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“कार्यपालिका द्वारा न्यायिक क्षेत्र में हस्तक्षेप: हत्या के प्रयास मामले में मेडिकल बोर्ड का पुनर्गठन — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का सख्त निर्णय”

“कार्यपालिका द्वारा न्यायिक क्षेत्र में हस्तक्षेप: हत्या के प्रयास मामले में मेडिकल बोर्ड का पुनर्गठन — पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का सख्त निर्णय”


प्रस्तावना

भारत के संवैधानिक ढांचे में न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका — तीनों स्तंभों के बीच स्पष्ट रूप से सीमाएँ निर्धारित की गई हैं ताकि शासन प्रणाली में संतुलन और स्वतंत्रता बनी रहे। किंतु जब कार्यपालिका न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने लगे, तो न्यायपालिका को अपनी गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कदम उठाना पड़ता है।
ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मामला हाल ही में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष आया, जहाँ एस.डी.एम. (Sub Divisional Magistrate) द्वारा एक आपराधिक मामले में मेडिकल बोर्ड का पुनर्गठन करवा कर चोटों की प्रकृति (nature of injuries) को पुनः निर्धारित करने का आदेश दिया गया। न्यायालय ने इसे कार्यपालिका द्वारा न्यायिक क्षेत्र में अस्वीकार्य हस्तक्षेप माना और कड़ा रुख अपनाया।


मामले की पृष्ठभूमि

मामला एक हत्या के प्रयास (Section 307 IPC) से संबंधित आपराधिक प्रकरण का था। अभियोजन पक्ष के अनुसार, पीड़ित व्यक्ति को गंभीर चोटें आई थीं, जिनका चिकित्सा परीक्षण (MLR – Medico Legal Report) एक सरकारी मेडिकल बोर्ड द्वारा किया गया था। रिपोर्ट में चोटों को “गंभीर प्रकृति” (grievous in nature) बताया गया था, जिसके आधार पर पुलिस ने मामला धारा 307 के अंतर्गत दर्ज किया।

मगर बाद में, आरोपी पक्ष के आवेदन पर उपमंडल मजिस्ट्रेट (SDM) ने हस्तक्षेप करते हुए उक्त मेडिकल बोर्ड को पुनर्गठित करने (reconstitute) का आदेश दिया और निर्देश दिया कि नया बोर्ड चोटों की प्रकृति को पुनः निर्धारित करे।

इस आदेश के बाद मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) ने नए सिरे से मेडिकल बोर्ड गठित किया, जिसने पहले की रिपोर्ट को बदलते हुए चोटों को “साधारण प्रकृति” (simple injuries) घोषित कर दिया। यह परिवर्तन आपराधिक मामले की प्रकृति को पूरी तरह बदल देता था क्योंकि “साधारण चोटें” होने की स्थिति में हत्या के प्रयास जैसी गंभीर धारा स्वतः कमजोर पड़ जाती है।


न्यायालय के समक्ष प्रश्न

इस पुनर्गठन को चुनौती देते हुए पीड़ित पक्ष ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। मुख्य प्रश्न यह था कि—

  1. क्या किसी SDM को अधिकार है कि वह न्यायिक प्रक्रिया के बीच में हस्तक्षेप कर मेडिकल बोर्ड को पुनर्गठित करने का आदेश दे?
  2. क्या ऐसा कदम न्यायिक अधिकार क्षेत्र (Judicial Domain) में हस्तक्षेप नहीं है?
  3. क्या इस प्रकार का आदेश “प्रशासनिक अतिक्रमण” (administrative overreach) की श्रेणी में नहीं आता?

न्यायालय की टिप्पणियाँ

माननीय पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस पूरे प्रकरण पर गंभीर आपत्ति व्यक्त की और विस्तारपूर्वक यह स्पष्ट किया कि:

  • मेडिकल साक्ष्य किसी आपराधिक मामले में न्यायिक प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। इसे बदलने या पुनः जांच कराने का अधिकार केवल न्यायालय या विवेचना अधिकारी (Investigating Officer) को होता है, न कि किसी प्रशासनिक अधिकारी को।
  • SDM द्वारा मेडिकल बोर्ड के पुनर्गठन का आदेश देना न केवल उनकी अधिकार सीमा से परे था बल्कि यह न्यायिक प्रक्रिया में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप था।
  • इस तरह का हस्तक्षेप न्याय की निष्पक्षता को प्रभावित करता है और कानून के शासन (Rule of Law) के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।
  • अदालत ने यह भी कहा कि जब मामला अदालत में लंबित है, तो कार्यपालिका की कोई इकाई उस पर प्रभाव डालने की कोशिश नहीं कर सकती।

न्यायालय का निर्णय

उच्च न्यायालय ने न केवल SDM के आदेश को रद्द (quash) किया बल्कि इसे “गंभीर प्रशासनिक दुरुपयोग” करार दिया।

न्यायालय ने कहा:

“Such interference by the Executive in the domain of the Judiciary shakes the very foundation of judicial independence. No executive officer, howsoever high, has the authority to alter or influence evidence in a criminal proceeding pending before a Court.”

