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“केरल की POCSO अदालत का ऐतिहासिक निर्णय : 12 वर्षीय बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में महिला और उसके साथी को 180 वर्ष की सज़ा”

“केरल की POCSO अदालत का ऐतिहासिक निर्णय : 12 वर्षीय बच्ची के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में महिला और उसके साथी को 180 वर्ष की सज़ा”


भारत में बाल यौन अपराधों के खिलाफ कानून सख्त हैं, लेकिन जब कोई ऐसा मामला सामने आता है जिसमें अपराधी वही लोग हों जिन्हें बच्चे की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई हो, तो समाज और न्यायपालिका दोनों के लिए यह अत्यंत चिंताजनक होता है। हाल ही में केरल की एक विशेष POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) कोर्ट ने ऐसा ही एक ऐतिहासिक और कठोर निर्णय सुनाया, जिसमें एक महिला और उसके पुरुष साथी को 180 साल की सज़ा दी गई। यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज को एक गहरी चेतावनी भी देता है कि बच्चों के विरुद्ध किसी भी प्रकार की यौन हिंसा को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।


🔹 मामला कैसे शुरू हुआ

मामला केरल के एक जिले से जुड़ा है, जहाँ एक 12 वर्षीय बच्ची को उसकी ही मां और मां के पुरुष साथी द्वारा लगातार कई वर्षों तक यौन उत्पीड़न का शिकार बनाया गया। बच्ची की मासूमियत का फायदा उठाते हुए दोनों ने उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया। जब बच्ची ने स्कूल में किसी शिक्षक को अपने साथ हो रही ज्यादती के संकेत दिए, तब मामला सामने आया।

शिक्षक की सूचना पर चाइल्डलाइन और पुलिस ने बच्ची को संरक्षण में लिया और जांच शुरू की। जांच के दौरान सामने आया कि बच्ची की अपनी मां ने ही अपने साथी को अपराध करने में सहायता दी थी। यह खुलासा पुलिस और समाज दोनों के लिए अत्यंत चौंकाने वाला था।


🔹 अदालत की कार्यवाही

मामले की सुनवाई स्पेशल POCSO कोर्ट में की गई, जहाँ अभियोजन पक्ष ने ठोस सबूत, मेडिकल रिपोर्ट और बच्ची के बयान पेश किए। अदालत ने पाया कि दोनों आरोपियों ने बच्ची के साथ कई बार दुष्कर्म किया और उसकी सुरक्षा के विरुद्ध साजिश की।

बच्ची का बयान अदालत में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से दर्ज किया गया, ताकि उसे दोबारा ट्रॉमा का सामना न करना पड़े। अभियोजन पक्ष ने यह भी बताया कि महिला ने अपनी बेटी को धमकाकर चुप कराया और अपने साथी की हर हरकत में सहयोग किया।


🔹 अदालत का निर्णय

सभी साक्ष्यों, मेडिकल रिपोर्टों और बच्ची के बयान को ध्यान में रखते हुए अदालत ने दोनों को POCSO Act, 2012 की विभिन्न धाराओं के तहत दोषी पाया। कोर्ट ने माना कि यह “एक ऐसा मामला है जिसमें मां जैसे पवित्र रिश्ते ने अपनी मर्यादा खो दी।”

अदालत ने कहा कि इस अपराध की गंभीरता को देखते हुए उचित दंड केवल कठोरतम हो सकता है। इसलिए, महिला और उसके साथी को कुल 180 वर्षों के कठोर कारावास (Rigorous Imprisonment) की सज़ा सुनाई गई।

हालांकि कानून के अनुसार, एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में इतनी लंबी सज़ा पूरी नहीं कर सकता, लेकिन अदालत का उद्देश्य यह दर्शाना था कि अपराध की गंभीरता असाधारण थी। सज़ा की अवधि इस प्रकार रखी गई कि यदि एक सजा किसी कारण से समाप्त हो जाए या घटा दी जाए, तो अन्य सजाएँ प्रभावी बनी रहें।


🔹 POCSO कानून की भूमिका

Protection of Children from Sexual Offences (POCSO) Act, 2012 भारत में बाल यौन अपराधों से निपटने के लिए बनाया गया एक सख्त कानून है। इस कानून का उद्देश्य है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी प्रकार के यौन उत्पीड़न, शोषण या अश्लील गतिविधि से सुरक्षा प्रदान की जाए।

इस कानून के तहत:

  • आरोपी को दोषी पाए जाने पर कठोर दंड का प्रावधान है।
  • बच्ची का बयान in camera दर्ज किया जाता है ताकि उसे मानसिक उत्पीड़न से बचाया जा सके।
  • पीड़ित की पहचान गोपनीय रखी जाती है।
  • अदालतों को मामलों की सुनवाई तेजी से करने के लिए निर्देशित किया गया है।

इस मामले में भी POCSO कानून की सभी प्रक्रियाओं का पालन किया गया।


🔹 समाज के लिए संदेश

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि यह मामला केवल एक अपराध नहीं, बल्कि “मानवता पर कलंक” है। माँ का कर्तव्य अपने बच्चे की रक्षा करना होता है, न कि उसे अत्याचार के हवाले करना।

न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि “जब एक बच्चा अपने ही घर में असुरक्षित हो जाए, तो यह पूरे समाज की असफलता का प्रतीक है।” अदालत ने प्रशासन और समाज से अपील की कि वे बच्चों के प्रति संवेदनशील हों और ऐसे मामलों में तुरंत रिपोर्ट दर्ज करने से न हिचकें।


🔹 विशेषज्ञों की राय

कानूनी विशेषज्ञों ने इस फैसले का स्वागत किया है। उनका कहना है कि यह निर्णय “दृष्टांत” (precedent) के रूप में कार्य करेगा, जिससे भविष्य में अपराधियों को सख्त सज़ा का भय रहेगा।

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का मानना है कि अदालत ने पीड़िता के मनोवैज्ञानिक आघात को समझते हुए न्याय का मार्ग चुना। वहीं, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि समाज को केवल कठोर दंड से ही नहीं, बल्कि शिक्षा, जागरूकता और परामर्श कार्यक्रमों के माध्यम से भी सुधारना होगा।


🔹 बाल सुरक्षा तंत्र की भूमिका

भारत में बाल सुरक्षा के लिए कई संस्थाएँ कार्यरत हैं जैसे – National Commission for Protection of Child Rights (NCPCR), Childline (1098), और Juvenile Justice Boards

लेकिन इस मामले से यह स्पष्ट होता है कि जब अपराध घर के भीतर से ही होता है, तो इन संस्थाओं तक सूचना पहुँचाना और भी कठिन हो जाता है। इसलिए स्कूलों, शिक्षकों और पड़ोसियों की सतर्कता अत्यंत आवश्यक है।


🔹 मानसिक प्रभाव और पुनर्वास

ऐसे अपराधों का सबसे गहरा प्रभाव पीड़ित बच्चे के मन पर पड़ता है। बच्ची को न केवल यौन हिंसा झेलनी पड़ी, बल्कि उसे अपनी माँ के विश्वासघात का भी सामना करना पड़ा।

सरकार और NGOs द्वारा चलाए जा रहे काउंसलिंग और पुनर्वास कार्यक्रमों के तहत अब बच्ची को सुरक्षित वातावरण में मनोवैज्ञानिक सहायता दी जा रही है। अदालत ने भी राज्य सरकार को निर्देश दिया कि पीड़िता को उचित मुआवज़ा, शिक्षा और सुरक्षा दी जाए ताकि वह सामान्य जीवन की ओर लौट सके।


🔹 निष्कर्ष

यह मामला भारतीय न्यायपालिका की उस प्रतिबद्धता को दर्शाता है जिसमें बच्चों की सुरक्षा सर्वोपरि है। केरल की POCSO कोर्ट का यह फैसला केवल एक सजा नहीं, बल्कि एक संदेश है कि कानून किसी भी अपराधी को नहीं बख्शेगा — चाहे वह बच्ची की माँ ही क्यों न हो।

180 साल की सज़ा का प्रतीकात्मक महत्व यह दर्शाता है कि इस तरह के अपराधों को समाज में शून्य सहिष्णुता (Zero Tolerance) के साथ देखा जाएगा।

बच्चे हमारे भविष्य हैं — और यदि उनका बचपन सुरक्षित नहीं है, तो किसी समाज का भविष्य भी सुरक्षित नहीं हो सकता। इसलिए हर नागरिक की यह जिम्मेदारी है कि वह बाल संरक्षण को केवल एक कानून नहीं, बल्कि एक नैतिक दायित्व के रूप में समझे।


  भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक अध्याय जोड़ता है। यह समाज को यह याद दिलाता है कि न्याय केवल अपराधी को सज़ा देने के लिए नहीं, बल्कि पीड़ित को गरिमा और सुरक्षा लौटाने के लिए भी होता है।