शीर्षक:
“कानूनी पेशे में कार्य-जीवन संतुलन की कमीः न्यायमूर्ति विभु बाखरू की विदाई में झलकी न्यायपालिका की जमीनी सच्चाई”
लेख:
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विभु बाखरू ने जब 17 जुलाई 2025 को औपचारिक रूप से अदालत को अलविदा कहा, तो उनका विदाई भाषण एक साधारण औपचारिकता भर नहीं था। वह वक्तव्य न्यायिक सेवा के उस अनदेखे पक्ष की झलक लेकर आया जिसे अक्सर गौरव, सम्मान और न्याय के ऊँचे आदर्शों के पीछे छिपा दिया जाता है—कार्य-जीवन संतुलन की कठिनाई और न्यायिक जीवन की कीमत।
न्यायमूर्ति बाखरू ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि एक न्यायाधीश होना केवल एक पेशा नहीं, बल्कि एक पूर्णकालिक और पूर्णसमर्पित जीवन है, जिसमें किसी के व्यक्तिगत जीवन के लिए शायद ही कोई स्थान बचता है। उन्होंने स्वीकार किया कि न्यायिक पद पर रहते हुए उन्हें अपने परिवार, मित्रों और निजी रुचियों से लगभग कट जाना पड़ा। यह बयान केवल उनकी व्यक्तिगत पीड़ा नहीं थी, बल्कि वह उन सैकड़ों-हजारों न्यायिक अधिकारियों की वास्तविकता है, जो न्याय देने के नाम पर अपने जीवन का बड़ा हिस्सा न्यौछावर कर देते हैं।
न्यायिक दायित्व और कार्यभार
भारत जैसे विशाल देश में जहाँ लाखों मुकदमे न्यायालयों में लंबित हैं, वहाँ न्यायाधीशों पर पड़ने वाला दबाव असाधारण होता है। न्यायमूर्ति बाखरू ने संकेत दिया कि दिन की अदालत की कार्यवाही समाप्त होने के बाद भी एक न्यायाधीश का कार्य समाप्त नहीं होता—फैसले लिखना, अनुसंधान करना, टिप्पणियाँ पढ़ना, और अगले दिन की सुनवाई की तैयारी करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा होता है।
उन्होंने कहा, “कानूनी पेशा बेहद मांगे रखने वाला है, और इसमें कार्य-जीवन संतुलन की कल्पना भी एक विलासिता जैसी है।”
न्यायिक सेवा के आदर्श बनाम वास्तविकता
न्यायपालिका को लोकतंत्र का स्तंभ माना जाता है, और इसमें कार्य करने वाले जजों से निष्पक्षता, ईमानदारी, संवेदनशीलता और तटस्थता की अपेक्षा की जाती है। न्यायमूर्ति बाखरू ने इन मूल्यों को निभाते हुए अपने पूरे करियर को जिया, लेकिन साथ ही उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि इन मूल्यों की पूर्ति के लिए व्यक्तिगत जीवन की बलि देना एक आम बात है।
उनके अनुसार, यह समय है कि न्यायिक सेवा को “सर्विस” नहीं, बल्कि “सेक्रिफाइस” (बलिदान) कहा जाए, क्योंकि न्यायाधीशों की निजी इच्छाएँ, भावनाएँ और सामाजिक जीवन अक्सर उनके न्यायिक कर्तव्यों की छाया में गुम हो जाते हैं।
सहकर्मियों की प्रतिक्रिया और सम्मान
उनकी विदाई पर दिल्ली उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं और कोर्ट स्टाफ ने उन्हें सम्मानित किया और उन्हें एक ऐसे न्यायाधीश के रूप में याद किया जो न केवल कानून की गहरी समझ रखते थे, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी न्याय करते थे। बार के कई सदस्यों ने उन्हें विनम्र, बौद्धिक और अत्यंत कर्मठ न्यायाधीश बताया।
व्यापक परिप्रेक्ष्य में संदेश
न्यायमूर्ति बाखरू की टिप्पणी महज़ एक व्यक्ति की भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र के लिए चेतावनी है। यह संकेत है कि यदि न्यायपालिका के भीतर कार्यरत लोग स्वयं को जला कर व्यवस्था को जीवित रख रहे हैं, तो कहीं न कहीं उस व्यवस्था को संतुलित और संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।
न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना, तकनीकी साधनों का समुचित उपयोग करना, और मानसिक स्वास्थ्य को महत्व देना—ये सभी उपाय जरूरी हैं ताकि न्यायिक प्रणाली अधिक मानवीय बन सके।
निष्कर्षतः, न्यायमूर्ति विभु बाखरू का विदाई भाषण केवल उनके सम्मान का क्षण नहीं था, बल्कि यह एक आत्मस्वीकृति थी—एक आवाज थी जो उन तमाम न्यायाधीशों की तरफ से आई जो वर्षों से चुपचाप न्याय का भार उठाते आ रहे हैं। यह भारतीय न्यायपालिका को आत्मनिरीक्षण का अवसर देता है कि क्या हम अपने “न्याय के रक्षकों” को उतना ही सम्मान, सुविधाएँ और संतुलन प्रदान कर पा रहे हैं जितना वह समाज को न्याय देकर दे रहे हैं?