लेख शीर्षक: “कर्नाटक वन अधिनियम के अंतर्गत वन उपज पर राज्य का अधिकार और साक्ष्य का प्रतिकूल भार: एक न्यायिक दृष्टिकोण”
परिचय
वन भारत की महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपत्ति हैं और इनका संरक्षण तथा उपयोग विधिक ढांचे के अंतर्गत आता है। कर्नाटक राज्य में, कर्नाटक वन अधिनियम, 1963 (Karnataka Forest Act, 1963) एक प्रमुख कानून है जो राज्य में वन भूमि, वन उपज और वनों की रक्षा से संबंधित प्रावधानों को नियंत्रित करता है। इस अधिनियम के अंतर्गत यह एक वैधानिक धारणा (Statutory Presumption) है कि संपूर्ण वन उपज राज्य सरकार की संपत्ति है, जब तक कि इसके विपरीत साक्ष्य न प्रस्तुत किया जाए। यह धारणा न्यायिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह साक्ष्य के भार (Burden of Proof) को अभियुक्त या दावा करने वाले व्यक्ति पर डालती है।
कानूनी प्रावधान और वैधानिक धारणा
कर्नाटक वन अधिनियम के अंतर्गत यह प्रावधान है कि जब कोई व्यक्ति वन उपज को अवैध रूप से काटता, एकत्र करता या उसका परिवहन करता पाया जाता है, तो यह माना जाता है कि वह उपज राज्य की संपत्ति है। विशेष रूप से, अधिनियम की धारा 69 (या संबंधित प्रावधान) में यह कहा गया है कि:
“जब तक कि इसके विपरीत कुछ सिद्ध न किया जाए, यह माना जाएगा कि कोई भी जब्त की गई वन उपज राज्य सरकार की है।”
इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी के पास वन उपज पाई जाती है, तो यह उसका उत्तरदायित्व है कि वह सिद्ध करे कि उसका उस उपज पर वैध अधिकार है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों में इस धारणा की पुष्टि की है और यह स्पष्ट किया है कि राज्य सरकार का यह मान लेना कि जब्त की गई वन उपज उसकी संपत्ति है, एक वैधानिक धारणा है जिसे अभियुक्त द्वारा उचित साक्ष्य प्रस्तुत कर rebut किया जा सकता है।
एक प्रमुख निर्णय में, अदालत ने कहा कि:
“Once forest produce is seized, it shall be presumed to belong to the State unless the accused rebuts the presumption by proving his ownership or authority through valid legal documentation or evidence.”
इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि कोई व्यक्ति कहता है कि उसके पास वैध रूप से वह उपज है (जैसे कि लकड़ी, बांस, गोंद, इत्यादि), तो उसे दस्तावेजी प्रमाण प्रस्तुत करना होगा—जैसे पट्टा, वन विभाग की अनुमति, या अन्य वैध लाइसेंस।
साक्ष्य का भार (Burden of Proof)
यह एक असामान्य स्थिति है जहाँ साक्ष्य का प्रारंभिक भार अभियोजन की बजाय प्रतिवादी पर होता है। आमतौर पर आपराधिक मामलों में अभियोजन को अपराध सिद्ध करना होता है, लेकिन इस अधिनियम के तहत यह व्यक्ति विशेष का कर्तव्य है कि वह साबित करे कि:
- वन उपज उसका वैध रूप से प्राप्त है;
- उसके पास वैध परमिट या स्वीकृति है;
- उपज आरक्षित वन क्षेत्र से प्राप्त नहीं हुई है।
यदि वह ऐसा करने में विफल रहता है, तो उसे दोषी माना जा सकता है।
न्यायिक परीक्षण और संविधानिक संतुलन
हालांकि यह वैधानिक धारणा राज्य हित में वन संरक्षण के लिए उचित है, परंतु इसके दुरुपयोग की संभावना को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अतः न्यायालयों ने यह भी स्पष्ट किया है कि राज्य की यह धारणा मनमानी नहीं हो सकती और न्यायालय अभियुक्त को उचित अवसर देता है कि वह अपने पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत करे।
निष्कर्ष
कर्नाटक वन अधिनियम के अंतर्गत राज्य द्वारा वन उपज पर दावा करना एक वैधानिक अधिकार है, और व्यक्ति विशेष को इसे चुनौती देने के लिए प्रमाण प्रस्तुत करना होता है। यह विधिक व्यवस्था वन संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है, किन्तु इसमें न्यायिक संतुलन भी आवश्यक है जिससे कि निर्दोष व्यक्तियों के अधिकारों का उल्लंघन न हो।
अतः, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उचित रूप से यह सिद्ध किया है कि यद्यपि राज्य का प्राथमिक दावा मान्य है, तथापि व्यक्ति को पर्याप्त अवसर दिया जाना चाहिए कि वह अपनी वैधता सिद्ध कर सके।