न्यायालय ने इस मामले में तीन प्रमुख आदेश दिए:

  1. SDM, मुख्य चिकित्सा अधिकारी (CMO) और नए गठित मेडिकल बोर्ड के सदस्यों के विरुद्ध विभागीय जांच (Departmental Inquiry) प्रारंभ करने के निर्देश दिए गए।
  2. राज्य सरकार को निर्देश दिया गया कि वह यह सुनिश्चित करे कि भविष्य में कोई भी प्रशासनिक अधिकारी किसी न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप न करे।
  3. याचिकाकर्ता की मूल मेडिकल रिपोर्ट को ही सही और वैध मानते हुए उसे जांच व न्यायिक कार्यवाही के लिए अंतिम माना गया।

संवैधानिक और विधिक विश्लेषण

यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 50 की भावना को सुदृढ़ करता है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य को न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखना चाहिए।

संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह किसी भी ऐसे कार्य या आदेश को निरस्त कर सकता है जो विधि के शासन के विरुद्ध हो। इस मामले में अदालत ने इसी अधिकार का प्रयोग किया।

साथ ही, यह मामला फौजदारी प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 173 और 174 से भी संबंधित था, जिनके तहत केवल जांच अधिकारी या मजिस्ट्रेट को यह अधिकार होता है कि वे किसी मेडिकल रिपोर्ट पर पुनर्विचार का आदेश दें। SDM के पास ऐसा कोई वैधानिक अधिकार नहीं है।


न्यायिक स्वतंत्रता पर टिप्पणी

इस निर्णय का व्यापक महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेकर एक सशक्त संदेश देता है।

न्यायालय ने कहा कि:

“Judicial proceedings cannot be allowed to be contaminated by administrative interference. Every attempt to influence evidence or witnesses through executive pressure is a direct assault on justice.”

यह कथन स्पष्ट करता है कि न्यायिक प्रणाली में कार्यपालिका की भूमिका सीमित है। किसी भी परिस्थिति में कार्यपालिका को यह अधिकार नहीं कि वह किसी आपराधिक साक्ष्य को अपने विवेक से बदल दे।


प्रशासनिक जवाबदेही और भविष्य की दिशा

न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि केवल आदेश रद्द करना पर्याप्त नहीं है। जब तक जिम्मेदार अधिकारियों पर ठोस विभागीय कार्रवाई नहीं होती, तब तक ऐसी प्रवृत्तियाँ दोहराई जाती रहेंगी।

इसलिए, अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि—

  • संबंधित SDM, CMO, और Board Members के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई प्रारंभ की जाए।
  • राज्य प्रशासन को प्रशिक्षण के माध्यम से यह स्पष्ट किया जाए कि न्यायिक प्रक्रिया में दखल देना दंडनीय अपराध है।
  • भविष्य में ऐसे मामलों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए आंतरिक प्रशासनिक दिशा-निर्देश (guidelines) जारी किए जाएँ।

निष्कर्ष

पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय न्यायिक प्रणाली में न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक मील का पत्थर है। यह न केवल कार्यपालिका को अपनी सीमाएँ याद दिलाता है, बल्कि न्यायपालिका की गरिमा और निष्पक्षता को भी सुदृढ़ करता है।

मामले का सार यही है कि—

  • मेडिकल रिपोर्ट न्यायिक साक्ष्य का हिस्सा है; इसे प्रशासनिक आदेश से नहीं बदला जा सकता।
  • SDM का हस्तक्षेप न्यायिक क्षेत्र में अनुचित और गैरकानूनी था।
  • अदालत ने सही रूप से विभागीय कार्रवाई के आदेश देकर यह सुनिश्चित किया कि भविष्य में ऐसी घटनाएँ न हों।

यह फैसला इस सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है कि “न्यायपालिका का क्षेत्र पवित्र और स्वतंत्र है”, और इसमें किसी भी प्रकार की प्रशासनिक दखलअंदाजी को सख्ती से रोका जाना चाहिए।


लेखक की टिप्पणी:
यह निर्णय न केवल एक न्यायिक आदेश है, बल्कि यह प्रशासनिक अधिकारियों के लिए एक स्पष्ट चेतावनी भी है कि न्यायिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का कोई भी प्रयास लोकतांत्रिक शासन के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन तभी संभव है जब दोनों अपनी-अपनी सीमाओं का सम्मान करें और “Rule of Law” की भावना को सर्वोपरि रखें।