किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 – उद्देश्य, प्रावधान और चुनौतियाँ

किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 – उद्देश्य, प्रावधान और चुनौतियाँ


भूमिका

किशोर अपराध और बाल संरक्षण से जुड़ी समस्याएँ समाज और न्याय व्यवस्था के लिए हमेशा से चुनौती रही हैं। बच्चों का विकास, पुनर्वास और पुनः मुख्यधारा में सम्मिलित करना किसी भी आधुनिक न्याय प्रणाली का मूल उद्देश्य होना चाहिए। भारत में किशोर अपराध से संबंधित कानून को समय-समय पर बदला गया है ताकि यह समाज की बदलती परिस्थितियों और अपराध प्रवृत्तियों के अनुरूप हो सके। इसी क्रम में “किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015” को लागू किया गया, जो 2000 और 2006 के पुराने अधिनियमों का स्थान लेता है।


उद्देश्य

  1. बालकों की देखरेख और संरक्षण – जरूरतमंद बच्चों को सुरक्षा, भोजन, आश्रय और शिक्षा उपलब्ध कराना।
  2. पुनर्वास और सामाजिक पुनःस्थापन – अपराध करने वाले किशोरों को कठोर दंड के बजाय सुधारात्मक उपायों से मुख्यधारा में लाना।
  3. न्याय का बाल-हितकारी दृष्टिकोण – सजा के बजाय सुधार पर जोर देना।
  4. अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप कानून – UN Convention on the Rights of the Child (UNCRC) के सिद्धांतों को लागू करना।
  5. संवेदनशील मामलों में त्वरित न्याय – विशेष किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समितियों के माध्यम से।

मुख्य प्रावधान

1. परिभाषाएँ

  • किशोर / बालक – 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति।
  • जरूरतमंद देखरेख और संरक्षण वाला बच्चा – अनाथ, परित्यक्त, उत्पीड़ित, शोषित, या अपराध के शिकार बच्चे।
  • कानून से संघर्षरत बच्चा – अपराध करने के आरोप में पकड़ा गया बच्चा।

2. संरचना और संस्थाएँ

  • किशोर न्याय बोर्ड (JJB) – 1 न्यायिक मजिस्ट्रेट और 2 सामाजिक कार्यकर्ता।
  • बाल कल्याण समिति (CWC) – जरूरतमंद बच्चों की देखरेख और पुनर्वास।
  • विशेष गृह, आश्रय गृह और पुनर्वास केंद्र – बच्चों के रहने और शिक्षा के लिए।

3. अपराध श्रेणियाँ

  • हल्के अपराध – अधिकतम 3 वर्ष की सजा।
  • गंभीर अपराध – 3 से 7 वर्ष की सजा।
  • घोर अपराध – 7 वर्ष से अधिक की सजा; 16-18 वर्ष के किशोरों पर वयस्कों जैसा मुकदमा चलाने की व्यवस्था।

4. 2015 अधिनियम की विशेषताएँ

  1. घोर अपराध के मामलों में वयस्क ट्रायल – निर्भया कांड के बाद यह प्रावधान जोड़ा गया।
  2. गोद लेने के लिए अलग प्रावधान – Central Adoption Resource Authority (CARA) को वैधानिक दर्जा।
  3. बाल तस्करी और शोषण पर सख्त दंड
  4. त्वरित निपटान की समय-सीमा – 4 महीने में मामले का निस्तारण।
  5. पुनर्वास योजना – शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, काउंसलिंग और स्वास्थ्य सेवाएँ।

न्यायिक दृष्टांत

  • शिल्पी शर्मा बनाम भारत संघ (2016) – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वयस्क ट्रायल तभी होगा जब JJB यह प्रमाणित करे कि किशोर में अपराध की प्रकृति और परिणाम समझने की मानसिक क्षमता है।
  • एक्स बनाम महाराष्ट्र राज्य (2018) – अदालत ने कहा कि पुनर्वास का अवसर छीनना, कानून की मूल भावना के विपरीत है।

अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव

UNCRC, बीजिंग नियम (Beijing Rules), और हवाना नियम (Havana Rules) ने इस कानून की संरचना को प्रभावित किया। इनका उद्देश्य है कि किशोर न्याय प्रणाली दंडात्मक न होकर पुनर्वास और सामाजिक पुनःस्थापन पर केंद्रित हो।


चुनौतियाँ

  1. वयस्क ट्रायल की संवैधानिक बहस – आलोचकों के अनुसार यह बाल-हितकारी सिद्धांत के विपरीत है।
  2. संरक्षण गृहों में दुरुपयोग – कई बार शोषण और भ्रष्टाचार की शिकायतें।
  3. कुशल मानव संसाधन की कमी – प्रशिक्षित काउंसलर, सामाजिक कार्यकर्ताओं की कमी।
  4. समाज में पुनःस्वीकृति की समस्या – अपराध करने वाले किशोरों को कलंक झेलना पड़ता है।
  5. कानून के क्रियान्वयन में देरी – समय-सीमा होने के बावजूद लंबित मामले।

निष्कर्ष

किशोर न्याय अधिनियम, 2015 एक संतुलित कानून है जो बाल अपराध और बाल संरक्षण दोनों को ध्यान में रखता है। इसका उद्देश्य बच्चों को दंडित करना नहीं बल्कि उन्हें सुधारना और सुरक्षित भविष्य प्रदान करना है। हालांकि, इसके सफल क्रियान्वयन के लिए समाज, न्यायपालिका और प्रशासन को मिलकर काम करना होगा। उचित संसाधन, प्रशिक्षित कर्मी और सामाजिक संवेदनशीलता से ही यह कानून अपने उद्देश्यों को पूरा कर पाएगा।