केरल उच्च न्यायालय की चेतावनी: “अनुच्छेद 226 का दुरुपयोग न करें, जमानत के लिए सही प्रक्रिया अपनाएं”
भूमिका
भारत के संवैधानिक ढांचे में अनुच्छेद 226 को उच्च न्यायालयों की विस्तृत अधिकार-सीमा के रूप में जाना जाता है, जो उन्हें मौलिक अधिकारों के संरक्षण और न्याय की प्राप्ति हेतु व्यापक अधिकार प्रदान करता है। किंतु हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने इस अधिकार का दुरुपयोग करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर कड़ा रुख अपनाते हुए वकीलों को स्पष्ट चेतावनी दी कि वे जमानत के मामलों में अनुच्छेद 226 की याचिका दाखिल कर प्रक्रियात्मक अनुशासन को भंग न करें। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में भविष्य में जुर्माना लगाने से भी वह पीछे नहीं हटेगा।
मामले की पृष्ठभूमि
न्यायमूर्ति ए.के. जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति जोबिन सेबेस्टियन की खंडपीठ ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए यह तीखी टिप्पणी की। याचिका में याचिकाकर्ता ने अपने गिरफ्तारी की आशंका के चलते अनुच्छेद 226 के तहत राहत मांगी थी, जबकि जमानत के लिए सीआरपीसी (CrPC) की निर्धारित प्रक्रिया के तहत धारा 438 (पूर्व जमानत) या धारा 439 (जमानत) के तहत याचिका दाखिल की जा सकती थी।
न्यायालय की टिप्पणी और चेतावनी
खंडपीठ ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा:
“अनुच्छेद 226 का प्रयोग केवल अपवादात्मक मामलों में होना चाहिए, जहां वैधानिक उपचार अनुपलब्ध हों। जमानत जैसे विषयों के लिए स्पष्ट कानूनी प्रावधान उपलब्ध हैं। इसके बावजूद यदि बार-बार संविधान के अनुच्छेद 226 का दुरुपयोग किया जाता है, तो हम जुर्माना लगाने में संकोच नहीं करेंगे।”
न्यायालय ने यह भी कहा कि:
- इस प्रकार की याचिकाएं न्यायालय के बहुमूल्य समय और संसाधनों की अनुचित बर्बादी हैं।
- यदि इस प्रवृत्ति पर समय रहते रोक नहीं लगाई गई, तो यह संवैधानिक प्रावधानों की गंभीर क्षति का कारण बन सकती है।
- वकीलों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उचित प्रक्रियात्मक रास्ते अपनाएं और संवैधानिक अधिकारों का सम्मान करें।
अनुच्छेद 226 बनाम जमानत की प्रक्रिया
- अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को कोई भी संवैधानिक या वैधानिक अधिकार के उल्लंघन के खिलाफ आदेश जारी करने का अधिकार होता है।
- जबकि जमानत के लिए विशेष रूप से CrPC की धारा 438 और 439 में प्रक्रिया दी गई है, और ऐसे मामलों में सीधा अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर करना अनुचित माना जाता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि अनुच्छेद 226 की शक्ति साधारण वैधानिक उपायों के विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि असाधारण न्यायिक हस्तक्षेप के लिए दी गई है।
वकीलों की जिम्मेदारी और न्यायिक प्रक्रिया का संतुलन
केरल उच्च न्यायालय का यह निर्णय वकीलों को यह याद दिलाता है कि:
- विधिक प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है, चाहे मामला कितना भी संवेदनशील क्यों न हो।
- अधिवक्ता समाज का मार्गदर्शक होता है, उसकी भूमिका केवल याचिकाएं दायर करना नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और प्रक्रिया का संरक्षण भी है।
- यदि बार-बार अनुच्छेद 226 का सहारा लेकर नियमित मामलों को पेश किया गया, तो यह न केवल न्याय में देरी का कारण बनेगा, बल्कि संवैधानिक संतुलन भी बिगड़ेगा।
न्यायपालिका की सख्ती: एक आवश्यक संकेत
यह चेतावनी केवल केरल के वकीलों के लिए नहीं, बल्कि देश भर के विधिक समुदाय के लिए एक स्पष्ट संदेश है। यदि वकीलगण न्यायालय की प्रक्रिया का सम्मान नहीं करेंगे, तो न्यायपालिका को अनुशासनात्मक कदम उठाने पड़ सकते हैं।
यह फैसला न्यायपालिका की स्वयं की गरिमा की रक्षा, प्रक्रियात्मक कानून के पालन, और संवैधानिक अधिकारों के सीमित और विवेकपूर्ण प्रयोग के लिए अत्यंत आवश्यक और समयोचित है।
निष्कर्ष
केरल उच्च न्यायालय का यह आदेश महज एक टिप्पणी नहीं, बल्कि भारतीय न्याय प्रणाली में बढ़ती “फोरम शॉपिंग” और प्रक्रिया के दुरुपयोग की प्रवृत्तियों के खिलाफ एक चेतावनी है। यह तय करता है कि न्याय केवल अधिकारों का विषय नहीं, बल्कि जिम्मेदारी और प्रक्रिया की मर्यादा का भी नाम है।
अंतिम संदेश:
“संविधान की शक्ति उसका संतुलन है — और यह संतुलन केवल तब तक सुरक्षित है, जब तक वकील और नागरिक दोनों उसकी मर्यादाओं को समझते और निभाते हैं।”