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केरल हाईकोर्ट का अहम फैसला : किशोरावस्था, सहमति और POCSO कानून की व्याख्या

केरल हाईकोर्ट का अहम फैसला : किशोरावस्था, सहमति और POCSO कानून की व्याख्या

प्रस्तावना

हाल ही में केरल हाईकोर्ट ने एक ऐसा निर्णय दिया जिसने समाज, कानून और किशोरावस्था के मनोविज्ञान—तीनों पर गहन चर्चा छेड़ दी है। अदालत ने एक युवक पर चल रहे POCSO (Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012) के मामले को यह कहते हुए समाप्त कर दिया कि यह रिश्ता दोनों की आपसी सहमति पर आधारित था और पीड़िता भी इसे जारी रखना चाहती है। अदालत ने माना कि अगर यही घटनाएं छह महीने बाद घटी होतीं, जब लड़की बालिग हो जाती, तो कोई अपराध बनता ही नहीं। यह मामला किशोरावस्था की भावनाओं और सामाजिक वास्तविकताओं से जुड़ा हुआ है, जिसे कानूनन अपराध का रूप दे दिया गया था।

इस फैसले ने न केवल कानूनविदों को बल्कि समाजशास्त्रियों और नीति-निर्माताओं को भी सोचने पर मजबूर किया है कि किशोर प्रेम संबंधों और सहमति के मामलों में कानून को कितना सख्ती से लागू करना चाहिए और कहां लचीलापन दिखाना चाहिए।


POCSO कानून का उद्देश्य

2012 में लागू किया गया POCSO कानून बच्चों को यौन शोषण, यौन उत्पीड़न और पोर्नोग्राफी जैसे गंभीर अपराधों से बचाने के लिए लाया गया था। इसका मुख्य उद्देश्य था कि नाबालिग (18 वर्ष से कम आयु) बच्चों को सुरक्षित वातावरण मिले और किसी भी प्रकार के यौन अपराध को सख्ती से रोका जा सके।

इस कानून की विशेषताएँ –

  1. सख्त परिभाषा – 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति के साथ यौन संपर्क स्वतः अपराध माना जाएगा, चाहे उसकी सहमति हो या नहीं।
  2. कठोर सजा – न्यूनतम 3 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान।
  3. विशेष अदालतें – मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए।
  4. पीड़िता की पहचान गोपनीय रखना – समाज में उसकी सुरक्षा और सम्मान सुनिश्चित करने के लिए।

यानी, कानून की दृष्टि में नाबालिग की सहमति का कोई महत्व नहीं है।


अदालत के सामने मुद्दा

इस मामले में पीड़िता और आरोपी युवक आपसी सहमति से रिश्ते में थे। दोनों किशोरावस्था की उस अवस्था से गुजर रहे थे, जहां आकर्षण और भावनाएं स्वाभाविक होती हैं। लड़की ने भी अदालत में साफ कहा कि वह संबंध जारी रखना चाहती है और युवक से शादी करने की भी इच्छा रखती है।

अदालत के सामने सवाल यह था कि –

  • क्या केवल आयु के आधार पर युवक को अपराधी मान लिया जाए?
  • या फिर किशोरावस्था के सामाजिक और भावनात्मक पहलुओं को ध्यान में रखा जाए?

हाईकोर्ट का दृष्टिकोण

अदालत ने इस मामले में गहन विवेचना की और निम्नलिखित बातें कही –

  1. अगर यह संबंध लड़की के बालिग होने के बाद होता, तो कोई अपराध नहीं बनता।
    यानी अपराध का आधार केवल उम्र है, न कि वास्तविक शोषण।
  2. यह मामला किशोरावस्था की स्वाभाविक भावनाओं का है।
    कोर्ट ने माना कि ऐसे संबंध अक्सर समाज में होते हैं और उन्हें अपराध की श्रेणी में डालना हमेशा न्यायसंगत नहीं।
  3. भविष्य बर्बाद होने का खतरा।
    कोर्ट ने कहा कि अगर मुकदमा चलता रहा, तो युवक का भविष्य खराब हो सकता है। एक अभियुक्त के रूप में उसका सामाजिक और व्यावसायिक जीवन प्रभावित होगा।
  4. विवाह की संभावना।
    कोर्ट ने यह भी माना कि भविष्य में दोनों शादी कर सकते हैं और शांतिपूर्ण जीवन बिता सकते हैं। ऐसे में कानून का कठोर प्रयोग दोनों के जीवन को नष्ट कर देगा।

सामाजिक और कानूनी जटिलताएँ

यह निर्णय एक बड़ा सवाल खड़ा करता है – क्या कानून को हर स्थिति में कठोरता से लागू करना चाहिए, या फिर परिस्थितियों के अनुसार लचीलापन जरूरी है?

