“कंप्यूटर जनित द्वितीयक साक्ष्य होने के कारण, कॉल डिटेल रिकॉर्ड्स धारा 65B साक्ष्य अधिनियम के प्रमाणपत्र के बिना अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट”

“कंप्यूटर जनित द्वितीयक साक्ष्य होने के कारण, कॉल डिटेल रिकॉर्ड्स धारा 65B साक्ष्य अधिनियम के प्रमाणपत्र के बिना अस्वीकार्य: सुप्रीम कोर्ट”

लंबा लेख:
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि कॉल डिटेल रिकॉर्ड्स (Call Detail Records – CDRs) जो कंप्यूटर द्वारा उत्पन्न होते हैं, उन्हें भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 65B के तहत आवश्यक प्रमाणपत्र के बिना साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह फैसला डिजिटल साक्ष्य की वैधता और प्रमाणिकता को लेकर न्यायपालिका की स्थिति को मजबूत करता है।

पृष्ठभूमि:

मामले में अभियोजन पक्ष ने कॉल डिटेल रिकॉर्ड्स को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया था, जो एक मोबाइल सेवा प्रदाता से प्राप्त कंप्यूटर जनित दस्तावेज थे। हालांकि, इन दस्तावेजों के साथ धारा 65B के तहत अनिवार्य इलेक्ट्रॉनिक प्रमाणपत्र नहीं दिया गया था।

सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन:

न्यायमूर्ति ‘XXXX’ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि जब कोई दस्तावेज़ इलेक्ट्रॉनिक रूप में उत्पन्न होता है — जैसे कॉल डिटेल रिकॉर्ड — और वह द्वितीयक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसे साक्ष्य के रूप में मान्य तभी माना जा सकता है जब वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65B(4) के अनुसार प्रमाणित हो।

महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ:

  1. धारा 65B(4) के अंतर्गत, किसी भी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को यदि साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसके साथ एक प्रमाणपत्र संलग्न होना आवश्यक है जो यह पुष्टि करता हो कि वह रिकॉर्ड एक नियमित रूप से उपयोग किए जा रहे कंप्यूटर से प्राप्त किया गया है और वह सत्य है।
  2. कोर्ट ने कहा कि बिना इस प्रमाणपत्र के, ऐसे कंप्यूटर जनित दस्तावेजों को केवल इस आधार पर साक्ष्य के रूप में नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वे सरकारी एजेंसी या सेवा प्रदाता से प्राप्त हुए हैं।
  3. सुप्रीम कोर्ट ने Anvar P.V. बनाम P.K. Basheer (2014) और Arjun Panditrao Khotkar बनाम Kailash Kushanrao Gorantyal (2020) जैसे पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए यह स्थिति दोहराई कि धारा 65B का अनुपालन अनिवार्य है।

न्यायिक महत्व:

यह निर्णय यह स्पष्ट करता है कि डिजिटल युग में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों की वैधता केवल उनके स्रोत या प्रयोजन पर नहीं, बल्कि उनके संग्रहण और प्रस्तुति की विधिपूर्ण प्रक्रिया पर निर्भर करती है। इससे अभियोजन और जांच एजेंसियों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे डिजिटल साक्ष्य प्रस्तुत करते समय विधिक औपचारिकताओं का पूर्ण पालन करें।

निष्कर्ष:

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की विश्वसनीयता और प्रक्रिया की पारदर्शिता को सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह निर्णय विशेष रूप से आपराधिक मामलों में तकनीकी साक्ष्यों की स्वीकार्यता को लेकर स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रदान करता है।