ने जिन साक्ष्यों के आधार पर आरोपी को दोषी ठहराया था, वे या तो स्वीकार्य नहीं थे या उनकी वैधता संदिग्ध थी। इससे यह स्पष्ट हुआ कि दोषसिद्धि अवैध थी।
  • अभियुक्त की पहचान पर संदेह: न्यायालय ने यह भी पाया कि आरोपी की पहचान भी संदेह से परे सिद्ध नहीं हो सकी थी, जो एक आपराधिक मुकदमे में सबसे महत्वपूर्ण तत्व होता है।

न्यायिक सिद्धांत का पुनः पुष्टि
यह निर्णय “संदेह का लाभ” (Benefit of Doubt) सिद्धांत की पुनः पुष्टि करता है। न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे तब तक किसी को दोषी न मानें जब तक कि अभियोजन पक्ष संदेह से परे अपराध को सिद्ध न कर दे। यदि अभियोजन की कहानी में ही असंगति हो, तो न्यायालय आरोपी को दोषी नहीं ठहरा सकता।

फैसले का निष्कर्ष और प्रभाव
उच्च न्यायालय ने निचली अदालतों के निर्णयों को पलटते हुए आरोपी को दोषमुक्त कर दिया और निर्देश दिया कि वह आवश्यक ज़मानत बांड प्रस्तुत करे। यह फैसला न केवल अभियोजन पक्ष के लिए एक चेतावनी है कि वह केस तैयार करते समय पूर्ण सावधानी बरते, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्यायपालिका केवल आरोपों पर नहीं, बल्कि ठोस और सुसंगत साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लेती है।

उपसंहार
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय का यह निर्णय मोटर दुर्घटना मामलों में एक मील का पत्थर है, जो स्पष्ट करता है कि केवल वाहन की तेज गति को लापरवाही का प्रमाण नहीं माना जा सकता। यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में साक्ष्य की गुणवत्ता और अभियोजन की सुसंगतता के महत्व को रेखांकित करता है। ऐसे निर्णयों से यह आश्वासन मिलता है कि न्यायिक प्रक्रिया निष्पक्ष, सटीक और विधिसम्मत तरीके से आगे बढ़ेगी।