  1. कानूनी जटिलता
    POCSO कानून स्पष्ट कहता है कि 18 साल से कम आयु में किसी भी प्रकार का यौन संबंध अपराध है। लेकिन किशोर प्रेम संबंधों को भी अपराध मानना न्याय के वास्तविक उद्देश्यों से भटक सकता है।
  2. सामाजिक जटिलता
    भारतीय समाज में किशोर प्रेम को अक्सर नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है। माता-पिता और समुदाय दबाव डालकर इन मामलों को पुलिस और अदालत तक पहुंचा देते हैं।
  3. नैतिक दुविधा
    क्या दो किशोरों के बीच बने रिश्ते को अपराध कहना उचित है? या इसे सामाजिक समझ और मार्गदर्शन से सुलझाना चाहिए?

अन्य न्यायालयों के दृष्टांत

ऐसे मामले केवल केरल तक सीमित नहीं हैं। कई हाईकोर्ट और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मुद्दे पर विचार किया है।

  • मद्रास हाईकोर्ट ने 2021 में कहा था कि किशोर प्रेम मामलों में POCSO का कठोर प्रयोग कई बार अन्यायपूर्ण परिणाम देता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ फैसलों में यह माना है कि नाबालिग की सहमति को पूरी तरह नकारना व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं है।

हालांकि, अदालतें यह भी मानती हैं कि कानून को बदलने या संशोधित करने का काम विधायिका का है, न कि न्यायपालिका का।


सुधार की आवश्यकता

इस पूरे विवाद ने यह स्पष्ट कर दिया है कि POCSO कानून में कुछ सुधारों की आवश्यकता है

  1. आयु सीमा पर पुनर्विचार
    कई विशेषज्ञ मानते हैं कि 16 से 18 वर्ष की उम्र के किशोरों के मामलों में अलग व्यवस्था होनी चाहिए। अगर सहमति हो और शोषण का कोई तत्व न हो, तो इसे अपराध न माना जाए।
  2. भेदभावपूर्ण मामलों को अलग करना
    वास्तविक शोषण (जैसे बलात्कार, दबाव, या आर्थिक शोषण) और आपसी सहमति के रिश्तों में फर्क करना जरूरी है।
  3. परामर्श और मार्गदर्शन
    किशोरों को शिक्षा और परामर्श के माध्यम से जागरूक करना, ताकि वे भावनाओं में बहकर गलत निर्णय न लें।

आलोचना और समर्थन

इस फैसले पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ सामने आईं।

  • समर्थन में तर्क
    • यह निर्णय व्यावहारिक है और किशोरों के भविष्य को बचाने वाला है।
    • यह स्वीकार करता है कि किशोर प्रेम एक सामाजिक वास्तविकता है।
    • इससे कानून के दुरुपयोग पर रोक लगेगी।
  • आलोचना में तर्क
    • इससे यह संदेश जा सकता है कि नाबालिग संबंधों को मान्यता मिल रही है।
    • कानून की मूल भावना कमजोर पड़ सकती है।
    • अपराधियों को सहमति का बहाना बनाकर बच निकलने का मौका मिलेगा।

निष्कर्ष

केरल हाईकोर्ट का यह फैसला भारतीय न्यायपालिका की संवेदनशीलता और व्यावहारिक दृष्टिकोण का उदाहरण है। अदालत ने कानून की कठोरता और जीवन की वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की है।

यह सच है कि POCSO कानून ने बच्चों को सुरक्षा दी है, लेकिन हर कानून को समय-समय पर समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुसार संशोधित करना पड़ता है। किशोरावस्था की मासूम भावनाओं को अपराध का रूप देना हमेशा न्यायसंगत नहीं हो सकता।

अंततः, यह निर्णय हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि –

  • कानून का उद्देश्य केवल सजा देना नहीं, बल्कि न्याय करना भी है।
  • किशोर प्रेम संबंधों को सामाजिक समझ और परामर्श से हल करना चाहिए, न कि केवल कठोर दंड से।
  • भविष्य में विधायिका को भी इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि न्याय और संवेदनशीलता के बीच संतुलन बना रहे।